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क्यों है जाड़ों में गर्मी का आलम?

शबनम सुरिता
११ जनवरी २०१६

ब्रिटेन में क्रिसमस की छुट्टियों के दौरान मौसम हैरान करने वाला था. बारिश तो ब्रिटेन के लिए आम बात है लेकिन दिसंबर में 16 डिग्री के आसपास गर्मी क्या जलवायु परिवर्तन की दस्तक नहीं, पूछ रहे हैं डॉयचे वेले के ग्रैहम लूकस.

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Bildergalerie extreme Dürre in Kalifornien
तस्वीर: Reuters/M. Anzuoni

टीवी पर मौसम की जानकारी देने वाले बता रहे थे कि इस असामान्य से मौसम का कारण दक्षिण पश्चिम से आती गर्म नमी भरी हवाएं थीं जो अपने साथ बारिश लाती हैं. यहां तक तो सब ठीक लगता है. कई लोग क्रिसमस के एक हफ्ते पहले तक एक व्हाइट क्रिसमस की शर्त लगा रहे थे. लेकिन क्लाइमेट चेंज? कहीं भी इसकी तो कोई चर्चा नहीं थी, स्थानीय पबों में भी नहीं. आखिरकार क्रिसमस का वक्त था और क्रिसमस के लिए सजाए गए पेड़ों पर असली ना सही एयरोसॉल वाली सफेद पर्त तो थी ही. लेकिन असल में साल के इन महीनों में आम तौर पर पश्चिमोत्तर या पूर्वोत्तर से यूरोप की ओर बर्फीला ध्रुवीय तापमान पहुंचता था और साथ ही आती थी बर्फ. तो इसे क्या माना जाना चाहिए, एक संयोग या फिर जलवायु परिवर्तन का सूचक?

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर माइल्स एलन तो इस दूसरी संभावना के पक्ष में लगते हैं. यूरोप में सामान्य मौसम का मतलब है कि क्रिसमस के दौरान ओले के साथ वर्षा होना और बर्फ गिरना, जो कि अब गुजरे जमाने की बात हो गई लगती है. यूके और पश्चिमी यूरोपीय देश भविष्य में और भी गीले और गर्म होने जा रहे हैं. मिसाल के तौर पर, 1910 में जबसे रिकॉर्ड रखा जाना शुरु हुआ तब से लेकर अब तक यूके में दिसंबर 2015 का महीना सबसे ज्यादा बारिश वाला रहा. देश के पूर्व में तबाही बरपाने वाली बाढ़ आई और इस माह का औसत तापमान सामान्य से लगभग 4.1 डिग्री ऊपर दर्ज हुआ. प्रोफेसर एलन ने एक बड़ी सटीक टिप्पणी करते हुए कहा, “आम तौर पर मौसम के रिकॉर्ड इतने बड़े अंतर के साथ टूटते नहीं रहने चाहिए, जैसे कोई एथलेटिक मुकाबला हो. लेकिन अगर ऐसा हो रहा है तो यह इस बात का प्रमाण है कि कुछ सचमुच बदल गया है.” अगर प्रोफेसर एलन सही हैं तो यह खतरे की घंटी है.

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ग्रैहम लूकस, डॉयचे वेले

इसके अलावा भी पूरे विश्व से ऐसी कई खबरें आती रहीं. लैटिन अमेरिका में भी बाढ़ ने आफत मचाई. दिसंबर के अंत में आर्कटिक में लू चलने की खबरें आईं. दक्षिण अफ्रीका और इथियोपिया में ऐतिहासिक सूखा पड़ा और पाकिस्तान, मध्य पूर्व के देशों से भी ऐसी खबरें आईं. भारत में चेन्नई की बाढ़ को कौन भूल सकता है और ये सूची आगे भी काफी लंबी है. क्या इन सबके लिए हम अल-नीनो को जिम्मेदार मान सकते हैं? शायद नहीं.

इससे भी अधिक भयावह तथ्य तो ये है कि शायद बहुत कम लोग इस पर ध्यान दे रहे हैं. कुछ ही हफ्ते पहले हुए यूएन के जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में तेज होती ग्लोबल वॉर्मिंग से निपटने के लिए कई लक्ष्य तय किए गए. इसके लिए कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने वाले तमाम कदमों और सौर एवं पवन ऊर्जा के दोहन के उपायों पर चर्चा हुई. यह सब तो अच्छा रहा लेकिन बुरा हिस्सा ये रहा कि 190 देशों की ये डील बाध्यकारी नहीं है. इसका अर्थ है कि फिलहाल इन सारी बातों और इरादों से बहुत ज्यादा बदलाव नहीं दिखाई देने वाला है. लेकिन इस दौरान शायद जलवायु और बदल जाए - जैसा कि ज्यादा से ज्यादा वैज्ञानिक बताने लगे हैं. और फिर शायद ऐसे बिन्दु पर पहुंच जाए जहां पर ग्लोबल वॉर्मिंग को फिर रोका ना जा सके.

जाहिर है वैज्ञानिकों की तमाम चेतावनियों के बावजूद अब भी ऐसे कई लोग होंगे जो ये नहीं मानेंगे कि क्लाइमेट चेंज हो रहा है. हममें से कई लोग जो इस समस्या के बारे में जानते हैं, वे भी हमारी पश्चिमी जीवनशैली पर इसके असर को ठीक से नहीं समझते. क्रिसमस के दौरान मेरे कई दोस्तों और जानकारों ने छुट्टियां मनाने के लिए दुनिया के नए नए ठिकानों की ओर उड़ान भरने और महंगी एसयूवी कारें खरीदने की तो खूब बातें की. लेकिन कार्बन फुटप्रिंट? इस बारे में तो कोई बात नहीं हुई. ये सोचना ही काफी असहज कर देता है कि जिस तरह हम अपना जीवन जी रहे हैं ये शायद भविष्य में ऐसे नहीं चल सकेगा.

पूर्व अमेरिकी उपराष्ट्रपति एल गोर के शब्दों में कहें तो अब तो यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि जलवायु परिवर्तन एक "असुविधाजनक सत्य" है. और इस सच को मानने का मौका हमारे हाथों से निकला चला जा रहा है.