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जर्मनी में भी पढ़ नहीं पाते बहुत से लोग

२३ अप्रैल २०१३

जर्मनी में आम राय है कि पढ़ना बहुत जरूरी है. इसलिए बच्चों और किशोरों मे पढ़ाई की आदत डालने को बढ़ावा दिया जाता है. इसके लिए देश भर में बहुत सारी कार्यक्रम चलते हैं, लेकिन फिर भी बहुत से लोगों को पढ़ना भारी पड़ता है.

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तस्वीर: picture-alliance/ZB

माटेओ 15 साल का है और अब उसे पढ़ने में कोई मुश्किल नहीं होती लेकिन कुछ समय पहले तक ऐसा नहीं था. वह किसी अनुभवी व्यक्ति की तरह कहता है, "पढ़ना अभ्यास से आसान हो जाता है," और अपने मेंटर के बारे में बताता है जो हर बुधवार उसके स्कूल आते हैं. "वे एक घंटा रहते हैं और अपने साथ किताबें लेकर आते हैं. कभी कभी हम अखबार पढ़ते हैं. मैं तब जोर जोर से पढ़ता हूं, लेकिन वे कभी कभी मेरी मदद भी करते हैं."

माटेओ बताते है कि दरअसल अब पढ़ने में उसे मजा भी आता है. पढ़ सकना रोजमर्रा की जिंदगी में भी बहुत जरूरी होता है ताकि रास्तों के नाम या बस के नंबर पढे जा सकें और चिट्ठियां भी. माटेओ पढ़ाई के प्रोत्साहन की सफल मिसाल है. लेकिन उसकी जितनी जरूरत है उतने के लिए ना तो पैसा है और ना लोग.

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तस्वीर: Fotolia/xalanx

पढ़ने की क्षमता

हैम्बर्ग यूनिवर्सिटी के 2011 के एक सर्वे के अनुसार जर्मन बोलने वाले बालिग लोगों में 75 लाख ऐसे हैं जिन्हें व्यावहारिक रूप से निरक्षर माना जाता है. ये ऐसे लोग हैं जो कुछ शब्द या वाक्य तो पढ़-लिख सकते हैं, लेकिन टेक्स्ट के मायने पूरी तरह नहीं समझ सकते और इसलिए "सामाजिक जीवन में पर्याप्त रूप से भाग लेने की हालत में नहीं हैं." ऐसा इसलिए है कि आजकल तकरीबन हर काम में पढ़ने की जरूरत होती है, भले ही वह लिखित निर्देश ही क्यों न हो.

जर्मन शहर कोलोन में फिंकेनबर्ग स्कूल में मेंटर की मदद से पढ़ने की कमजोरी को दूर करने का प्रयास किया जा रहा है. इसी स्कूल के एक मेंटर कार्यक्रम में माटेओ भी भाग लेता है. हालांकि वह इस समय अपने स्कूल का अकेला बच्चा है जो अपने लिए पूरी तरह एक मेंटर होने का लाभ उठा रहा है. उसका मेंटर एक रिटायर्ड व्यक्ति है जो अवैतनिक रूप से यह काम करता है. उसने एक और बच्चे का मेंटर बनने की पेशकश की है, लेकिन स्कूल की शिक्षिका टीना मायर कहती हैं की बहुत से दूसरे बच्चे भी हैं जिन्हें इस तरह की मदद की जरूरत है. शिक्षकों के पास पढ़ने में कमजोर बच्चों पर ध्यान देने का समय नहीं है और माता-पिता दूसरी समस्याओं में उलझे हैं.

लड़कियां पढ़ने में बेहतर

टीना मायर कहती हैं, "खासकर बड़े बच्चों के लिए यह बहुत मुश्किल होता है. वे सिर्फ छोटे दलों में जोर जोर से पढ़ने की हालत में होते हैं, खासकर वे जो पढ़ने में बहुत कमजोर हैं और मैं इस समझ भी सकती हूं." उनका मानना है कि परिवारों को पहले ही इस मामले में शामिल किया जाना चाहिए ताकि ऐसी नौबत ही न आए कि आठवीं क्लास के बच्चों को पढ़ने और लिखने में दिक्कत हो. "उन्हें अभ्यास के बारे में पता नहीं है. वहां कोई नहीं होता जो कहे, अब बैठो और पढ़ो." स्कूल इसमें बस एक सीमा तक मदद कर सकता है, असल काम परिवारों को इसेक लिए सलाह देना है. लेकिन इस काम को और बढ़ाने के बदले बजट लगातार काटा जा रहा है.

पढ़ाई को प्रोत्साहन देने वाले संगठन श्टिफ्टुंग लेजेन का कहना है कि खासकर किशोरों को पढ़ने में ज्यादा मुश्किल होती है. संगठन की सिमोने एमिष कहती हैं, "वे ज्यादातर कम मन लगाकर पढ़ते हैं और कम गहनता से भी." इसका एक कारण वे समाज की परिस्थितियों में देखती हैं. "लड़के ऐसी दुनिया में बड़े होते हैं, जिनमें उनके सामने बहुत कम पढ़ने वाले मर्द आदर्श होते हैं." जिन परिवारों में ज्यादा पढ़ा जाता है, उनमें अक्सर मांएं पढ़ती हैं, जो बच्चों को कुछ पढ़कर सुनाती हैं. यही बात किंडरगार्टन और बेसिक स्कूलों में है, जहां की टीचर आम तौर पर महिलाएं होती हैं. इतना ही नहीं मेंटर के रूप में काम करने वाली भी ज्यादातर महिलाएं ही हैं.

सिमोने एमिष पढ़ने की डिजीटल पेशकश में अपार संभावनाएं देखती हैं. उनका कहना है कि इस तरह की पेशकश नियमित पढ़ाई न करने वाले किशोरों के लिए दरवाजा खोलने वाला साबित हो सकती है. "ई-रीडर और ई-बुक बड़ा ही शुरुआती उत्साह पैदा करते हैं." इसके अलावा उन्हें डर भी कम होता है क्योंकि बहुत से बच्चे छपी हुई किताबों से ज्यादा डिजीटल यंत्रों को करीब से जानते हैं.

Leseförderung an der Finkenbergschule in Köln
तस्वीर: DW/P. Lambeck

लिखने की मदद से पढ़ाई

लाइपजिग के लिटरेचर इंस्टीट्यूट के महानिदेशक क्लाउडिउस नीसेन का अनुभव रहा है कि कहानियां लिखना भी बच्चों को पढ़ाई की ओर ले जा सकता है. जब वे छात्र थे तो अपने साथियों के साथ स्कूलों में लिखने का वर्कशॉप लगाते थे. "वे पढ़ना शुरू करते हैं क्योंकि वे खुद कुछ कहना चाहते हैं." अक्सर लिखते समय कुछ न कुछ गड़बड़ी हो जाती है, फिर इंसान कहीं और देखता है कि दूसरे ने कैसे लिखा है. नीसेन कहते हैं, "लिखने के लिए बहुत सारा आइडिया पढ़ने से आता है."

क्लाउडिउस नीसेन को बड़ी हस्तियों के स्कूलों में आने और बच्चों को कुछ पढ़कर सुनाने का विचार बहुत पसंद नहीं. वे इसे पढ़ाई को बढ़ावा देने के लिए सही उपाय नहीं मानते. "मैं समझता हूं कि अखबार में छपने वाली तस्वीर के कारण यह राजनीतिज्ञों के लिए ज्यादा आकर्षक होता है, इसका बच्चों की पढ़ने की आदत पर ज्यादा असर नहीं होता." इससे फिंकेनबर्ग स्कूल की शिक्षिका टीना मायर भी सहमत हैं, लेकिन उन्होंने कुछ दूसरे अनुभव भी किए हैं.

टीना मायर बताती हैं, "यह इंसान-इंसान पर निर्भर करता है." वे एक मैनेजर के बारे में बताती हैं, जिसने पहली बार इस तरह की परियोजना के लिए स्कूल आने के बाद नियमित रूप से स्कूल आने का फैसला किया. "वे जब टूअर पर नहीं होता तो हफ्ते में एक बार नियमित रूप से आते हैं और तीन खास बच्चों के साथ अभ्यास करते हैं." लेकिन ऐसी सक्रियता आम तौर पर अपवाद ही है.

रिपोर्टः पेट्रा लामबेक/एमजे

संपादनः निखिल रंजन

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