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जहां दो मिनट में फैसला सुनाता हो जज

निर्मल यादव८ अप्रैल २०१६

तारीख पे तारीख, तारीख पे तारीख. यह अब फिल्म का डायलॉग कम और हमारी अदालतों की सच्चाई ज्यादा बन गया है. जहां जजों के पास मुकदमा सुनने के लिए महज दो से पांच मिनट ही हों, वहां न्याय की क्या उम्मीद की जाए.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

भारत में न्यायपालिका साल दर साल मुकदमों के बढ़ते बोझ तले दब रही है. औसतन हर जज के पास लंबित एक हजार से अधिक मुकदमों को निपटाने की जल्दबाजी ने जजों द्वारा की जाने वाली सुनवाई का समय मिनटों में सीमित कर दिया है. लंबित मुकदमों के बोझ तले दबती अदालतों में सुनवाई का समय कम होना न्याय के मूल मकसद पर कुठाराघात है.

आंकडे चौंकाते हैं

सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में इंसाफ के तौरतरीकों पर हाल ही में किए गए अध्ययन के चौंकाने वाले आंकड़ों ने लगातार भयावह होती स्थिति की तस्वीर पेश की है. मसलन हर जज मुकदमे की सुनवाई में पांच मिनट देता है. कुछ हाईकोर्ट में तो यह अवधि ढाई मिनट तक सीमित हो गई है. जबकि प्रत्येक मुकदमे में सुनवाई की औसत अधिकतम समयसीमा 15 मिनट ही है. ऐसे में यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं होगा कि जटि‍लतम कानूनी प्रक्रियाओं के बीच हर तारीख पर 2 से 15 मिनट की सुनवाई इंसाफ की आखिरी मंजिल को फरियादी से कितना दूर कर देती है.

तारीख ही है मयस्सर

आं‍कडे इस बात की साफ तौर पर ताकीद करते हैं कि जजों का पूरा ध्यान एक दिन में अधिक से अधिक मुकदमे सुनने पर है. जिससे उसके खाते में ज्यादा से ज्यादा मुकदमों की सुनवाई करने का रिकॉर्ड दर्ज हो सके. कहना गलत नहीं होगा कि इंसाफ के मंदिरों में महज फाइलें निपटाने के बदस्तूर जारी सिलसिले से फरियादी को सिर्फ तारीख ही मयस्सर हो पाती है.

बोझ है कि घटता नहीं

हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में लगातार बढ़ते मुकदमों के बोझ को कम करने के लिए सरकार और विधि‍ आयोग के दबाव ने भी जजों पर सुनवाई का समय कम करने का दबाव बनाने में अहम भूमिका निभाई है. हालांकि कुछ कानूनविदों का मानना है कि बीते कुछ सालों में लंबी सुनवाई और जिरह की परंपरा को सीमित कर सिर्फ न्यायिक जांच प्रक्रिया को पूरा करने की परिपाटी विकसित करने के कारण सुनवाई का समय कम हो रहा है.

वहीं इसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रमोद कुमार यादव का कहना है कि अगर इस दलील को मान भी लिया जाए तो फिर मुकदमों के निपटारे की दर में इजाफा क्यों नहीं हो रहा है. उनका कहना है कि इस परिपाटी का परिणाम फरियादियों को इंसाफ नहीं सिर्फ तारीख पर तारीख मिलना है. यही वजह है कि देश भर के हाईकोर्ट में लंबित मुकदमों की संख्या दो करोड़ को पार कर गई है. साफ है कि उच्च अदालतों में मुकदमों का बोझ कम होने के बजाय बढ़ रहा है.

लाइलाज नहीं है बीमारी

मुकदमों की संख्या और इंसाफ से फरियादी की दूरी में लगातार इजाफा होना न्यायपालिका के लिए नासूर नहीं बीमारी बन गया है. हालांकि जानकारों का मानना है कि यह बीमारी अभी लाइलाज नहीं है. आंकडों की बानगी देखिए कि भारत में 73 हजार लोगों पर एक जज है. जबकि अमेरिका में यह अनुपात सात गुना कम है. इस तरह उच्च न्यायपालिका के प्रत्येक जज पर औसतन 1300 मुकदमे लंबित हैं. मतलब साफ है कि न्याय की आस में अदालतों का रुख करने वालों की संख्या के अनुपात में जजों की संख्या नाकाफी है.

दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस एपी शाह का कहना है कि विधि आयोग की तमाम सिफारिशों में सरकार से जजों की संख्या बढ़ाने को कहा गया है. लेकिन निचली अदालतों की बात तो जाने दीजिये सुप्रीम कोर्ट और सभी हाईकोर्ट में जजों के खाली पद तक नहीं भरे जा रहे हैं. नए पदों के सृजनकी बात तो अभी दूर की कौड़ी है.

न्याय मिलने में देरी

लातिन अमरीकी कानून की एक सूक्ति का फलसफा है कि न्याय मिलने में देरी, न्याय देने से इंकार करने के समान है. इंसाफ मिलने में पीढ़ियों का फासला भारतीय न्यायपालिका का स्थाईभाव बन गया है. यही कुरीति विधि के अपने उद्देश्य से पराजित होने की अहम वजह बन गई है. सरकारों से ऐसे में क्या उम्मीद की जाए जबकि अब तक उच्च अदालतों के जजों की नियुक्त‍ि पर ही विधायिका और कार्यपालिका का न्यायपालिका से टकराव बरकरार हो. तब फिर निचली अदालतों की लचर हालत पर सोचने की फुर्सत ही किसे है.

ब्लॉग: निर्मल यादव