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गाजा से इतनी दूरी किसलिए

५ अगस्त २०१४

गाजा के हालात पर विवशता नजर आती है. सरकारों के अलावा हमास जैसे संगठनों और इस्राएल पर दबाव बनाने वाली शक्तियां सीमित हुई हैं. इसी का नतीजा है कि भारत जैसे देश में गाजा हिंसा के विरोध में प्रतिक्रिया न के बराबर है.

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तस्वीर: Reuters

देश की आजादी के बाद से 80 तक का दशक अंतरराष्ट्रीय मामलों में ताकतवर देशों की चौधराहट के खिलाफ भारतीय नजरिए से वाकिफ था. भारत का भी गुटनिरपेक्ष आंदोलन के अगुआ की हैसियत से अपना रुतबा था. न सिर्फ राजनैतिक नेतृत्व के रूप में बल्कि देश के भीतर भी प्रगतिशील शक्तियों के संगठनों की एकजुटता देखने लायक थी. वे मानवाधिकार के हनन के मुद्दों को उठाया करते थे. जब वे ऐसे किसी मुद्दे पर आंदोलन का आह्वान करते थे तो लोग सड़कों पर निकल आते थे और सरकारें दबाव में आ जाती थीं.

अब सड़कों में इन आंदोलनों और प्रदर्शनों की जगह सिकुड़ गई है. प्रतीक के तौर पर अपने ही शहर देहरादून की मिसाल देता हूं जिसका एक प्रगतिशील और मानवाधिकार संघर्षों में आंदोलनों का समकालीन इतिहास रहा है. लेकिन अब सड़कों के किनारे बेतहाशा निर्माण की ईंटें, रेत, बजरी, पत्थर ही पड़े दिखते हैं. वे ताकतें पीछे हट गई हैं जिनपर देश दुनिया के जेनुइन मसलों पर मशाल लेकर चलने का जिम्मा था. रही बात आम लोगों की तो वे अपने घरबार और रोजीरोटी में इतना उलझ गए हैं कि बाकी दुनिया उन्हें समझ नहीं आती. और ये बात सिर्फ देहरादून पर लागू नहीं होती. अन्य शहरों का भी कमोबेश यही हाल है.

गाजा जैसे मामलों पर आंदोलनों की अगुवाई वाम संगठनों और वाम राजनैतिक दलों के पास थी. कुछ गैर-वाम संगठन भी ऐसे विरोध जलसों में शामिल रहते थे. लेकिन गाजा पर आज जो भारत जैसे इतने बड़े मुल्क में हम छिटपुट विरोध ही देख पाते हैं तो इसकी एक बड़ी वजह ये भी है कि ऐसे आंदोलनों को लेकर जनता के बीच जाने वाली राजनैतिक-सांस्कृतिक शक्तियां कमजोर पड़ी हैं. उनका रसूख मिटा है और संसद से लेकर सड़क तक वे लाचारी में आ गई है. हालांकि ये लाचारी उनकी खुद की बनाई हुई है. ले देकर प्रदर्शन हुआ अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में, हैदराबाद में या कश्मीर में या कुछ हद तक जेएनयू में. इनमें भी मुस्लिम प्रतिनिधियों का बहुमत था. मानो गाजा का मामला सिर्फ मुस्लिमों की चिंता का विषय है. बाकी देश का इससे कोई मतलब नहीं.

आखिर गाजा भारतीय सामूहिक स्मृति से बेदखल कैसे हो गया, जबकि इतिहास गवाह है कि गाजा और फलीस्तीन के मामले में हम अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और इंसानी बिरादरी का अहम हिस्सा रहे हैं. क्या इसके पीछे आतंकवाद के खिलाफ वो नया युद्ध है जिसका आह्वान अमेरिका ने किया था और जिसमें भारत के साथ इस्राएल भी खड़ा है? क्या इस नजरिए से ये तीन देशों की अघोषित धुरी है या फिर ये दो कट्टर राष्ट्रवादियों का मिलन है जिसकी जड़ें संघ के इस्राएल प्रेम में गुंथी हैं? या फिर ये हथियारों और रक्षा सौदों के विशाल बढ़ते बाजार की नई छलांगे भरती दोस्तियां हैं जिनका एकमात्र उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा फायदा है?

आज आप सोशल नेटवर्किग पर जाइये फेसबुक के अपडेट और ट्विटर के ट्रेंड देखिए. भारत से गाजा हिंसा पर कोई सक्रियता नजर नहीं आती. उल्टा इस्राएल के समर्थन में इंडिया फॉर इस्राएल जैसे हैशटैग निकल आए. ऐसा लगता है कि हॉलीवुड फिल्मों का एंटी अरब सेंटीमेंट सोशल मीडिया की वर्चुअल और वास्तविक दुनिया में उतर आया है. तो क्या भारत का बहुसंख्यक समाज गाजा की बदनसीबी को उसके समुदाय, धर्म और आतंक का मामला मानने लगा है?

निस्पृहता और उदासीनता के इस दौर में गाजा के बारे में इसलिए भी सोचना चाहिए क्योंकि ये भारत की छवि का भी प्रश्न है. गाजा किसी एक बिरादरी या किसी एक साधारण से भूगोल का मसला नहीं है, इसमें अंतरराष्ट्रीय नागरिकता, उसके उसूल और संप्रभुता की हिफाजत का सवाल भी है. नागरिक और मानव गरिमा का सवाल भी है. इस नाते विरोध तो बनता ही है. लेकिन ऐसा लग रहा है कि भारत में बदलते राजनीतिक समीकरणों के बीच विरोध के मुद्दे भी बदल रहे हैं. ये संकेत अच्छे नहीं हैं.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादन: महेश झा