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चुनावों में जाति की राजनीति

८ मई २०१४

भारत के लोकसभा चुनावों में विकास और प्रगति की बातें जरूर हुई और लोगों ने बेहतर सरकारी सेवा की चाह भी दिखाई लेकिन जातिवाद का मुद्दा अत्यंत अहम रहा है. राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए इसे हथियार बनाने से बाज नहीं आए.

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तस्वीर: DW/A. Chatterjee

लोकसभा चुनावों के लिए मतदान लगभग पूरा हो गया है. बस 12 मई को अंतिम चरण का मतदान होना बाकी है. भारतीय जनता पार्टी का शुरू से दावा था कि पूरे देश में नरेंद्र मोदी के पक्ष में हवा ही नहीं चल रही बल्कि सुनामी की याद दिलाने वाली शक्तिशाली लहर है जिसके कारण उसके नेतृत्व वाले गठबंधन एनडीए को कम से कम 300 सीटें तो मिल ही जाएंगी. लोकसभा के चुनावों में लहर केवल दो बार ही देखी गई है. इमरजेंसी समाप्त होने के बाद हुए चुनाव में उत्तर भारत में कांग्रेस के विरोध में लहर उठी थी. इसका असर यह हुआ कि जाति, धर्म और संप्रदाय की सीमाएं टूट गईं और कांग्रेस का उत्तर भारत से सफाया हो गया.

मतदाताओं ने उसी उम्मीदवार को वोट दिया जिसके कांग्रेस के खिलाफ जीतने की सबसे अधिक संभावना थी. नतीजा यह हुआ कि इन्दिरा गांधी और संजय गांधी भी चुनाव हार गए. दूसरी बार लहर इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में देखने को मिली. इसमें कांग्रेस के पक्ष में लहर थी. नतीजतन उसे लोकसभा में इतनी सीटें मिलीं जितनी जवाहरलाल नेहरू के जमाने में भी नहीं मिली थीं. इस बार भी लोगों ने जाति और धर्म से ऊपर उठकर कांग्रेस के पक्ष में वोट दिया.

जाति की भूमिका

लेकिन सारे मीडिया हाइप के बावजूद इस बार के लोकसभा चुनाव के शुरुआती दौर में ही यह स्पष्ट हो गया कि नरेंद्र मोदी के पक्ष में हवा तो है, पर कोई तगड़ी लहर नहीं, क्योंकि जाति हर बार की तरह ही इस बार भी अपनी राजनीतिक भूमिका निभा रही है. बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में यह सच्चाई और भी अधिक उजागर हो रही है.

सभी अनुमानों को गलत सिद्ध करते हुए बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू यादव एक बार फिर अपने पक्ष में जातिगत समीकरण बनाने में सफल हो गए लगते हैं और उनकी पार्टी को आशा से अधिक कामयाबी मिलती दिख रही है. इसी तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश में यादव एक बार फिर समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव के पीछे गोलबंद हो रहे हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी जाटों ने अजित सिंह को नकारा नहीं है. मायावती का दलित जनाधार तो अपनी मजबूती के लिए प्रसिद्ध है ही.

आरएसएस के सपने

बीजेपी और उसके पितृ-संगठन आरएसएस का हमेशा से यह सपना रहा है कि सभी प्रकार के जातिगत, संप्रदायगत और क्षेत्रगत भेद को भुलाकर समूचा हिन्दू समाज एक शक्तिशाली संगठन के रूप में उभरे. लेकिन उन्हें इस दिशा में कोई विशेष सफलता नहीं मिल पायी है. 1990 के दशक में उसने अयोध्या आंदोलन के जरिये इस दिशा में जबर्दस्त कोशिश की थी और विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंडल का जवाब लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा निकाल कर कमंडल से दिया था.

लेकिन वह कोशिश कुछ वर्षों के लिए ही सफलता पा सकी. हकीकत यह है कि जाति आज भी भारतीय समाज की एक ऐसी विशिष्टता है जिसकी बदसूरती को देखकर उस पर मुंह तो बनाया जा सकता है लेकिन जिससे नजर को चुराया नहीं जा सकता. उसका आधार हिन्दू धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था की विचारधारा तो है ही, लेकिन उसकी जड़ें समाज की आर्थिक संरचना में गहराई तक धंसी हैं. समाज के आर्थिक ताने-बाने के साथ जाति का इतना संश्लिष्ट संबंध है कि उसे तोड़ने के लिए दशकों का समय काफी नहीं है. इसीलिए भीमराव अंबेडकर और उनके बाद जिन लाखों दलितों ने हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म स्वीकार किया, उन्हें अंततः निराशा ही हाथ लगी क्योंकि धर्म परिवर्तन करके भी वे अपनी जाति से पीछा नहीं छुड़ा पाये.

मोदी भी पीछे नहीं

चुनाव में धर्म की तरह जाति की भी हमेशा से भूमिका रही है और आज भी है. बीजेपी समेत सभी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार चुनते समय चुनावक्षेत्र में किस धर्म और जाति की कितनी आबादी है, इसका हमेशा खयाल रखते हैं. उमा भारती और कल्याण सिंह के पिछड़ा होने को भी बीजेपी ने भुनाने की कोशिश की है, लेकिन किसी को भी यह उम्मीद नहीं थी कि जिन नरेंद्र मोदी के पक्ष में जबर्दस्त लहर होने का दावा किया जा रहा है, वह भी चुनावी सफलता के लिए जाति का दामन थामेंगे.

मोदी उत्तर प्रदेश में वाराणसी से उम्मीदवार हैं. वहां के पटेल बहुल इलाकों में उनके चुनाव प्रचार में लगे कार्यकर्ताओं ने जो पोस्टर बांटे हैं, उन पर सरदार वल्लभ भाई पटेल, ‘अपना दल' की नेता और स्थानीय पटेल समुदाय की प्रतिनिधि अनुप्रिया पटेल और स्वयं नरेंद्र मोदी के फोटो छपे है. पटेल नाम को चुनाव में भुनाने की यह एक बेईमान कोशिश है क्योंकि सभी जानते हैं कि गुजरात के पटेल उत्तर प्रदेश के पटेलों की तरह पिछड़ी जाति में नहीं गिने जाते.

खुद नरेंद्र मोदी अपने को पिछड़ी जाति का बताकर सहानुभूति बटोरने में लगे हैं. प्रियंका गांधी वाड्रा ने उन पर “नीच राजनीति” करने का आरोप लगाया, तो पलट कर मोदी ने उन पर यह आरोप लगा दिया कि वह नीच शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रही हैं क्योंकि मोदी निचली जाति के हैं. और इस तरह यह उनके साथ-साथ निचली जातियों का अपमान भी है. जब चुनावी लहर के शीर्ष पर विराजमान होने का दावा करने वाले नरेंद्र मोदी जाति के कार्ड का ऐसा इस्तेमाल कर रहे हैं, तो अनुमान लगाया जा सकता है कि अन्य उम्मीदवारों ने जाति के आधार पर वोट बटोरने के लिए क्या-क्या न किया होगा.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा