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चुनावी मजबूरी और वैचारिक कशमकश

कुलदीप कुमार२१ जुलाई २०१६

लीक से हटकर भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश राज्य इकाई के उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह को पहले उनके पद से हटाया और फिर पार्टी से निष्कासित कर दिया. कुलदीप कुमार का कहना है कि बीजेपी कशमकश से गुजर रही है.

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Indien Wahlen Archiv 2013 BSP
तस्वीर: DW/S. Waheed

बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष, राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री और जानी-मानी दलित नेता मायावती को दयाशंकर सिंह ने ‘वेश्या से भी बदतर' बताया था. ऊपर से देखने पर लगता है कि उनके बयान पर संसद और संसद के बाहर मचे बवाल के कारण भाजपा ने उनके खिलाफ यह फैसला लिया है, लेकिन हकीकत यह है कि यह फैसला पंजाब और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के मद्देनजर मजबूरी में लिया गया है. इसके पहले साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ, साध्वी निरंजन ज्योति और गिरिराज सिंह समेत अनेक भाजपा नेता विरोधियों के खिलाफ भड़काऊ, अश्लील और आपत्तिजनक बयान देते रहे हैं लेकिन किसी के खिलाफ कार्रवाई करना तो दूर, पार्टी अध्यक्ष अमित शाह या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनकी आलोचना तक नहीं की और न ही संयम बरतने की सलाह दी. यूं अभी तक दयाशंकर सिंह के खिलाफ न तो मोदी का बयान आया है और न ही शाह का. वित्तमंत्री अरुण जेटली ने जरूर उनकी आलोचना की थी.

दो साल पहले हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उत्तर प्रदेश की कुल अस्सी सीटों में से तिहत्तर पर विजय प्राप्त की थी. ‘कांग्रेसमुक्त भारत' की सफलता के लिए उत्तर प्रदेश में उसे जीत मिलना बेहद जरूरी है. अभी तक माना जा रहा था कि राज्य का दलित मायावती से बेजार होकर किसी अन्य विकल्प की तलाश में है. भाजपा की पूरी कोशिश उसे अपनी ओर खींचने की है और इसी उद्देश्य से राज्य इकाई की कमान केशव प्रसाद मौर्य को सौंपी गई. बिहार से सबक न सीखकर अमित शाह उत्तर प्रदेश में भी वही रणनीति अपना रहे हैं जिसे वहां करारी हार का सामना करना पड़ा था. यह रणनीति सामाजिक इंजीनियरिंग करके एक विजयी जाति-समीकरण तैयार करने और प्रदेश के मतदाताओं को साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के आधार पर बांट कर चुनावी लाभ लेने पर टिकी है. दलितों को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा ने बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर को अपनाया और उनकी 125वीं जयंती को धूमधाम से मनाने के कार्यक्रम में स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शामिल हुए.

Amit Shah Arun Jaitley Neu Delhi Indien
तस्वीर: Getty Images/S.Hussain

लेकिन इस सब की राह में एक ऐसी अड़चन आ रही है जिसका कोई तोड़ भाजपा के पास नहीं है. 2014 में उसके केंद्र में सत्ता में आने के बाद से विभिन्न हिंदुत्ववादी संगठनों और तत्वों का हौसला इतना बढ़ा है कि वे कहीं भी कानून को अपने हाथ में लेने से नहीं हिचक रहे. हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में दलित छात्र रोहित वेमूला के आत्महत्या पर मजबूर होने के कारण उभर रहे दलित एवं छात्र असंतोष की आग तो देश भर में फैल ही रही थी, उधर तथाकथित गौरक्षक दलों ने उत्तर प्रदेश के दादरी में अखलाक की हत्या करने के अलावा राजस्थान, हरियाणा और गुजरात में भी मुसलमानों और दलितों को अपनी हिंसा का शिकार बनाना शुरू कर दिया. मुंबई में अंबेडकर भवन को भारी विरोध के बावजूद ज़मींदोज़ कर दिया गया जिसके विरोध में वहां जबरदस्त जुलूस निकला और प्रदर्शन हुआ. इसी बीच गुजरात में मृत गाय की खाल उतार रहे कुछ दलित युवकों की सार्वजनिक रूप से लोहे की छड़ों से पिटाई करने का मामला सामने आया और वहां कई दलितों ने इससे क्षुब्ध होकर आत्महत्या के प्रयास किए और दलितों ने मृत गायों को सरकारी भवनों की आगे डाल कर और उनकी लाशों को ठिकाने लगाने से इंकार कर अपने तीव्र विरोध का प्रदर्शन किया. इस आग में दयाशंकर की अश्लील और घोर आपत्तिजनक टिप्पणी ने घी का काम किया क्योंकि यह टिप्पणी दलितों की सबसे लोकप्रिय और शक्तिशाली महिला नेता के खिलाफ की गई थी.

दयाशंकर सिंह के निष्कासन का कोई खास असर होने की संभावना नहीं है और उनकी टिप्पणी से भाजपा का पूरा खेल बिगड़ता दीख रहा है. इस टिप्पणी को महिला और दलित अपनी गरिमा पर जानबूझकर किया गया आघात समझ रहे हैं और उन्हें यह भी एहसास है कि यदि पंजाब और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव सिर पर न होते तो बहुत संभव है कि दयाशंकर सिंह के खिलाफ उसी तरह कोई कार्रवाई न होती जैसे अनेक अन्य नेताओं के खिलाफ नहीं की गई. दरअसल समस्या यह है कि चुनावी मजबूरी भाजपा को एक दिशा में धकेलती है लेकिन उसके सदस्यों और नेताओं की वैचारिक पृष्ठभूमि और प्रशिक्षण उन्हें नितांत विपरीत दिशा में धकेलते हैं. राजनीतिक विचारधारा और राजनीतिक व्यवहार के बीच का यह तनाव उसके लिए मुश्किलें खड़ी करता रहेगा.