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गांवों से गायब होती कजरी और झूले

४ अगस्त २०१४

बदलते परिवेश में सावन में ग्रामीण अंचलों में सुनाई देने वाले सदाबहार लोकगीतों के बोल धीरे धीरे मंद पड़ने लगे हैं.

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तस्वीर: Suhail Waheed

घिर घिर आई बदरिया, सजन घर नाही रे रामा और धीमे धीमे बरसो से बदरिया सजन घर नही आयो रे रामा जैसी तमाम बोलियों की पहचान गांव से भी मिटती जा रही है. जीवन शैली में बदलाव के कारण सावन के सदाबहार लोकगीत, महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले कजरी गीत और सावन के झूले ग्रामीण इलाकों से भी गायब हो रहे हैं.

सावन की तीज और अन्य पर्व स्वस्थ मनोरंजन के साधन तथा मेल मिलाप के माध्यम हुआ करते थे. श्रद्धा उमंग और खुमारी के संगम से शुरू होने वाले इस महीने का चरम हरियाली तीज पर पहुंचकर समाप्त होता था.

महिलाओं और युवतियों से बात करने पर उन्होंने इसे बीते दिनों की परम्परा बतायी जबकि वृद्ध महिलाएं इस पर गंभीर हो गईं.

बुलन्दशहर के गांव किला मेवई की महिला शरबती देवी ने बताया कि सावन के महीने में गांव की बेटियां अपने मायके आती थीं तथा मूसलाधार बारिश के बाद हल्की हल्की बूदों के बीच ही घर से निकल कर झूले झूलती थीं. वहीं अलीगढ जिले के अल्लेपुर गांव की वृद्ध महिला असरफी देवी ने बताया कि सावन के महीने में शायद ही कोई घर ऐसा बचा रहता होगा जहां लड़कियों और नवविवाहिताओं को मल्हार गाते न देखा जाता हो मगर अब सारी बातें गांवों में बीते दिनों के किस्से कहानियां ही रह गई हैं. अधिकांश उम्रदराज महिलाओं ने बताया कि बाग बगीचों में अब सावन के गीत नहीं गूंजते. हरियाली तीज की परंपरा धीरे धीरे कम होती जा रही है और इसी के साथ उस दौरान गाए जाने वाले गीत भी.

एएम/आईबी (वार्ता)