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क्या लौटेंगे लेफ्ट के अच्छे दिन?

प्रभाकर मणि तिवारी
३१ दिसम्बर २०१८

लोकसभा चुनावों से ठीक पहले का साल किसी भी राजनीतिक दल या गठबंधन के लिए काफी अहम होता है. लेकिन कभी राष्ट्रीय राजनीति में अहम स्थान रखने वाले लेफ्ट फ्रंट के लिए वर्ष 2018 एक ऐसा साल है जिसे वह कभी याद नहीं रखना चाहेगा.

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Indien Kalkutta Hauptquartier der Kommunistischen Partei
कोलकाता स्थित सीपीएम मुख्यालय में अब सन्नाटे का आलम रहता है. तस्वीर: DW/P. Mani

इस दौरान लेफ्ट फ्रंट को देश के अपने दूसरे सबसे मजबूत गढ़ त्रिपुरा में सत्ता से हाथ धोना पड़ा. वहीं पश्चिम बंगाल में भी उसके पैरों तले की जमीन खिसकने का सिलसिला नहीं थम सका है. पंचायत से लेकर तमाम चुनावों में पार्टी तीसरे-चौथे नंबर पर खिसकती रही है.

अब उसके पास दक्षिणी राज्य केरल ही बचा है. लेकिन वहां इस साल की भयावह बाढ़ से उबरते हुए राज्य का पुनर्निमाण करना उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती है. सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी और पूर्व महासचिव प्रकाश कारत के बीच लगातार बढ़ती खाई ने राजनीतिक परिदृश्य में उसकी अगुवाई वाले लेफ्ट को राजनीति के हाशिए पर पहुंचा दिया है. अपने सबसे मजबूत गढ़ रहे बंगाल में उसके पास ज्योति बसु या बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसा कोई करिश्माई नेता नहीं बचा है.

त्रिपुरा का गढ़ ढहा 

लेफ्ट फ्रंट को वर्ष 2018 की शुरुआत में सबसे बड़ा झटका पूर्वोत्तर राज्य त्रिपुरा में लगा. इस राज्य को पश्चिम बंगाल के बाद लेफ्ट और खासकर सीपीएम का सबसे मजबूत गढ़ माना जाता था. वहां 25 साल से उसकी सरकार थी और अपनी ईमानदारी व सादगी के लिए मशहूर मानिक सरकार दो दशक से मुख्यमंत्री थे. लेकिन विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने उसे गहरा झटका देते हुए सत्ता से बाहर कर दिया. साठ सदस्यों वाली विधानसभा में लेफ्ट 50 से घट कर केवल 16 सीटों तक सिमट गया.

पश्चिम बंगाल में वर्ष 2011 से लेफ्ट फ्रंट की लोकप्रियता घटने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह वर्ष 2018 में भी नहीं थम सका. इस दौरान होने वाले तमाम शहरी निकाय के चुनावों और लोकसभा व विधानसभा के लिए हुए उपचुनावों में पार्टी कहीं तीसरे तो कहीं चौथे स्थान पर रही. ग्रामीण इलाकों में अपने मजबूत जनाधार के चलते पार्टी ने लगभग साढ़े तीन दशकों तक बंगाल पर राज किया था. लेकिन उन इलाकों में हुए पंचायत चुनावों में भी उसे जबरदस्त मुंह की खानी पड़ी. इस दौरान राज्य में बीजेपी दूसरे नंबर पर काबिज हो गई.

केरल से उम्मीदें

अब लेफ्ट के पास महज केरल ही बचा है. लेकिन वहां भी उसकी सरकार को भारी चुनौतियों से जूझना पड़ रहा है. पहले तो बाढ़ ने राज्य में भीषण तबाही मचाई थी. सरकार के समक्ष उस आपदा से हुए नुकसान की भरपाई की चुनौती है. उसके बाद सबरीमाला मुद्दा भी मुख्यमंत्री पिनयारी विजयन व उनकी सरकार के लिए गले की फांस बनता रहा. मंदिर में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर तमाम कोशिशों के बावजूद सरकार अमल नहीं कर सकी. खासकर बीजेपी और आम लोग इसके विरोध में खड़े रहे. लेफ्ट को अगले साल आम चुनावों में इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है.

दरअसल, लेफ्ट की सबसे बड़ी घटक सीपीएम के शीर्ष नेतृत्व के बीच बढ़ते मतभेदों ने पार्टी को राजनीतिक हाशिए पर पहुंचा दिया है. विपक्षी महागठबंधन के सवाल पर पूर्व महासचिव प्रकाश कारत और मौजूदा महासचिव सीताराम येचुरी की अलग-अलग लाइन का मुद्दा केंद्रीय समिति से लेकर पार्टी कांग्रेस तक में छाया रहा. सीपीएम की बंगाल प्रदेश समिति इस मुद्दे पर सीताराम येचुरी के साथ रही. शीर्ष नेतृत्व ने बंगाल में सीपीएम को कांग्रेस से हाथ मिलाने की अनुमति नहीं दी. नतीजतन पार्टी के पैरों तले जमीन खिसकने का सिलसिला नहीं रुका.

क्यों राजनीतिक हाशिए पर पहुंचा लेफ्ट

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि नई सामाजिक-आर्थिक संरचना के अनुरूप नीतियों में जरूरी बदलाव करने में नाकामी, आत्ममंथन का अभाव, आंतरिक मतभेदों, प्राथमिकताएं तय नहीं होने और खासकर पश्चिम बंगाल में पूर्व मुख्यमंत्रियों - ज्योति बसु व बुद्धदेव भट्टाचार्य - के कद के नेताओं की कमी ने पार्टी को आम लोगों से दूर कर दिया है.

राजनीति विज्ञान के एक प्रोफेसर संजय सेनगुप्ता कहते हैं, "बदलते समय के साथ खुद को नहीं बदलना ही सीपीएम की नाकामी और उसके राजनीतिक हाशिए पर पहुंचने की प्रमुख वजह रही. लोकसभा व विधानसभा चुनावों में मिलने वाले वोटों में लगातार कमी से साफ है कि पार्टी अब अपना जनाधार खो चुकी है.” वह कहते हैं कि आंतरिक मतभेदों में व्यस्त रहने की वजह से शीर्ष नेतृत्व में कभी इन वजहों पर ध्यान देकर उनको दूर करने की कोई रणनीति ही नहीं बनाई. नतीजतन पार्टी धीरे-धीरे आम लोगों और खासकर कामगर तबके से दूर होती गई.

Indien Kalkutta Veranstaltung Kommunistische Partei
दिसंबर 2015 में कोलकाता में सीपीएम का आखिरी प्लेनम आयोजित हुई थी. रैली की तस्वीर.तस्वीर: DW/P. Mani

पर्यवेक्षकों का कहना है कि सीपीएम ने बंगाल या त्रिपुरा में कभी जमीनी हकीकत पर ध्यान नहीं दिया. यही वजह है कि बंगाल से कोई एक दशक पहले उसके जनाधार में गिरावट का जो सिलसिला शुरू हुआ था वह अब भी जस का तस है.

सीपीएम के पूर्व सांसद और अर्थशास्त्री प्रसेनजित बोस कहते हैं, "लेफ्ट में संकट की शुरुआत बंगाल से शुरू हुई थी. लेकिन शीर्ष नेतृत्व इस हकीकत को कबूल नहीं कर सका है.” उनका सवाल है कि जब तक आप संकट और उसकी वजह स्वीकार नहीं करेंगे तब तक उसे दूर करने की रणनीति कैसे बनाई जा सकती है?

बोस कहते हैं कि बंगाल में नेतृत्व की दूसरी कतार कभी नहीं पनप सकी. पार्टी को अब इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. इसके अलावा नामालूम वजहों से नए सदस्य बनाने का अभियान भी लंबे समय से ठप है. बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसे नेता अब स्वास्थ्य वजहों से राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं हैं. लेफ्ट फ्रंट के अध्यक्ष बिमान बसु मानते हैं कि अब युवा तबके के लोग वाम दलों की ओर आकर्षित नहीं हो रहे हैं. उनका दावा है कि पार्टी बंगाल में अपना खोया जनाधार दोबारा हासिल करने की रणनीति बना रही है. बसु का दावा है कि लोकसभा चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन बेहतर रहेगा.

क्या लौटेंगे लेफ्ट के अच्छे दिन?

पर्यवेक्षकों का कहना है कि बंगाल में लेफ्ट फिलहाल दिग्भ्रमित है. पार्टी के काडर बीजेपी जैसी पार्टियों में शामिल हो रहे हैं. लेकिन सीपीएम नेतृत्व इस कड़वी हकीकत को स्वीकार करने से कतरा रहा है. प्रोफेसर सेनगुप्ता कहते हैं, "सीपीएम ने हाल में चुनाव जीतने या अहम राजनीतिक फैसलों के लिए नहीं बल्कि शीर्ष नेतृत्व में मतभेद के लिए ज्यादा सुर्खियां बटोरी हैं.”

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि राष्ट्रीय और राज्य की राजनीति में लगातार अपनी प्रासंगिकता खोने के बावजूद नेतृत्व खुद या पार्टी की नीतियों को बदलने के लिए तैयार नहीं है. पोलित ब्यूरो और केंद्रीय समितियों के जरिए सामूहिक तौर पर फैसला लेने की उसकी रणनीति भी वोटरों को रास नहीं आ रही है. शीर्ष नेतृत्व में बढ़ती कड़वाहट ने भी सीपीएम के वोट बैंक के बिखरने की प्रक्रिया तेज की है. प्रसेनजित बोस कहते हैं, "बंगाल में नेतृत्व में बदलाव ही सीपीएम के पुनर्जीवित होने की गारंटी नहीं है. लेकिन यह एक जरूरी शर्त तो है ही.” मौजूदा हालातों को ध्यान में रखते हुए आने वाले समय भी पार्टी की किस्मत बदलने की उम्मीद कम ही है.

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