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खजुराहो महोत्सव और हिंदू परंपरा

२८ फ़रवरी २०१४

खजुराहो के मंदिर भारतीय संस्कृति और धार्मिक चेतना में नृत्य के महत्व को दिखाते हैं. इसीलिए वहां हर साल दुनिया भर में प्रसिद्ध नृत्य महोत्सव का आयोजन होता है. इस साल नृत्य महोत्सव की 40वीं वर्षगांठ थी.

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तस्वीर: imago stock&people

इस साल यह महोत्सव ऐसे समय में हुआ जब कुछ ही दिनों पहले पेंग्विन प्रकाशन ने धार्मिक गुटों के विरोध के चलते अमेरिकी इतिहासकार वेंडी डोनिगर की पुस्तक “द हिंदूज: एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री” को भारतीय बाजार से हटाने की घोषणा की है. जबकि खजुराहो के अत्यंत प्राचीन मंदिर और वहां की शिल्पकला हिंदू संस्कृति के इसी वैकल्पिक इतिहास का सबूत देते हैं.

मुस्लिम समुदाय के तालिबानी मानसिकता वाले तत्व मुसलमानों पर संकीर्ण और शुद्धतावादी नैतिकता थोपना चाहते हैं, जिसमें स्त्री और पुरुष के बीच संपर्क को हर तरह से नियंत्रित और सीमित किया जा सके, तो कट्टर हिंदुत्ववादी शक्तियां भी हिंदू धर्म से सेक्स को बहिष्कृत करना चाहती हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि में सेक्स और अश्लीलता का चोली-दामन का साथ है. अनेक पंथों और मत-मतांतरों का समुच्चय हिंदू धर्म अपने अनुयायियों को इतनी स्वतंत्रता देता है कि एक नास्तिक भी हिंदू होने का दावा कर सकता है.

हिंदू परंपरा में चार पुरुषार्थ माने गए हैं, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष. यानि धर्म के अनुसार काम करते हुए अर्थोपार्जन और कामोपभोग के बाद मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होने की अवस्था आती है. प्राचीन हिंदू परंपरा के वाहक ‘रामायण' और ‘महाभारत' में भी काम के प्रति अनेक प्रकार के रुझानों के दर्शन होते हैं. वात्स्यायन के ‘कामसूत्र' से तो अब सम्पूर्ण विश्व परिचित है और जानता है कि उन्होंने एक वैज्ञानिक की दृष्टि से कामभावना और कामकला का अध्ययन और विश्लेषण किया था. इस सबके आधार पर कहा जा सकता है कि अपनी मूल प्रकृति में हिंदू धर्म और परंपरा वर्जनावादी नहीं है.

‘कामसूत्र' की तरह ही खजुराहो के मंदिर भी विश्वप्रसिद्ध हैं क्योंकि इनकी बाहरी दीवारों में लगे अनेक मनोरम और मोहक मूर्तिशिल्प कामक्रिया के विभिन्न आसनों को दर्शाते हैं. कुछ तो ऐसे मूर्तिशिल्प भी हैं जिन्हें देखकर आधुनिक चेतना से लैस व्यक्ति भी भौंचक्का रह जाता है. क्योंकि ये मूर्तिशिल्प लक्ष्मण, शिव और पार्वती को समर्पित मंदिरों का अंग हैं, इसलिए इनके धार्मिक महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता.

इनके बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कामकला के आसनों में दर्शाए गए स्त्री-पुरुषों के चेहरे पर एक अलौकिक और दैवी आनंद की आभा झलकती है और अश्लीलता या भोंडेपन का लेशमात्र आभास भी नहीं होता. ये मंदिर और इनका मूर्तिशिल्प भारतीय स्थापत्य और कला की अमूल्य धरोहर है. आश्चर्य नहीं कि इन्हें विश्व धरोहर घोषित किया जा चुका है और इन्हें देखने देश-विदेश के सैलानी आते हैं.

शुरुआत में खजुराहो नृत्य महोत्सव मंदिरों के प्रांगण में ही आयोजित होता था, लेकिन फिर उनकी सुरक्षा को दृष्टि में रखकर इसे मंदिरों के ठीक पीछे आयोजित किया जाने लगा, लेकिन मंच कुछ इस प्रकार से बनाया जाता है कि लगता है कि नृत्य की प्रस्तुतियां मंदिर में ही हो रही हैं. मध्य प्रदेश शासन संस्कृति विभाग इसे आयोजित करता है और इसमें भारत की सभी लोक एवं शास्त्रीय नृत्य शैलियों को प्रतिनिधित्व दिया जाता है. देश के सभी वरिष्ठ नर्तक और नृत्यांगनाएं इसमें भाग ले चुके हैं और अभी भी ले रहे हैं.

हालांकि यह महोत्सव कांग्रेस के शासनकाल में शुरू हुआ था, लेकिन भाजपा ने इसे जारी रखा और इसके लिए उसकी तारीफ की जानी चाहिए. चंदेला शासकों द्वारा दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी में निर्मित ये मंदिर हिंदू धर्म की खुली दृष्टि और काम को स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति के रूप में देखने की परंपरा का जीता-जागता प्रमाण हैं.

विक्टोरियाई किस्म की नैतिकता के लिए हिंदू परंपरा में कभी कोई स्थान नहीं रहा. कालिदास ने अपने समय की वर्जनाओं को नकार कर ‘कुमारसंभव' में पार्वती का जैसा चित्रण किया है, जयदेव और विद्यापति ने जैसे मुक्तभाव से राधा-कृष्ण के प्रेम का भक्तिपूर्ण लेकिन श्रृंगारिक वर्णन किया है और हिन्दी के रीतिकालीन कवियों ने जिस प्रकार के नायक-नायिका भेद पर आधारित काव्य की रचना की है, वह अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि हमारे देश की परंपरा सेक्स और प्रेम के प्रति स्वस्थ और खुली दृष्टि अपनाती थी. खजुराहो के मंदिर और उनके तले होने वाला नृत्य महोत्सव इसी दृष्टि की उल्लासपूर्ण अभिव्यक्ति है.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा

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