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ग्राम स्वराज को जिंदा करता एक और गांधी

२० सितम्बर २०१९

भारत के गांव राजनीतिक, धार्मिक और जातिगत मतभेदों से त्रस्त रहते हैं. बड़े संकट के सामने आने पर भी ये मतभेद लोगों को एकजुट नहीं होने देते. लेकिन क्या मयंक गांधी का पर्ली प्रयोग, सबके लिए नजीर बन सकता है?

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DW Eco India | Episode 48 | Mayank Gandhi
मयंक गांधीतस्वीर: DW

महाराष्ट्र के मराठवाड़ा इलाके का बीड जिला. यह भारत के सबसे ज्यादा सूखा प्रभावित इलाकों में से एक है. साल भर पानी की किल्लत से जूझने वाले इस इलाके में ही सबसे ज्यादा किसान आत्महत्या करते हैं. 2018 में मराठवाड़ा में 909 किसानों ने खुदकुशी की. इस इलाके में भी पर्ली तहसील का हाल सबसे बुरा है. पूरे भारत में सिंचाई की सबसे कम दर यही हैं. भारत का औसतन 40 फीसदी इलाका सिंचाई के दायरे में हैं, पर्ली में यह दर 1.72 फीसदी है. कृषि के दम पर जिंदगी गुजरना यहां तकरीबन नामुमकिन हो चुका है. यहां के कई निवासी हताश हो चुके हैं, नाउम्मीदी के बीच कई लोग शराब का सहारा लेने लगे.

लेकिन ऐसे हालात पर्ली में तीन साल पहले थे. आज, ग्लोबल पर्ली इनिशिएटिव के दायरे में आए 15 गांव, इतिहास को दोबारा लिख रहे हैं.  इसका आइडिया मयंक गांधी से दिमाग से निकला. इस पहल के संस्थापक मयंक की मदद 15 गांवों के सभी 30 हजार निवासियों ने की.

बीते तीन साल इस बात के गवाह हैं कि कैसे 70 किलोमीटर लंबी पापनाशी नदी में नई जान आ गई. इलाके में बहने वाली इस नदी को अविरल रखने के लिए 162 तालाब, 52 चेक डैम और वॉटरशेड बनाए गए. सोच यही थी कि इलाके में पानी की एक भी बूंद बर्बाद न हो.

पर्ली के किसान मुक्तेश्वर काडभणे कहते हैं, "सिर्फ मयंक गांधी ही नहीं बल्कि गांव वाले भी काफी अच्छी तरह सक्रिय हुए. हमने चार लाख रुपये जमा किए, वो भी किसी को चंदा देने के लिए बाध्य किए बगैर. जो जितना दे सकता था, हमने लिया. ग्रामीणों ने कम से कम 10 रुपये देने से शुरुआत की, कुछ ने 10 हजार रुपये भी दिए. ऐसा एक भी घर नहीं था जिसने भागीदारी न निभाई हो, ऐसे परिवार भी थे, जिनका कमाऊ सदस्य शहर में रहता है या फिर जो गांव छोड़ चुके हैं. इस तरह से हमने अपने गांव से बहने वाली पापनाशी नदी को चौड़ा और गहरा किया."

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पापनाशी नदी में जान फूंकने के लिए ऐसे तालाब और चेक डैम बनाए गएतस्वीर: DW

गांव वालों ने सिर्फ पैसे से ही मदद नहीं की बल्कि सक्रिय भूमिका भी निभाई. अपने गांव के विकास में वे हिस्सेदार हैं. ग्लोबल पर्ली इनिशिएटिव के संस्थापक मयंक गांधी ज्यादा गांवों के चुनने की वजह बताते हैं, "इन 15 गांवों को चुनने के पीछे हमारे तीन मुख्य कारण थे. हम ज्यादा मॉडल बनाना चाहते थे. यानि अगर ज्यादा गांव मिलेंगे तो हम ज्यादा मॉडल बना पाएंगे. दूसरा, गांधी जी कहा करते थे कि गांवों को आत्मनिर्भर होना चाहिए. लेकिन एक गांव ऐसा नहीं कर सकता, इसीलिए हमने 15 लिए. जब मैं गांवों में गया तो अहसास हुआ कि ये मल्टीपल ऑर्गन फेलियर जैसा मामला है, इसीलिए अगर आप वाकई कोई असर चाहते हैं, तो आपको शरीर के सभी अंगों पर एक साथ काम करना होगा."

इलाके की दुश्वारियों को ध्यान में रखते हुए, ग्लोबल पर्ली इनिशिएटिव की प्राथमिकता ये थी कि आजीविका के दूसरे साधन पैदा किए जाएं. विकल्प होगा तो लोग पूरी तरह कृषि पर निर्भर नहीं रहेंगे. कभी अच्छी फसल हुई तो उनकी जेब में अतिरिक्त आमदनी होगी. शुरुआत महिलाओं से हुई.  गीता भागवत कदम के मुताबिक आगाज आसान बिल्कुल भी नहीं था, "जब मैंने चटनी बनाना शुरू किया तो मेरे परिवार वाले चिंता में पड़ गए. मैंने उनसे पूछा कि मैं रोज खेती बाड़ी के काम के साथ ही अलग से ये भी कर सकती हूं? उन्होंने कहा, ठीक है, तो मैंने इसके लिए टाइम निकालना शुरू किया. अब मैं सुबह और शाम चटनी बनाती हूं, खेत पर मैं सुबह 10 बजे जाती हूं और शाम को साढ़े छह बजे वहां से लौटती हूं. जब मुझे समय मिलता है तो मैं ये करती हूं."

ममदापुर गांव की गीता भगवत कदम, एक सेल्फ हेल्प ग्रुप के सदस्यों के साथ मिलकर ऐसे सत्रों में हिस्सा लेती हैं. ग्रुप के लोग मूंगफली की चटनी बनाते हैं. चटनी पड़ोस के शहरों में रहने वाले दोस्तों, परिवारों और कॉरपोरेट घरानों के बीच जाती है. इसकी मार्केटिंग ग्लोबल पर्ली करता है. महीने में मिलने वाले दो से तीन ऑर्डर 3,000 रुपये की आमदनी कराते हैं.

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15 गांव के सारे लोग एक एक बूंद बचाने के लिए साथ आएतस्वीर: DW

महिलाओं की भागीदारी को मयंक खासा अहम मानते हैं, "पुरुष तो संघर्ष कर ही रहे हैं लेकिन महिलाओं का संघर्ष उनसे भी ज्यादा हैं क्योंकि वे परिवार की देखभाल भी करती हैं. अगर उनके पास आय का स्रोत होगा तो उससे पूरे परिवार की मदद होगी. इससे भी जरूरी यह है कि महिलाएं अपने बच्चों के लिए उनकी पढ़ाई के लिए कुछ बचत भी कर सकती हैं. इसीलिए महिलाओं को सशक्त करना सबसे जरूरी है."

इन ग्रामीण महिलाओं ने कायाकल्प करने वाली यात्रा में एक अहम भूमिका निभाई है. नाउम्मीदी के एक दौर में जब अवसाद और अल्कोहल की लत ने इस इलाके को अपनी चपेट में ले लिया था, तब महिलाओं ने आगे बढ़कर नेतृत्व किया. उन्होंने पूरी शिद्दत से पर्ली गांव के आस पास शराब की बिक्री के खिलाफ गांधी के अभियान में हिस्सा लिया. आज पर्ली के 15 गांवों में एक भी शराब की दुकान नहीं है. पहले यहां 100 दुकानें हुआ करती थीं.

कभी सबसे ज्यादा किसानों की आत्महत्या और भीषण मौसमी मार के लिए सुर्खियां बटोरने वाला इलाका, पर्ली आज आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास के मामले में नजीर बन रहा है. मुक्तेश्वर काडभणे के मुताबिक लोग ने खुद को बदला है और गांवों पर इसका सीधा असर देखा जा सकता है, "ग्लोबल पर्ली ने यहां के लोगों की मानसिकता को बदला है. अगर गांव विकास करना चाहता है तो हमें अपने राजनीतिक, सामाजिक या किसी भी तरह के मतभेद किनारे रखने होंगे. एक बार ऐसा होते ही हम जरूरी चीजें करने में जुट गए, भले ही वह निजी हों या सार्वजनिक काम. हम एक समुदाय के रूप में साथ आए. पहले बहुत विभाजन था, राजनीतिक, जातिगत और धार्मिक आधार का. अब हम एक दूसरे को इंसान की तरह देखते हैं, हम किसी महिला या पुरुष के अन्य जुड़ावों से कोई मतलब नहीं रखते हैं. हम ये नहीं देखते हैं कि उसके पास जमीन है या नहीं, धर्म क्या है, ऐसा कोई भेदभाव मौजूद नहीं है. हम एक साथ मधुरता से रहते हैं क्योंकि इसी के चलते हम अपने गांव में सामाजिक और सांस्कृतिक विकास देख पाते हैं."

रिपोर्ट: यूलिया हेनरिषमन

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