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जन-प्रतिनिधियों के लिए आचार संहिता?

मारिया जॉन सांचेज
३ सितम्बर २०१८

भारत के उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने राजनीतिक दलों से आपसी सहमति से सदस्यों के लिए आचार संहिता तय करने की मांग की है. कुलदीप कुमार इस पहल का समर्थन करते हैं.

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Deutschland Berlin conference on Urban Solutions in German Habitat Forum.
तस्वीर: DW/Onkar Singh Janoti

यह देखकर आश्वस्ति होती है कि देश के आम नागरिक की तरह ही उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू भी लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रियाओं और संस्थाओं में जनता के विश्वास को सुनिश्चित करने के बारे में चिंतित हैं. उपराष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल के एक वर्ष के अनुभवों पर लिखी अपनी पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर उन्होंने कहा है कि सभी राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे आपस में सहमति पैदा करके अपने सदस्यों के लिए एक आचार संहिता तैयार करें जिस पर विधानमंडल और संसद के अंदर और बाहर अमल किया जाए. उन्होंने यह भी कहा कि किसी राजनीतिक पार्टी से इस्तीफ़ा देते समय सदन से भी इस्तीफा दिया जाना चाहिए और दल बदल विरोधी क़ानून को उसके शब्दों और भावनाओं के अनुरूप तीन माह के भीतर पूरी तरह से लागू किया जाना चाहिए. नायडू की राय में चुनाव याचिकाओं और आपराधिक मुकदमों में फंसे विधायकों और सांसदों के मामलों को समयबद्ध ढंग से निपटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट को विशेष खंडपीठों का गठन करना चाहिए. अभी तो स्थिति यह है कि जीते हुए उम्मीदवार का कार्यकाल पूरा भी हो जाता है और तब अदालत का फैसला आता है कि उसका तो चुनाव ही अवैध था. 

उपराष्ट्रपति के नाते नायडू द्वारा व्यक्त विचारों को गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है लेकिन उनको अमल में लाने की जिम्मेदारी सबसे पहले सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी की है जिसने अभी तक चुनाव सुधार या राजनीतिक जीवन में शुचिता एवं पारदर्शिता लाने की दिशा में कोई कदम नहीं बढ़ाया है और जिसके उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने अधिकार का इस्तेमाल करके स्वयं ही अपने ऊपर चल रहे मुक़दमे वापस ले रहे हैं.

भाजपा ने 2004 में चुनाव हारने के बाद से लगातार संसद की कार्यवाही ठप्प करने की रणनीति पर अमल किया और उसके वरिष्ठ नेता अरुण जेटली ने बाकायदा इसे लोकतांत्रिक विरोध प्रदर्शन का वैध तरीका बताया. इसी तरह अपराधियों को चुनाव में टिकट देने के मामले में वह भी किसी अन्य दल से पीछे नहीं रही. पिछले दिनों चुनाव खर्च की सीमा बांधने के मुद्दे पर निर्वाचन आयोग द्वारा बुलाई गयी सर्वदलीय बैठक में वह एकमात्र पार्टी थी जो चुनाव खर्च को सीमित करने के खिलाफ थी. साढ़े चार साल के अपने कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने नायडू द्वारा उठाये गए एक भी मुद्दे पर क़ानून बनाने की पहल नहीं की. स्वयं नायडू इस सरकार में मंत्री थे. 

नायडू ने विशेष खंडपीठ के गठन का सुझाव तो दे दिया है लेकिन इसे केवल रस्मी तौर पर जबानी जमा-खर्च ही माना जाएगा क्योंकि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में आज भी जजों के स्थान रिक्त पड़े हैं और उन्हें भरा जाना है. यदि सामान्य कामकाज निपटाने के लिए ही पर्याप्त जज उपलब्ध नहीं हैं, तो फिर विशेष खंडपीठों के लिए जज कहां से आएंगे? यदि मोदी सरकार उपराष्ट्रपति के सुझाव पर गंभीरता से अमल करे और जजों के रिक्त स्थानों को भर कर इस समस्या को सुलझाए तो फिर विशेष खंडपीठों का गठन भी संभव हो सकेगा. इसी तरह विधायकों और सांसदों के सदन के भीतर और बाहर के आचरण का सवाल भी सत्तारूढ़ पार्टी के रवैये से जुड़ा है. यदि वही अपने विधायकों और सांसदों पर लगाम नहीं लगाती, तो फिर दूसरी पार्टियों से क्या उम्मीद की जा सकती है?

फिलहाल तो स्थिति यह है कि पिछले साढ़े चार वर्षों में मोदी सरकार के अनेक मंत्रियों ने विवादास्पद और भड़काऊ बयान दिए हैं. अभी दो पहले ही एक मंत्री ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को "नाली का कीड़ा" कहा है. लेकिन ऐसे मंत्रियों की कभी भाजपा या प्रधानमंत्री द्वारा आलोचना नहीं की गयी जिससे उनका मनोबल बढ़ता ही गया. यदि सभी राजनीतिक पार्टियां मिलकर कोई आचार संहिता तैयार भी कर लें, तो उसे लागू करने की प्रक्रिया क्या होगी, इसके बारे में कोई स्पष्टता नहीं है.

सभी जानते हैं कि देश में चुनाव आचार संहिता है जिसका हर पार्टी की सरकार किसी न किसी तरीके से उल्लंघन करने की कोशिश करती है और यदि निर्वाचन आयोग कड़ी निगाह न रखे तो इस कोशिश में सफल भी हो जाती है. ऐसे में उपराष्ट्रपति द्वारा व्यक्त विचारों का स्वागत तो किया जा सकता है, लेकिन उनकी सदिच्छाओं के पूरा होने पर भरोसा करना कठिन है. यदि अपने बचे कार्यकाल में मोदी सरकार इस दिशा में गंभीर होकर कोई कदम उठाए तो उसका भी स्वागत ही किया जाएगा. 

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