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जिंदादिल भाषा के कवि नीरज

७ जून २०१३

गोपाल दास नीरज वर्तमान समय में सर्वाधिक लोकप्रिय कवि है. इनके गीतों की भाषा में हिन्दी के संस्कार के साथ उर्दू की जिंदादिली भी है. "कारवां गुजर गया, गुबार देखता रहा" की इसी खूबी ने नीरज को बॉलीवुड में लोकप्रिय बना दिया .

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तस्वीर: cc-by-sa 3.0/Ramesh Lalwani

डॉयचे वेलेः इन दिनों आपकी नई रचनाएं सुनने को नहीं मिलती. क्या उम्र के इस पड़ाव पर गीतों का कारवां पीछे छूट गया है?

नीरज : नहीं, ऐसी बात नहीं है. मैं अभी भी लिख रहा हूं. लेकिन अब जो लिख रहा हूं उसमे आध्यात्मिकता है, दर्शन है. ऐसे गीत फिल्म और कवि सम्मलेन में नहीं गाए जा सकते.

आपने हिंदी फिल्म के लिए एक से बढ़ कर एक गाने लिखे. आपको काल का पहिया घूमे रे भइया (1970) गीत के लिए फिल्म फेयर भी दिया गया. जिस समय आप अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थे आपने अचानक बॉलीवुड को नमस्ते कह दिया. इसके पीछे क्या वजह रही ?

अचानक नहीं हुआ. उन दिनों सचिन देव बर्मन, रोशन और शंकर जयकिशन जैसे संगीतकार थे जिनके साथ मेरा तालमेल बहुत बढ़िया था. बर्मन दा, रोशन के बाद शंकर ने भी दुनिया को अलविदा कह दिया. मन न लगने के कारण बम्बई छोड़ दी पर विशेष आग्रह पर लिखता रहा. देवानंद की आखरी फिल्म चार्जशीट के लिए भी एक गाना लिखा.

फिल्म नई उमर की नई फ़सल का गीत -"कारवां गुजर गया गु़बार देखते रहे" को आपकी कलम से निकला सर्वश्रेष्ठ गीत माना जाता है -क्या आप इससे सहमत हैं?

नहीं ऐसी बात नहीं है. यह मेरी सर्वश्रेष्ठ रचना नहीं पर इसे सबसे लोकप्रिय जरूर कहा जा सकता. यह गीत इसलिए लोकप्रिय हुआ क्योंकि ऐसा गीत हिंदी या उर्दू में पहले लिखा नहीं गया. इस गीत को उस समय पूरे भारत और पाकिस्तान में लोकप्रियता मिली. कवि सम्मेलनों, मुशायरे में इसकी खूब मांग थी.इसकी लोकप्रियता को भुनाने के लिए ही फिल्म बनाई गयी.

क्या "कारवां गुजर गया गुबार देखता रहा" इस गीत ने आपको बॉलीवुड में लोकप्रिय बना दिया ?

सच तो यह है कि रोशन साहब का संगीत और दिल को छूने वाली रफी साहब की आवाज ने इस गीत को अमर कर दिया. उर्दू -हिंदी के प्रयोग ने निश्चित रूप से इसे आम लोगों के बीच लोकप्रिय बनाया. रोशन साहब जब इस गीत की संगीत तैयार कर रहे थे तो मुखड़ा लम्बा होने की वजह से उन्हें दिक्कत हो रही थी बाद में जैसा मैं पढ़ता था उसी में उन्होंने थोड़े सुर बदल दिए. रोशन का मैं कायल हूं कि उन्होंने इसे ऐसा संगीत तैयार किया कि यह गाना भारत ही नहीं पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो गया. यह गाना मेरे लिए आर्थिक रूप से फायदेमंद भी साबित हुआ. आज तक मुझे इससे रॉयल्टी मिलती है.

"बस यही अपराध करता हूँ आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं", यह गीत आपके दिल के बेहद करीब है. ऐसा आपको जानने वाले कहते हैं. क्या यह सही है?

कुछ हद तक. इस गीत की आत्मा में मेरा विश्वास है. मै प्रेम का पुजारी और मानवतावादी हूं. जाति -धर्म में मेरा यकीन नहीं है. इसी गीत में मैंने कहा है,

"मैं बसाना चाहता हूं ,स्वर्ग धरती पर,
आदमी जिस में रहे, बस आदमी बन कर
उस नगर की हर गली ,तैयार करता हूं,
आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं"
हिन्दू-मुसलमान या अगड़े-पिछड़े का विभाजन मुझे दुख देता है.

क्या आप अपनी गीतों और रचनाओं के माध्यम से उसी 'स्वर्ग की हर गली' तैयार कर रहे हैं?

मै कोशिश करता हूं. जीवन की आखरी सांस तक लिखता रहूंगा, कोशिश करता रहूंगा. मेरे गीत इंसानों को हिन्दू या मुसलमानों के रूप में नहीं देखते. आदमी सिर्फ आदमी है. एक ही भाषा है, एक ही धर्म है, वह है इंसानियत.

इन दिनों "बॉलीवुड गीत लेखन" बाजार से चलता है. गीत के बोल द्विअर्थी और अश्लील हैं.क्या इससे निराशा होती है ?

मै बिलकुल निराश नहीं हूं. एक जमाना था जब ज्यादातर अच्छे गाने सुनाई देते थे. फिर गीत सस्तेपन के शिकार हुए. आज के दौर में फिर से कुछ अच्छे गीत सुनाई दे रहे हैं. इनकी संख्या कम जरूर है पर कुछ गीतकारों ने बढ़िया काम किया है.

आज कल के गीतकारों में आपको कौन प्रभावित करता है?
प्रतिभा हमेशा रहती है. कुछ गीतकार हैं जो अच्छा लिख रहे हैं. इनमे गुलजार हैं और जावेद अख्तर का नाम लिया जा सकता है.

डॉयचे वेले के पाठको को अगर आप कुछ कहना चाहें तो अपनी किन पंक्तियों या मुक्तक का सहारा लेंगे?
“मेरा मकसद है ये महफिल रहे रोशन यूं ही,
खून चाहे मेरा दीपो में जलाया जाए
मेरे दुःख-दर्द का तुम पर हो असर कुछ ऐसा,
मैं रहूं भूखा तो तुमसे भी ना खाया जाए
जिस्म दो हो के भी दिल एक हों अपने ऐसा,
मेरा आंसू तेरी पलकों से उठाया जाए.”

इंटरव्यूः विश्वरत्न श्रीवास्तव, मुंबई

संपादनः आभा मोंढे

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