1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

खाप परंपरा और आजादी के मायने

१५ अगस्त २०१०

आजादी केछह दशक बीतने के बाद भ‍ी भारत में खाप पंचायतों जैसी परंपराएँ आज भी लोगों को आजादी की खुली सांस नहीं लेने दे रही. हमारी सहयोगी वेबदुनिया की स्मृति जोशी ने कुछ बुद्धिजीवियों से पूछा कि इस कुप्रथा का क्या समाधान है?

https://p.dw.com/p/Oo8h
तस्वीर: UNI

वरिष्ठ साहित्यकार अशोक चक्रधर : मेरे विचार से स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस हमें संविधान को याद करने का सुअवसर देते हैं. हमारे संविधान में अनुच्छेद हैं. इन अनुच्छेदों में कई छेद हैं मगर कोई छेद इतना बड़ा नहीं है कि उसमें से खाप परंपरा जैसी -'कु'रीतियाँ बाहर निकल जाए. खाप परंपरा सरेआम संविधान का उल्लंघन है. संविधान हमें हमारे ढंग से जीने का अधिकार देता है. किसी को भी यह हक नहीं है कि वह उन अधिकारों का इस नृशंसता से हनन करे. हर देश में मनुष्यता के सिद्धांत का पालन किया जाना चाहिए. मैं सोचता हूँ जल्द ही इस देश में एक ऐसा दिवस आना चाहिए जिसमें कोई वर्ण, जाति, संप्रदाय नहीं हो बल्कि सिर्फ और सिर्फ एक सच्चा हिन्दुस्तानी निवास करता हो.
खाप परंपरा पर तुरंत और तत्काल प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए. इन रू‍ढ़‍िवादियों के लिए इस देश में कोई स्थान नहीं जो देश की प्रगति में बाधक है.

वरिष्ठ लेखिका सुधा अरोड़ा : खाप तो सिर्फ एक हिस्सा है, इस देश में और भी कई ऐसे मुद्दे हैं जो जिसकी वजह से हमारी बेशकीमती आजादी शर्मसार हुई है. महँगाई, राजनीतिक भ्रष्टाचार, साहित्यिक व्यभिचार और बढ़ती अनैतिकताएँ देश की ऐसी ही विकराल समस्याएँ हैं. खाप परंपरा हमारे देश को 200 साल पीछे ले जा रही है. इन पर शीघ्र प्रतिबंध आवश्यक है. ये वे लोग हैं जो समाज को बदलते हुए देखना नहीं चाहते. यह कौन सी परंपरा है जो हत्या जैसा जुर्म अंजाम देती है और उसे न्यायसंगत भी ठहराती है. मेरे विचार से दोषियों को वही सजा होना चाहिए जो बलात्कारियों और हत्यारों को दी जाती है. मुझे आँसू आ जाते हैं आँख में, जब मैं शहीदों के बारे में सोचती हूँ, पढ़ती हूँ या कोई देशप्रेम की फिल्म देखती हूँ. कितने हजारों ने इस देश को आजादी दिलाने के लिए कैसी-कैसी कुर्बानियाँ दी. और हमने उस आजादी की क्या कीमत लगाई? टनों अनाज गोदामों में सड़ रहा है और आम आदमी को दाल तक नसीब नहीं.

पिछले दिनों एक निर्णय लिया गया है कि प्रेमी जोड़ों के लिए शहर से बाहर एक शहर बसाया जा रहा है. यह कहाँ की अक्लमंदी है? यह तो ठीक उसी कुरीति का अगला पड़ाव है जिसमें दलितों को शहर के बाहर कर दिया जाता था. हम आगे नहीं बढ़ सकते ऐसी विकृत परंपराओं के कारण. इनका इलाज होना ही चाहिए.

वरिष्ठ पत्रकार विश्वनाथ सचदेव : समाज में चाहे जितनी बुराइयाँ हों स्वतंत्रता दिवस मनाया जाना हमेशा सार्थक रहेगा. यह वह दिवस है जब हमने स्वयं को पहचानने का अधिकार प्राप्त किया था. हमने यह अधिकार हासिल किया था कि अपने निर्णय हम खुद ले सकते हैं. इस दिवस की वजह से हम यह पहचान पा रहे हैं कि खाप जैसी परंपराएँ देश के लिए घातक है. इस तरह की प्रवृत्ति का पनपना किसी भी समाज के लिए खतरनाक संकेत है. इन पर प्रतिबंध तो आवश्यक है ही लेकिन उससे पहले खाप जैसी चीजों को पोषित करने वाली सोच पर हमला करना जरूरी है.

यह परंपरा हमारे मूल्यों और आदर्शों के अनुसार नहीं है. समाज से एक तीखी, तीव्र और स्पष्ट प्रतिक्रिया के आने की सख्त आवश्यकता है. यह जागरुकता महज बौद्धिक वर्ग में ही नहीं वरन समाज के हर हिस्से में हर स्तर पर लाना होगा तभी हम उज्जवल राष्ट्र की गरिमामयी छवि को कायम रख पाएँगे.

कवि और अभिनेता शैलेष लोढ़ा : आप खाप की बात करते हैं? मैं पूछता हूँ इस देश में आजादी है कहाँ? जहाँ एक आदमी दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पाता, लोग भाषा, जाति और राज्यों के नाम पर लड़ते हैं हर कोई एक अलग पहचान के साथ रहना पसंद कर रहा है ऐसे में हिन्दुस्तानी है कहाँ? जब तक समाज की आखिरी इकाई आजादी को महसूस नहीं करती और चंद राजनीतिक दलों के पास ही आजादी रहती है, तब तक माफ करना मैं इस देश में आजाद महसूस नहीं करता. मैं खाप पर बात नहीं करता, मैं आम आदमी पर बात करता हूँ क्योंकि जो गलत है, वह गलत है उस पर प्रश्न कैसा?

साहित्यकार शशांक दुबे : खाप जैसी परंपरा के वाहक नृशंसता के हिमायती हैं इन्हें समझाने वाला क्या कोई नहीं है? मेरे विचार से जो लोग इनसे निकल कर शहर आ गए हैं उनके लिए खाप और उनके निर्णय कोई मायने नहीं रखते. जैसे-जैसे लोगों का गाँवों से शहर की और आगमन होगा वैसे-वैसे समाधान सामने आएगा. जागरूकता गाँव-गाँव तक ले जानी होगी. इस पिछड़े समाज को दूसरी चीजों की तरफ आकृष्ट करना होगा. समाज के बौद्धिक वर्ग से विशेषकर साहित्यिक वर्ग ने अगर पुरजोर विरोध दर्ज नहीं कराया है तो मुझे लगता है यह अधूरा सच है. जो लोग विरोध नहीं कर पा रहे हैं वे वही हैं जिनके सामने तात्कालिक लक्ष्य है क्योंकि साहित्य एक विशाल कैनवास है.

समाज को ‍निरंतर बेहतर बनाने की कोशिश का नाम साहित्य है. समाज को सँवारने की जिम्मेदारी का नाम साहित्य है. छोटे उद्धेश्यों की पूर्ति में लगे लोग अपने क्षेत्र और जाति में उलझकर साहित्य के महान उद्धेश्य से भटक रहे हैं. उनकी निगाहें छोटी हैं इसलिए वे खाप की बुराई नहीं देख पा रहे हैं. बदलाव की प्रक्रिया मानसिक स्तर पर होना आवश्यक है क्योंकि कानून के बाहर भी हत्या तो होती रहेगी.

लेख: स्मृति जोशी, वेबदुनिया

संपादन: महेश झा

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी

और रिपोर्टें देखें