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जब सरकार ही लेती हो जान...

१० अप्रैल २०१३

मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल की ताजा रिपोर्ट के अनुसार साल 2012 के आंकड़े देखे जाएं तो पता चलेगा कि दुनिया भर में सबसे ज्यादा फांसी एशिया में दी गई.

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तस्वीर: A.I.

लेकिन अच्छी बात यह है कि फांसी की सजा की तामील न करने वाले देशों की तादाद बढ़ रही है. हालांकि भारत अपवाद है. सिंगापुर, इंडोनेशिया, वियतनाम और एशिया के कई अन्य देशों ने 2012 में मौत की सजा पाए किसी अभियुक्त को फांसी नहीं दी. मंगोलिया ने नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय संधि के दूसरे अतिरिक्त प्रोटोकॉल का अनुमोदन कर दिया, जिसका लक्ष्य है मौत की सजा को समाप्त करना.

भारत सहित सिर्फ आठ एशियाई देशों से फांसी की सजा की तामील करने की खबर आई. एमनेस्टी इंटरनेशनल का कहना है कि चीन उनमें चोटी पर रहा. लेकिन 2009 से मानवाधिकार संगठन चीन पर कोई आंकड़े जारी नहीं करता. इसकी वजह यह है कि चीन की सरकार एमनेस्टी के साथ सहयोग करने से इंकार करती है और फांसी की सजा पर सूचना को गोपनीय सूचना मानती है.

Symbolbild Todesstrafe Amnesty International
तस्वीर: dapd

चीन के अंजान आंकड़े

एमनेस्टी की एशिया प्रभारी वेरेना हार्पर कहती हैं, "अकेले चीन में दुनिया भर में दी जाने वाली फांसी से ज्यादा लोगों को फांसी दी जाती है." 2007 से सर्वोच्च न्यायालय देश में दी गई फांसी की हर सजा की जांच करती है, और उसका कहना है कि तब से फांसी दिए गए कैदियों की संख्या आधी हो गई है. हार्पर कहती हैं, "अफसोस है कि इसकी जांच नहीं की जा सकती." पेकिंग में एमनेस्टी का कोई पार्टनर दफ्तर नहीं है जिससे बात की जा सके.

गंभीर अपराधों के अलावा चीन में करचोरी जैसे आर्थिक अपराधों के लिए भी मौत की सजा दी जाती है. एमनेस्टी इसका विरोध करती है. हार्पर कहती हैं, "यह बात साबित हो चुकी है कि मौत की सजा का डराने वाला असर नहीं होता."

अफगानिस्तान में निष्पक्षता नहीं

सरकारी सूत्रों के अनुसार अफगानिस्तान में 2012 में 14 लोगों को फांसी पर लटकाया गया और 30 लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई. एमनेस्टी इस बात की आलोचना करता है कि अफगानिस्तान में निष्पक्ष मुकदमा संभव नहीं है. मानवाधिकार संगठन के अनुसार न्यायपालिका कमजोर है और गुनाह यातना देकर कबूल कराए जाते हैं. हार्पर के अनुसार इन परिस्थितियों में मौत की सजा देने का कोई मतलब ही नहीं होना चाहिए.

इसके अलावा अफगानिस्तान में सरकारी न्यायपालिका के अलावा कबायली सरदारों का लोया जिरगा और तालिबान की अदालतें भी हैं जो मौत की सजा सुनाती हैं और उस पर अमल भी करती हैं. गैर सरकारी सजाओं के आंकड़े सरकारी आंकड़ों में शामिल नहीं हैं.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

ईरान में शराब पीने पर फांसी

एशियाई देशों की एमनेस्टी की सूची में चीन के बाद ईरान का नंबर है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार ईरान ने 314 लोगों को फांसी दी. मानवाधिकार संगठन द्वारा विश्वसनीय माने जाने वाले दूसरे सूत्रों के अनुसार और 230 लोगों को फांसी की सजा दी गई. इनमें से 63 सार्वजनिक फांसियां थीं. एमनेस्टी के अनुसार 2012 में किसी की पत्थर मार कर जान नहीं ली गई.

इस्लामी मुल्क में मौत की सजा सिर्फ हिंसक अपराध के लिए ही नहीं दी जाती बल्कि ईश निंदा, व्यभिचार और समलैंगिक संबंधों के लिए भी, यह कहना है कि एमनेस्टी के ईरान समन्वयक डीटर कार्ग का. शराब पीने के लिए भी वहां मौत की सजा दी जाती है. पिछले साल जून में ईरान की सर्वोच्च अदालत ने दो मर्दों को तीन बार शराब पीने के आरोप में मौत की सजा सुनाई.

भारत और पाकिस्तान में फांसियां

दक्षिण एशिया में भारत और पाकिस्तान ने सालों से किसी को फांसी नहीं दी थी. लेकिन 2012 में हालात बदल गए. पिछले साल एक पाकिस्तानी सैनिक अदालत ने एक व्यक्ति को फांसी दी. लेकिन हार्पर के अनुसार पाकिस्तान की सरकार ने एमनेस्टी को भरोसा दिलाया कि इसे अकेला मामला समझा जाना चाहिए जिसका देश की वर्तमान राजनीति से कोई लेना देना नहीं है.

भारत में स्थिति कुछ अलग है. पिछले साल भारत ने 8 साल बाद फिर से अपराधियों को फांसी दी. 2008 में मुंबई हमले के लिए जिम्मेदार पाकिस्तानी अभियुक्त को सजा दी गई. इस साल 2001 में संसद पर हुए हमले की साजिश रचने वाले अभियुक्त को भी फांसी दे दी गई. दिसंबर में एक छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद लोग अपराधियों के लिए मौत की सजा की मांग कर रहे हैं. हार्पर कहती हैं, "हम चाहते हैं कि अपराधियों को सजा मिले. लेकिन हमारा मानना है कि मौत की सजा कोई हल नहीं हो सकती." हार्पर का कहना है कि असल समस्या यह है कि अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होती, ज्यादातर अपराधियों को सजा नहीं मिलती.

कुल मिलाकर दुनिया भर में मौत की सजा को समाप्त करने की प्रवति बढ़ रही है. लेकिन हार्पर का कहना है एशियाई देश इस रुझान में पीछे छूट रहे हैं. 2012 में 21 देशों में मौत की सजा का प्रावधान था जबकि दस साल पहले उनकी संख्या 28 थी.

रिपोर्ट: हाओ गुई/एमजे

संपादन: ईशा भाटिया

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