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गरीबी का इलाज खोजना जरूरी

ग्रैहम लूकस/एमजे२० जनवरी २०१५

ब्रिटिश राहत संगठन ऑक्सफैम ने चेतावनी दी है कि जल्द ही केवल एक फीसदी लोगों के पास दुनिया की कुल संपत्ति का 50 फीसदी हिस्सा होगा. ग्रैहम लूकस का कहना है कि पिछले छह सालों में अमीरों और गरीबों के बीच अंतर तेजी से बढ़ा है.

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तस्वीर: Mustafiz Mamun

स्विट्जरलैंड के दावोस में 21 से 24 जनवरी के बीच इकट्ठा हो रहे विश्व नेताओं के लिए ऑक्सफैम का सर्वे सटीक समय पर आई चेतावनी है. हर साल की तरह यहां दुनिया के हालात पर चर्चा होगी, जो फिलहाल बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते. हाल ही में सामने आए औद्योगिक देशों के संगठन ओईसीडी यानि आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के नतीजे भी ऑक्सफैम जैसे ही थे. ओईसीडी ने चेताया था कि अमीरों और गरीबों के बीच का अंतर पिछले तीस सालों के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गया है. मतलब ये हुआ कि ज्यादा से ज्यादा लोग दुनिया भर में बढ़ रही समृद्धि में हिस्सेदारी पाने से वंचित रह जा रहे हैं.

जल्द ही दुनिया की एक प्रतिशत आबादी के पास विश्व की कुल संपत्ति का 50 फीसदी होगा. दूसरी ओर, पहले से ही गरीब दुनिया की करीब आधी आबादी की संपत्ति लगातार घट रही है. यह नतीजे उस सिद्धांत को झुठलाते हैं जिसका कहना है कि आर्थिक विकास न सिर्फ धनी लोगों को फायदा पहुंचाता है बल्कि विश्व अर्थव्यवस्था में कामगार के रूप में लगे गरीब लोगों को भी. ऑक्सफैम ने इस तथ्य पर भी जोर दिया है कि 2008 के विश्व बैंकिंग संकट के बाद के सालों में आम लोगों के चुकाए गए टैक्स की मदद से ही विश्व की वित्तीय व्यवस्था को ढहने से बचाया जा सका था. लेकिन उसके बाद भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने उत्पादकता से हुए फायदे को कर्मचारियों के साथ बांटने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया है.

क्या हम अपेक्षा कर सकते हैं कि विश्व के नेता इन चेतावनियों को सुनेंगे? क्या इस दलील पर ध्यान होगा कि गरीबी लोगों को आतंकवाद की राह पर ले जाती है और इसलिए भी बातचीत गरीबी से लड़ने के बारे में हो? शायद नहीं. दावोस में जमा होने वाले विश्व नेता, जो अपने साथ अमीरों और विख्यात लोगों को लेकर आएंगे, शायद फिर वही करेंगे जो वे कई सालों से करते आ रहे हैं. वे फिर मीडिया के लिए गंभीर बयान देंगे और अमीरों और गरीबों के अंतर को मिटाने के लिए कोई अर्थपूर्ण कदम उठाने के बजाए इसे मानवजाति के सामने खड़ी गंभीर समस्याओं में से एक बता कर अपना कर्तव्य पूरा समझेंगे.

गरीबी से लड़ने में राजनीतिक नेताओं की उदासीनता को उनके नजरिए से समझा जा सकता है. इनमें से ज्यादातर नेता पश्चिमी देशों के हैं जहां गरीबी दिखती तो है लेकिन उतनी नहीं. आने वाले 20 से 30 सालों में दुनिया से गरीबी खत्म होने की संभावना कम ही लगती है. ऐसे में सरकारों और उद्योग धंधों पर इतनी जल्दी गरीबी के खिलाफ कोई बड़ा अभियान चलाने का दबाव नहीं बनाया जा सकता. चूंकि गरीबी निवारण नीतियों के नतीजे इतनी जल्दी नहीं दिखेंगे इसलिए ये प्रयास शायद उन्हें दुबारा चुनाव भी नहीं जीता पाएंगे. गरीबी मिटाने की उनकी कोशिशों का फल सामने आने से पहले ही वे पद छोड़ चुके होंगे, इसीलिए हर बार दूरगामी समस्याओं के बदले फौरी समस्याओं की ही चर्चा होती है. कोई आश्चर्य नहीं अगर इस बार भी पेरिस का आतंकी हमला और उसके नतीजे बहस के केंद्र में हों और आतंकवाद से लड़ने, खुफिया सेवाओं, सुरक्षा बलों के लिए बजट बढ़ाने पर बातचीत हो. पेरिस में जो कुछ हुआ उसके बाद यह सब जरूरी भी है. लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि आतंकवाद की जड़ें घोर गरीबी से निकलती हैं.

दावोस में विश्व नेताओं को मिलकर आने वाली पीढ़ियों के लिए एक कार्यसूची तैयार करनी चाहिए. उसमें विश्व अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के रास्ते जरूर सुझाए जाने चाहिए लेकिन यह भी दिखाना चाहिए कि इससे समाज के सबसे गरीब तबके को भी ज्यादा फायदा कैसे पहुंच सकेगा. विकास के ऐसे कदम उठाए जाएं जिसमें सबकी बेहतरी और शिक्षा की बेहतर मौके हों. जाहिर है कि इसके कई रास्ते हैं, लेकिन समस्या उन्हें लागू करने में आती है. इस तरफ कदम उठाए जाने बेहद जरूरी हैं ताकि सब गरीब और असंतुष्ट लोग अपनी समस्या का हल आतंकवाद में ना ढूंढने लगें. जैसा कि एक बार ब्रिटिश अखबार 'दि गार्डियन' ने लिखा था: "जब गरीबी एक सामान्य बात बन जाए, तब वह सबसे खतरनाक हो जाती है."