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चित्रकार बनना आसान हुआ है

१६ अगस्त २०१४

हर्षवर्धन स्वामीनाथन उन चित्रकारों में प्रमुख हैं जिन्होंने पिछले दो दशकों के बीच कला जगत में अपनी जगह बनाई है. वे जैव-वैज्ञानिक हैं और बरसों तक बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करते रहे हैं.

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तस्वीर: DW/K. Kumar

दोस्तों में हर्षा के नाम से विख्यात स्वामीनाथन की पेंटिंग्स की प्रदर्शनियां भारत के सभी प्रमुख शहरों के अलावा न्यूयॉर्क, पाओलो अल्टो एवं ब्रसेल्स में भी हो चुकी हैं. प्रस्तुत है उनके साथ हुई बातचीत के कुछ अंश:

जैव-वैज्ञानिक से चित्रकार बनने की यात्रा जरूर बहुत दिलचस्प रही होगी. आपके पिता जगदीश स्वामीनाथन देश के अग्रणी चित्रकार थे. क्या उनका असर था जो आपने इतनी बढ़िया नौकरी छोडकर पेंटिंग करने का जोखिम उठाया? स्वामी की प्रतिक्रिया कैसी थी?

जब मैं छोटा था तब अक्सर मेरे पिता पेंटिंग करते वक्त मुझसे छोटे-छोटे काम कराते रहते थे और एक तरह से मैं उनका स्टूडियो असिस्टेंट था. उनके ब्रश धोना, उन्हें छोटे-छोटे कपड़े फाड़ कर देना और इसी तरह के कुछ अन्य काम मैं करता था. यह सिलसिला दस वर्ष से सोलह वर्ष की आयु तक चला जब मैंने हायर सेकेंडरी पास कर लिया. अक्सर वे रंगों, उनके संयोजन, आकृतियों और स्पेस के विभाजन जैसी बातों के बारे में मुझसे सवाल करते थे. दरअसल वे ये सवाल अपने-आप से कर रहे होते थे. उन्हें काम करते देखना और पेंटिंग बनने की प्रक्रिया में शामिल रहना, इसी से मेरा पहला कला-संस्कार बना.

मेरी नौकरी वाकई बहुत बढ़िया थी और मैं खूब कमा रहा था. लेकिन तीस का होते-होते मुझे लगने लगा कि यदि अब इस चक्र से बाहर नहीं निकला तो कभी नहीं निकल पाऊंगा. इसलिए 1991 में मैंने एकाएक लंदन में अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया. एक-डेढ़ साल तक कंसल्टेंसी की और फिर उसे भी छोडकर पूरे समय पेंटिंग करने लगा. सौभाग्य से मैंने काफी पैसे बचा लिए थे और मुझे जीविका की चिंता नहीं थी.

जब मेरा हायर सेकेंडरी का रिजल्ट आया था, तब मशहूर चित्रकार केजी सुब्रह्मण्यम हमारे घर आए हुए थे. उन्होंने मेरे पिता से कहा कि हर्षा को पेंटिंग का कोर्स करने बड़ौदा भेज दो. यह सुनते ही मैंने कहा कि मुझे पेंटिंग से कुछ लेना-देना नहीं है. इसलिए जब मैंने नौकरी छोड़ दी और अपने पिता को बताया कि अब मैं पेंटिंग करना चाहता हूं तो उन्हें काफी सुखद आश्चर्य हुआ. उन्होंने मेरा बहुत उत्साह बढ़ाया और पांच साल तक मैंने दिन-रात पेंट करने के अलावा कुछ नहीं किया. 1996 में मेरी पेंटिंग्स की पहली प्रदर्शनी लगी, पर बदकिस्मती से उसे देखने को मेरे पिता जीवित नहीं थे.

आप ज्यामितीय आकृतियां अधिक बनाते हैं. क्या स्वामी का आप की शैली पर कोई असर पड़ा? और किन चित्रकारों ने आपको प्रभावित किया?

अपने पिता को पेंटिंग बनाते देखने से निश्चय ही मुझे प्रेरणा मिली और मेरे अवचेतन में उनकी बनाई हुई आकृतियां जगह बनाती गयीं. वे भी त्रिभुज को अपनी पेंटिंग्स में इस्तेमाल करते थे. वे पॉल क्ले के बहुत बड़े प्रशंसक थे. घर में क्ले और उनकी कृतियों के बारे में काफी किताबें थीं. उनका भी मुझ पर काफी असर पड़ा. उनके अलावा मार्क रोथ्को, वासिली कांदिन्स्की, हेनरी मतीस, प्रभाकर कोलते, राजेंद्र धवन, बहुत लोगों का काम मैंने पसंद किया है और उनसे प्रभावित भी हुआ हूं.

गणित के अध्ययन के कारण मेरे लिए भी त्रिभुजीय आकृति खास महत्व रखती थी. शुरुआत में मैं उसके प्रतीकात्मक महत्व से भी प्रभावित था लेकिन अब मैं केवल उसे कागज या कैनवस की द्वि-आयामी सतह को विभाजित करने के लिए इस्तेमाल करता हूं.

अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में कुछ बताइये.

प्रक्रिया बहुत सीधी-सादी है. मैं किसी पूर्व निर्धारित विचार या उद्देश्य लेकर पेंटिंग बनाना शुरू नहीं करता. शुरुआत तो कैनवस पर रंग लगाने और फिर उस पर एक और रंग लगाने से होती है. इस क्रम में कहीं पर अचानक किसी दूसरी आकृति का त्रिभुजीय रूप आकार लेने लगता है. अगर कोई मुझे पेंटिंग शुरू करने के पहले दिन देखे और फिर तब आकार देखे जब वह पूरी हो चुकी हो, तो वह व्यक्ति पहचान ही नहीं पाएगा कि यह वही पेंटिंग है जो उसने पहले दिन देखी थी.

आजकल के कलाजगत के परिदृश्य के बारे में क्या सोचते हैं? अब तो कलाजगत की खबर तभी आती है जब कोई पेंटिंग करोड़ों रुपये में बिकती है.

मेरी राय में तो काफी अच्छा है. बाजार के खुलने से चित्रकारों के लिए आसानी हो गई है. हमसे पिछली पीढ़ियों के चित्रकारों ने जो संघर्ष किए थे, उनके कारण ऐसा परिवेश बना है जिसमें अब चित्रकार बनना और बने रहना आसान हो गया है. फिर भी समस्याएं तो हैं, मसलन ख्याति पाने के लिए अंधी दौड़ वगैरह. कभी-कभी यह भी हो सकता है कि मार्केटिंग के नए तरीकों के इस्तेमाल से कोई पेंटिंग बहुत ऊंचे दाम पर बिक जाए और उसकी कलात्मक कीमत उतनी न हो. मेरे पिता कहा करते थे कि कला का परिदृश्य तीन तत्वों से बनता है, कलाकार, कला समीक्षक और कला को प्रोत्साहन देने वाला. इन दिनों पहला और अंतिम तत्व तो है, पर बीच वाला गायब है.

इंटरव्यू: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा