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समाज

छीना जा रहा है सीवर सफाईकर्मियों के जीने का हक

शिवप्रसाद जोशी
११ सितम्बर २०१८

दिल्ली में सैप्टिक टैंक की सफाई करते हुए पांच लोगों की मौत से ये सवाल फिर से मुंह बाएं खड़ा है कि लोगों को इस भयानक काम से कब मुक्ति मिलेगी, सरकारें कब मुस्तैद होंगी और समाज कब जागेगा.

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Indien Neu Delhi - unaufgeklärte Todesursachen bei Arbeitern
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/S. Das

मोतीनगर इलाके में डीएलएफ के एक हाउसिंग कॉम्प्लेक्स के सीवर टैंक की सफाई के लिए उतरे पांच लोगों की दम घुटने से हुई मौत पर दिल्ली सरकार ने भी जांच के आदेश दे दिए हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस बारे में दिल्ली के मुख्य सचिव और पुलिस कमिश्नर को नोटिस जारी करते हुए कहा कि "संबद्ध अधिकारियों और ठेकेदारों की लापरवाही की वजह से पांच निर्दोष लोगों के जीने का हक छिना है.” हालात कितने चिंताजनक है कि आयोग के 18 साल पहले के दिशा निर्देशों पर भी गौर नहीं किया गया. सफाईकर्मियों की सुरक्षा के लिए आयोग ने 2000 में गाइडलाइन और सेफ्टी कोड निर्धारित किये थे. सीवर की सफाई का ठेका जेएलएल नाम की फर्म को दिया गया था. पुलिस ने सुपरवाइजर और ठेकेदार को हिरासत में लिया है. बीजेपी और आम आदमी पार्टी के बीच इस मामले पर राजनीतिक बयानबाजी भी तेज हो गई है.

सफाई कर्मचारी आंदोलन के एक आंकड़े के मुताबिक पिछले पांच साल में 1470 लोगों की मौत सीवर लाइनों और सैप्टिक टैंकों की सफाई करते हुए हुई. सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण मंत्रालय ने 2017 में 300 मैनुअल स्केवेंजरों के मारे जाने की सूचना लोकसभा में दी है. जनवरी 2018 के पहले सात दिन में सात सफाईकर्मी मारे गए. मैनुअल स्केवेजिंग कानूनन अपराध है लेकिन धड़ल्ले से गरीबों को इस काम के लिए विवश किया जा रहा है. सरकार की इस साल की गिनती में देश में मैनुअल स्केवेंजरों की संख्या 53,236 पाई गई. लेकिन ये आंकड़ा पूरा नहीं बताया जा रहा है क्योंकि इसमें देश के 121 जिलों से ही डाटा लिया गया है. और रेलवे का तो इसमें आंकड़ा ही नहीं है जहां सबसे ज़्यादा मैनुअल स्केवेंजर बताए जाते हैं.

हाथ से मैले की सफाई को पूरी तरह खत्म करने के लिए युद्धस्तर के प्रयासों की जरूरत है. एक पूरा का पूरा अभियान इस दिशा में होना चाहिए. जिस तरह स्वच्छ भारत अभियान छेड़ा गया, उसी तरह उसी व्यापकता और उसी संसाधनप्रचुरता वाले अभियान की दरकार इस काम में है. केंद्र सरकार को एक विस्तृत, डेडलाइन युक्त और पारदर्शी कार्ययोजना बनानी चाहिए जिसमें निगरानी और जवाबदेही का ढांचा भी स्पष्ट हो. इसके अनुरूप ही राज्यों को भी कार्रवाई करनी चाहिए. हाउसिंग बोर्डों, बैंकों, सरकारी एजेंसियों, निर्माण कंपनियों, शहर नियोजको और सिविल सोसायटी के नुमायंदों को एक साथ बैठना चाहिए. सामाजिक जागरूकता हर हाल में चाहिए ताकि मैला साफ करने वालों के प्रति भेदभाव और छुआछूत खत्म हो सके.

Indien - Ganges verschmutzung
गैरकानूनी और अमानवीय परिस्थितियों में काम करते लोगतस्वीर: Getty Images/AFP/S. Kanojia

मोतीनगर वाली घटना से कुछ दिन पहले, अगस्त के आखिरी सप्ताह में दिल्ली सरकार ने मैनुअल स्केवेंजरों के लिए स्किल डेवलेपमेंट प्रोग्राम लॉंच किया था. शाहदरा जिले को इस काम के लिए चुना गया जहां ऐसे 28 लोग चिंहित किए गए जो पिछले 5 से 15 साल से हाथ से मैला उठा या साफ कर रहे थे. उन्हें तीन महीने का हाउसकीपिंग का प्रशिक्षण मिलेगा. दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने कहा है कि ये पायलट प्रोजेक्ट है और आने वाले दिनों में इसे दिल्ली के हर जिले में लागू कर दिया जाएगा. लेकिन इस सिलसिले में निगरानी कमेटियां भी बननी चाहिए. हर राज्य इससे सीख ले सकता है. नीति नियोजन में ऐसी प्रक्रियाएं भी होनी चाहिए जिनसे इन मैला ढोने वालों और गंदगी की सफाई के लिए जान जोखिम में डालने वालों का बेहतर पुनर्वास हो सके.

हालांकि इस मामले में सरकारों का रिकॉर्ड दयनीय है. 2006-07 में मैनुअल स्केवेंजरों के लिए एक पुनर्वास योजना बनी थी. 2012 तक 226 करोड़ रुपए जारी किए गये थे. वेब पत्रिका द वायर ने आरटीआई से मिली सूचना के आधार पर बताया कि 2013-14 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने मैनुअल स्केवेंजरों के पुनर्वास के लिए 55 करोड़ रुपये जारी किए थे. इसमें से 24 करोड़ अब भी खर्च नहीं हुए हैं. वर्तमान सरकार ने सितंबर 2017 तक इस दिशा में एक भी पैसा जारी नहीं किया है. लेकिन योजना की कार्यप्रणाली का अंदाजा तो इसी बात से लग जाता है कि 2006-07 से लेकर 2018-19 की अवधि के दरम्यान सिर्फ पांच बार इस स्कीम के तहत फंड रिलीज हो पाया. यानी सरकार कोई भी हो, पुनर्वास के काम को गंभीरता से नहीं लिया गया. और वैसे भी इस तरह से इतनी कम राशि का पुनर्वास हालात को बदलने वाला नहीं हैं. सफाई कर्मचारी आंदोलन के संस्थापक और रेमन मैगसैसै अवार्ड विजेता समाजसेवी बेजवाडा विल्सन का मानना है कि इस दिशा में एक व्यापक सोच का अभाव है. यह पुनर्वास नहीं बल्कि पीछा छुडाने की प्रवृत्ति ज्यादा दिखती है.

मैनुअल स्केवेंजिग को खत्म करने और इसे प्रतिबंधित करने वाला पहला कानून 1933 में बना था. उसके बाद दूसरा कानून 2013 में बना. अर्थव्यवस्था में भी इन वंचितों के लिए राशि तो है लेकिन स्पेस नहीं. अंदाजा लगाया जा सकता है कि कानूनों और आर्थिक सुधारों का यह हाल है तो समाज की दशा क्या होगी जहां जातिप्रथा, छुआछूत, सवर्णवाद जैसी बुराइयां- समझदारी, सौहार्द और प्रगतिशीलता के तानेबाने पर आए दिन हमलावर दिखती हैं.