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जंस्कार का इको फ्रेंडली स्कूल

२६ मार्च २०१४

बिना ऊर्जा खर्च किये गर्म रहने वाला स्कूल, जर्मनी की आखेन यूनिवर्सिटी के छात्रों ने लद्दाख की जंस्कार घाटी में महीने भर में ऐसी इमारत खड़ी की है. तमाम मुश्किलों के बीच खड़ा हुआ ये स्कूल बुद्धि और साहस का उदाहरण है.

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तस्वीर: DW

खुश्क और धूल से भरा हिमालय का ऊबड़ खाबड़ रास्ता. इंसानों और मशीनों के लिए उत्तर भारत का यह इलाका चुनौतियों से भरा है. लेकिन इसके बावजूद बीते साल गर्मियों में यहां आखेन यूनिवर्सिटी के आर्किटेक्टों का दल पहुंचा, एक ऐसी इमारत बनाने, जो बिना ऊर्जा के यहां के दुश्वार मौसम के झेल ले.

प्रोफेसर जो रुओफ इलाके की चुनौतियों से वाकिफ हैं, "एक बड़ी चुनौती है कि आप एक ऐसी जगह के लिए योजना बनाएं जिसे आप बिलकुल नहीं जानते और जहां निर्माण के बारे में आपको कुछ नहीं पता, यह नहीं पता कि सामान क्या है, किसको कितनी जानकारी है और कौन किस काम के लिए जिम्मेदार है."

मुश्किल को मात

इस यात्रा से पहले स्कूल बनाने की प्लानिंग छह महीने पहले जर्मन शहर आखेन में हुई. छात्रों ने अपने अपने आइडिया पर खूब माथापच्ची की. युवा आर्किटेक्टों के सामने परम्परागत भारतीय अंदाज और आधुनिक वास्तुकला को साथ लाने की चुनौती थी.

मदद मिली सोनम ग्यात्सो से, वो भारतीय है और कंस्ट्रक्शन मैनेजर हैं. उन्होंने जर्मनी आकर मदद की और सुझाव भी दिए, "जब हमारे पास घर बनाने की योजना होती है तो हमें उसके एक साल पहले सब सामान जमा करना होता है और उसे 500 किलोमीटर दूर ले जाना होता है. टैक्सी से दो दिन लगते हैं और ट्रक को तो पांच छह दिन लग जाते है. यही समस्या है."

माल ढुलाई तो हो ही जाएगी, लेकिन बड़ा सवाल ये है कि भवन दिखेगा कैसा. छात्र टिमो श्टाइनमान कहते हैं, "हम मोटे तौर पर सोचते हैं कि इस समस्या को कैसे सुलझाया जाए. कमरे में कितने लोग आएंगे. फिर यह कहते हैं कि अगर कमरा बड़ा होगा तो ज्यादा लोग आ पाएंगे और अगर छोटा होगा तो कम लोग आएंगे. यह सोचने का तरीका आसान है, तार्किक है."

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इमारत बनाने के लिए झाड़, लकड़ी और पत्थर का इस्तेमालतस्वीर: DW

साथी हाथ बढ़ाना

ऐसी ही जद्दोजहद के बीच काम शुरू हुआ. लेकिन हर बार काम के लिए सही मशीनें मिल जाएं, ऐसा भी नहीं. बहुत कुछ हाथ से भी करना होगा. पैसा कम है, लिहाजा बहुत से कामों में गांवों वालों को भी हाथ बंटाना है. मकान की नींव गांव वालों की मदद से स्थानीय पत्थरों से भरी गई है.

शुरुआत के हफ्तों में काम तेजी से चला. मकान का पहला तल करीब करीब तैयार हो चुका है. खिड़की, दरवाजों के लिए चौखट भी लगा दी गई है. चौदह लोगों की सातों दिन, दस दस घंटे की मेहनत ऐसा रंग लाई है. बहुत कुछ आस पास मिलने वाली चीजों से ही बनाया गया है, ताकि समय भी बचे और खर्च भी. कंस्ट्रक्शन मैनेजर ग्यात्सो खुश नजर आ रहे हैं. सब कुछ प्लान और छात्रों की मदद से चल रहा है.

मौसम की चुनौती

लेकिन जर्मनी से आए छात्रों के लिए यहां काम करना आसान नहीं. 3,700 मीटर की ऊंचाई पर गेओर्ग शेंडसीलोर्त्स की सांस फूल रहे हैं. वह कहते हैं, "इस ऊंचाई पर ये करना, ये वाकई कठिन है. मेरी सांस फूल रही है. पहले कुछ दिनों में मैं इस तरह के काम के बारे में सोच ही नहीं सकता था क्योंकि पहले मुझे मौसम का अभ्यस्त होना पड़ा."

बहरहाल दीवारें खड़ी हो जाने के बाद अब बल्लियों की सहारे लेंटर डालना है. बल्लियों को विषम संख्या में रखा जा रहा है. स्थानीय लोग मानते हैं कि ऐसा करना शुभ होता है. इनके ऊपर फिर झाड़ और टहनियां रखी जाती हैं. डोमिनिक ओसे इस ढंग से तैयार की गई छत की अहमियत समझाते हैं, "मैं इस वक्त झाड़ और टहनियों को सजा रहा हूं. इस पर फिर लकड़ी आएगी. लकड़ियों और पौधों को मिलाने से गर्मी और सर्दी से बचा जा सकता है. साथ ही इसका इस्तेमाल फर्श बनाने के लिए भी कर सकते हैं जिसे हम बाद में बनाएंगे."

जलवायु परिवर्तन का असर

बल्लियां, डंडे और झाड़. इसके बाद आखिर में इसके ऊपर मिट्टी का लेंटर डाला जाएगा. लेकिन बात बनती नहीं दिख रही है. जलवायु परिवर्तन की वजह से इलाके का मौसम बदल चुका है. अब यहां बारिश कुछ ज्यादा ही होती है. लिहाजा मिट्टी की सपाट छत ठीक नहीं रहेगी. मकान मालिक रायनर लेजियुस इसका कारण बताते हैं, "मिट्टी बारिश के पानी में टिकाऊ नहीं है, इसीलिए थो़ड़ी ढाल वाली मेटल की छत के जरिए पानी का बेहतर निकास जरूरी है. और इसके अलावा यह घर जंस्कार की परंपरागत तकनीक से बनाया गया है. इलाके के लोग इसे स्वीकार करेंगे."

इसके बावजूद घर के भीतर गर्मी बनी रहती है. सूरज की रोशनी के मुताबिक घर बनाने से यह मुमकिन हुआ. मोटी दीवारें गर्मी बचाती हैं और दो परतों वाली खिड़कियां भी ठंड को बाहर ही रखती हैं. सिर्फ छत ही यूरोपीय अंदाज में बनाई गई है. अब जल्द ही यहां स्कूल के बच्चे खेलने कूदने लगेंगे.

रिपोर्ट: थोमास क्लाइन/ओएसजे

संपादन: मानसी गोपालकृष्णन

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