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गाय और गुजरात ने रोकी अमर्त्य सेन पर फिल्म

प्रभाकर मणि तिवारी
१२ जुलाई २०१७

अर्थशास्त्री और फिल्मकार सुमन घोष को शायद अब सिर मुंड़ाते ही ओले पड़ने वाली कहावत का अर्थ समझ में आ रहा है. नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन पर बनायी उनकी डाक्यूमेंट्री पर सेंसर बोर्ड को हैं कई आपत्तियां.

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Amartya Kumar Sen
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/G. Ertl

करीब पंद्रह सालों की मेहनत और इंतजार के बाद फिल्मकार सुमन घोष ने नोबेल पुरस्कार से सम्मानित जाने माने अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन पर एक डाक्यूमेंट्री बनायी थी. इसे इसी हफ्ते शुक्रवार को कोलकाता में रिलीज होना था. लेकिन उस पर सेंसर बोर्ड की टेढ़ी निगाहें पड़ने की वजह से अब कोलकाता और पश्चिम बंगाल के लोग इस फिल्म को नहीं देख सकेंगे. वैसे, सोमवार को कोलकाता में कुछ खास लोगों के लिए इस फिल्म का निजी प्रीमियर आयोजित किया गया. उसके बाद मंगलवार को सेंसर बोर्ड ने भी इसे देखा. लेकिन उसने फिल्म में कुछ शब्दों व संवादों पर आपत्ति जतायी है.

फिल्म

सुमन घोष ने 'दि आर्गुमेंटेटिव इंडियन' के शीर्षक वाली इस फिल्म को दो हिस्सों में शूट किया है. इसका पहला हिस्सा वर्ष 2002 में फिल्माया गया था और दूसरा वर्ष 2017 में. फिल्म का नाम सेन की ही इसी नाम की एक पुस्तक से लिया गया है. सोमवार को कुछ चुनिंदा लोगों के लिए आयोजित प्रीमियर के बाद भारतीय सेंसर बोर्ड ने मंगलवार को यह फिल्म देखी. उसके बाद फिल्मकार घोष से कहा गया कि सेन के कहे गये कुछ शब्दों को अगर हटा या म्यूट कर दिया जाए तो इसे 'यूए' प्रमाणपत्र के साथ रिलीज किया जा सकता है.

वैसे, यह जानना कम दिलचस्प नहीं है कि आखिर बोर्ड को किन शब्दों पर आपत्ति है? उसे देश की मौजूदा परिस्थिति के संदर्भ में गुजरात, गाय, भारत का हिंदुत्ववादी नजरिया और हिंदू भारत शब्दों से ऐतराज है. अमेरिका की कॉर्नेल यूनिवर्सिटी में सेन के एक भाषण में गुजरात शब्द का जिक्र आया है. और उसी भाषण का कुछ हिस्सा फिल्म में भी शामिल किया गया है.

इस डाक्यूमेंट्री में सेन और कॉर्नेल यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और उनके छात्र रह चुके कौशिक बसु के बीच विभिन्न मुद्दों पर लंबी बातचीत है. इसके अलावा, फिलमें में सेन के बारे में पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह समेत कई देशी विदेशी विद्वानों की टिप्पणियां भी हैं. एक दृश्य में सेन अपनी इसी नाम से लिखी पुस्तक का जिक्र करते हुए कहते हैं कि यह किताब भारत के बारे में उनकी समझ पर आधारित है. अब कई बार इस देश को हिंदू भारत कहा जाता है तो कई बार किसी और विजन के साथ इसका नाम लिया जाता है. इसी सिलसिले में उन्होंने बहस और तर्क की जरूरत पर जोर देते हुए गाय शब्द का इस्तेमाल किया है.

इस डाक्यूमेंट्री में शांतिनिकेतन में सेन के बचपन से लेकर कोलकाता में उनके कालेज के दिनों और फिर इंग्लैंड और अमेरिका तक के सफर को नैरेशन के जरिये बताया गया है. इसके अलावा इसमें देश और दुनिया के विभिन्न समकालीन मुद्दों पर उनके विचार शामिल हैं. लेकिन आखिर उनको सेन पर यह फिल्म बनाने का विचार कैसे आया? इस सवाल पर घोष कहते हैं, "अमर्त्य सेन बुद्धिजीवियों की एक ऐसी दुर्लभ प्रजाति के जीव हैं जो मौजूदा दौर में तेजी से विलुप्त हो रही है. इसलिए मैंने वर्ष 2000-01 के दौरान इस डाक्यूमेंट्री को बनाने का फैसला किया."

सेंसर का फैसला

अब सेंसर बोर्ड के ताजा फैसले के बाद सुमन घोष ने फिलहाल फिल्म के भविष्य के बारे में कुछ नहीं सोचा है. वह कहते हैं, "सेंसर बोर्ड के रवैये से साफ है कि मौजूदा दौर में ऐसी डाक्यूमेंट्री बेहद प्रासंगिक है. इसमें सेन ने देश में बढ़ती असहिष्णुता का जिक्र किया है." घोष कहते हैं कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में सरकार की आलोचना पर ऐसी कड़ी प्रतिक्रिया लोकतंत्र की व्याख्या पर ही सवालिया निशान लगाती है. वह साफ कहते हैं, "समकालीन दौर के महानतम लोगों में से एक, सेन के कहे शब्दों या वाक्यों में रत्ती भर भी हेर-फेर करने का कोई सवाल नहीं पैदा होता. सेंसर बोर्ड चाहे जो भी फैसला करे, उससे खास फर्क नहीं पड़ता. सेन पर बनी यह डाक्यूमेंट्री कई विदेशी फिल्म समारोहों में प्रदर्शित की जाएगी."

हार्वर्ड विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर सुगत बोस कहते हैं, "सेंसर बोर्ड का फैसला अभिव्यक्ति की आजादी पर एक निरर्थक और अस्वीकार्य हमला है. वह इसे मूलतः एक अकादमिक फिल्म बताते हुए कहते हैं कि इसमें बेहद सावधानी से चुनिंदा शब्दों का इस्तेमाल किया गया है. इसे तुरंत सेंसर बोर्ड का प्रमाणपत्र दिया जाना चाहिए." घोष का आरोप है कि सेंसर बोर्ड बेवजह अतिरिक्त सावधानी बरत रहा है. फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जो आपत्तिजनक हो.

दूसरी ओर, सेंसर बोर्ड ने इस फैसले पर कोई टिप्पणी करने से इंकार कर दिया है. उसके एक सदस्य ने बुधवार को नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, "देश के मौजूदा राजनीतिक माहौल में हमें हर शब्द को ठोक बजा कर देखना पड़ता है. फिल्मकार को प्रमाणपत्र हासिल करने की शर्त बता दी गयी है. उसका पालन करने पर ही इसे हरी झंडी मिल सकेगी."

अमेरिका के मियामी में अर्थशास्त्र पढ़ाने वाले सुमन घोष फिल्मी दुनिया के कोई नये खिलाड़ी नहीं हैं. वह अब तक छह फिल्में बना चुके हैं और उनको नेशनल अवार्ड भी मिल चुका है. कॉर्नेल यूनिवर्सिटी से फिल्म निर्माण का प्रशिक्षण लेने वाले घोष ने इस डाक्यूमेंट्री से पहले छह फीचर फिल्में भी बनायी हैं. उनकी पहली ही फीचर फिल्म ‘फुटस्टेप्स' को वर्ष 2008 में दो नेशनल अवार्ड मिले थे. उसमें सौमित्र चटर्जी और नंदिता दास ने काम किया था. उनकी तमाम फिल्में देशी विदेशी फिल्म समारोहों में प्रदर्शित होती रही हैं.

बांग्ला फिल्मद्योग ने सेंसर बोर्ड के फैसले पर मिली-जुली प्रतिक्रिया जतायी है. कुछ लोगों ने फिल्म नहीं देखने की बात कह कर कन्नी काट ली है तो कुछ का कहना है कि सेंसर बोर्ड के अपने मापदंड हैं. लेकिन सौमित्र चटर्जी समेत कई अभिनेताओं ने इस डाक्यूमेंट्री को तुरंत हरी झंडी दिखाने की मांग की है. फिलहाल घोष ने आगे की रणनीति पर कोई फैसला नहीं किया है. वह कहते हैं कि दुख इस बात का है कि स्थानीय लोग इसे नहीं देख सकेंगे. लेकिन विदेशी समारोहों में इसका प्रदर्शन जारी रहेगा.