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जंगल से ही निकलेगा तरक्की का रास्ता

११ अक्टूबर २०१५

भारत आदिवासियों और किसानों का देश था और कमोबेश अब भी है. अब जंगल और खेत पर उनके स्वामित्व और उनके मूल निवास को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं. ऐसी अर्थव्यवस्था आकार ले रही है जो मूल निवासियों को बेदखल करने पर आमादा है.

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तस्वीर: Reuters/Stringer

इस नई अर्थव्यवस्था में गुण तो किसान और आदिवासी के भी गाए जा रहे हैं लेकिन गुणगान की आड़ में जंगल नष्ट हो रहे हैं और खेती सिमट रही है. आदिवासी और किसान शहरों की ओर पलायन कर दिहाड़ी मजदूर या साधारण नौकर-कामगार बन गए हैं. आदिवासियों को बेशक नई रोशनी नया जमाना चाहिए. उन्हें भी अच्छा खाना अच्छा स्कूल अच्छा पहनावा अच्छा स्वास्थ्य अच्छा इलाज चाहिए. उन्हें भी गरिमा और सम्मान की नागरिकता चाहिए. और उनके इन न्यूनतम अधिकारों के लिए सरकारों के पास क्या है. एक नीति जो नाइंसाफी बन जाती है, एक फाइल जो जंगल को काटने वाली आरी बन जाती है, एक कानून जो उन्हें रातोंरात बेघर कर सकता है. आदिवासियों के विकास की झांकी देखनी हो तो आज जिसे लाल कॉरीडोर कहा जाता है उस पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडीशा से लेकर मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश तक फैले अपार जंगल और वहां के आदिवासियों का जीवन देखना चाहिए.

Indien Frauen in Kohlenbergbau in Jharkhand
तस्वीर: AP

आप सड़कें लाते हैं, वाहन लाते हैं, अस्पताल भी देरसबेर ले आते हैं, स्कूल भी चला लेते हैं. लेकिन इनकी रफ्तार और इनकी मजबूती भी तो देखिए. भारत के आदिवासी कल्याण मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि की कुल आबादी में करीब साढ़े आठ फीसदी लोग आदिवासी या जनजातीय समुदाय से आते हैं. साक्षरता की दर करीब 59 फीसदी है. जो देश की कुल साक्षर आबादी की दर से काफी कम है. मिजोरम और लक्षद्वीप के आदिवासियों में साक्षरता दर ऊंची है जबकि आंध्रप्रदेश और मध्यप्रदेश के आदिवासियों की साक्षरता दर देश की आदिवासी आबादी में सबसे कम है. आधा से ज्यादा आदिवासी आबादी गरीबी रेखा से नीचे आती है. और इस रेखा का निर्धारण कितना विवादास्पद रहा है ये कोई छिपी बात नहीं है. भारत में जंगलों का कुल क्षेत्र 678333 वर्ग किलोमीटर का माना जाता है. देश के कुल क्षेत्रफल का ये साढ़े 20 फीसदी से कुछ ज्यादा ही ठहरता है. इसमें भी सघन जंगल करीब 12 फीसदी हिस्से में है. सरकार ने करीब 700 आदिवासी समुदाय चिंहित किए गए हैं जो देश के करीब 15 फीसदी भूभाग में फैले हुए हैं. आदिवासियों की आधा आबादी मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, ओडीशा, झारखंड और गुजरात में निवास करती है. आदिवासी पट्टियां देश के उत्तर-पश्चिम भूगोल से लेकर मध्य, पूर्वी और दक्षिण तक फैली हुई हैं. जंगल हैं तो आदिवासी भी हैं लेकिन अब जंगल भी सिकुड़ रहे हैं और आदिवासियों की संख्या भी. जंगल कट रहे हैं और आदिवासी पलायन कर रहे हैं या बीमारी, हिंसा या अन्य कारणों से जान गंवा रहे हैं. आंकड़ों से मनमुताबिक तथ्य निकाले जा सकते हैं लेकिन आंकड़ों से ही आप वास्तविकता का पता भी लगा सकते हैं. इन आंकड़ों के साए में आदिवासियों का जीवन पढ़ा जा सकता है जो किसी लिहाज से ख़ुशगवार तो नहीं कहा जा सकता.

Familie in Jungal Mahal Indien
तस्वीर: DW/A. Chatterjee

उनका घर, स्वास्थ्य और कुल जीवन देखिए. उनके बच्चों की पढ़ाई का स्तर देखिए, वे क्या प्राइमरी तक जा रहे हैं या उससे आगे भी, कितने आदिवासी बच्चे आज देश के उच्च शिक्षा माहौल का हिस्सा बन गए हैं. कितने आदिवासी डॉक्टर इंजीनियर या अन्य क्षेत्रों के एक्सपर्ट बने हैं. खेलों में कितनी आदिवासी प्रतिभाओं को मौका मिल पाया है. क्या वे सब के सब लोग नाकारा हैं या आलसी हैं या उन्हें अवसरों से वंचित किया जाता रहा है. आदिवासियों के कल्याण के लिए देश में मंत्रालय है पूरा का पूरा एक सिस्टम है. लेकिन इस सिस्टम की आदिवासी विकास की चिंताएं किताबी जुमलों से आगे नहीं निकल पाई हैं. वे आदिवासियों को बाहर निकलने और बदलने के लिए कह तो रहे हैं लेकिन ये नहीं बताते कि किस कीमत पर. इस तरह आज अधिकांश आदिवासियों में संदेह और अविश्वास बना हुआ है. क्योंकि उनके विकास का जो भी पैकेज या नीति बनाई गई है उसमें उनकी आधुनिकता के कोई ठोस और सच्चे उपाय नहीं है. उनके अंधविश्वासों और पिछड़ी मान्यताओं पर चुप्पी रखी गई और उनके हिंदू प्राचीन संस्कृति के पहरुए किस्म के प्रतीक बनाकर रखे गए, इस तरह एक तरफ़ सरकारी बाबूओं की विकास संकल्पना से वे कोसों दूर हुए और दूसरे बहुसंख्यकवाद की सामरिकता में फंसा दिए गए.

Survival International Orissa Indien Dongria Kondh Indigenes Volk
तस्वीर: Lewis Davies/Survival International

विकास के लिए तड़पती आदिवासी कौम इस दुष्चक्र को तोड़ना चाहती है. उन्हें भी जमाने को बदलता हुआ देखना है, जंगल बेशक उनके घर हैं लेकिन वे भी नए उजालों में दाखिल होने की मानवीय कामना रखते हैं. कहने का अर्थ ये है कि सरकार कॉरपोरेटी अंदाज में अपना विकास फॉर्मूला लेकर भले ही जंगल में जा घुसे लेकिन आदिवासी बाहर निकलेंगे अपनी इच्छा अपनी अदम्यता और अपनी निर्णायक लड़ाई के रूप में. उनकी पीढ़ियां अपने अंधेरों को आप काटेंगी और विकास का अपना रास्ता बनाएगी. ऐसा रास्ता जो जंगल के बीच से गुजरता हो, जो जंगल को छिन्नभिन्न और बरबाद न करता हो.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी