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जीएसटी पर अटकी मोदी सरकार की सांसें

२७ नवम्बर २०१५

दुनिया भर में घूम-घूमकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत में निवेश करने के प्रस्तावों की जो लुभावनी तस्वीर खींची है अब उसकी परीक्षा की घड़ी है. प्रधानमंत्री अब विपक्ष का समर्थन जुटाने में लगे हैं.

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तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Qadri,

संभावित विदेशी निवेशकों और स्वयं भारतीय कॉरपोरेट जगत, जिसने मोदी को चुनावों में दोनों हाथों से खुला समर्थन दिया है, उसे बेचैनी से इस बात का इंतजार है कि भारतीय संसद में जीएसटी विधेयक पारित होता है कि नहीं. जीएसटी या वस्तु और सेवा कर एक ऐसी अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था है जिसे वस्तु और सेवाओं के उत्पादन, उपभोग और बिक्री पर लगाया जाना है. इसे मोदी सरकार के आर्थिक सुधारों का सबसे बड़ा एजेंडा माना जा रहा है. इसका उद्देश्य पूरे देश में समरूप बाजार व्यवस्था का निर्माण करना है. अगर एक बार ये लागू कर दिया जाता है तो इससे कर प्रणाली में समरूपता आ जाएगी और इसके बाद केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा लगाये जाने वाले दूसरे सारे अप्रत्यक्ष करों की व्यवस्था अपनेआप ही खत्म हो जाएगी. आर्थिक सुधारों के पक्षधर अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इससे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में सुधार आएगा और जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद में दो प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी संभव है. दावा किया जा रहा है कि जीएसटी लागू होने से सरकार के वित्तीय घाटे में कमी आएगी और उपभोक्ता वस्तुओं के दाम भी घटेंगे जिससे मुद्रास्फीति की दर भी कम होगी.

वाणिज्यिक संस्थान एसोचैम ने विश्वव्यापी आर्थिक मंदी को देखते हुए इसे भारत के लिये ब्रह्मास्त्र करार दिया है. बीजेपी की भी पूरी कोशिश है कि संसद के इस शीतकालीन सत्र में किसी भी तरह से जीएसटी विधेयक पारित हो जाए ताकि एक अप्रेल से शुरू होने वाले अगले वित्तीय वर्ष में इसे लागू किया जा सके लेकिन राज्यसभा में आंकड़े उसके पक्ष में नहीं है.

जीएसटी एक संविधान संशोधन विधेयक है और इसे पारित करने के लिये संसद के दोनों सदनों का अलग-अलग दो तिहाई बहुमत जरूरी है. सत्ताधारी बीजेपी के सामने पसोपेश ये है कि लोकसभा में तो विधेयक पारित हो गया जहां वो विशाल बहुमत में है लेकिन राज्यसभा में वो अल्पमत में है और विधेयक को पारित कराने के लिये उसे कांग्रेस की मानमनौव्वल करनी पड़ेगी. मोदी सरकार इस विधेयक को लेकर कितनी बेचैन है वो इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को इस विधेयक पर विश्वास में लेने के लिये विशेष रूप से चाय पर आमंत्रित किया गया.

अत्यंत अभिमानी समझे जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कितनी मजबूरी में ये कदम उठाना पड़ा होगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. लेकिन मोदी के लिये मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी को मनाना आसान नहीं होगा क्योंकि कांग्रेस ने विधेयक के चार महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर अपनी राय सार्वजनिक कर दी है- पहला राज्यों को एक प्रतिशत अतिरिक्त कर लगाने का अधिकार, कांग्रेस इसका विरोध कर रही है क्योंकि इससे सिर्फ गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों को ही फायदा होगा. दूसरा कांग्रेस का कहना है कि जीएसटी के रेट के लिये अधिकतम 18 प्रतिशत की सीमा होनी चाहिये ताकि गरीब और कम आय वर्ग के लोगों पर इसका अधिक बोझ न पड़े और तीसरा जीएसटी से संबंधित मुद्दों को सुलझाने के लिये स्वतंत्र अधिकरण की स्थापना हो. चौथा कांग्रेस की मांग ये भी है कि तंबाकू, शराब और बिजली की आपूर्ति को भी जीएसटी के दायरे में लाया जाए जो कि विधेयक के मौजूदा प्रारूप से बाहर है. कांग्रेस इन पर समझौता करने के लिये शायद ही तैयार हो.

उल्लेखनीय है कि जीएसटी लागू करने के लिये तत्कालीन यूपीए सरकार ने ही पहल की थी और तब बीजेपी ने इसका विरोध किया था और आज इसे पारित और लागू करवाना बीजेपी के लिये टेढ़ी खीर साबित हो रहा है. असल में आर्थिक उदारवाद को अपनाने के बाद कांग्रेस की पिछली सरकारें हों या बीजेपी की पूर्व और आज की सरकार हो, दोनों की नीतियां एक विशाल मध्यवर्ग, उच्चवर्ग और कॉरपोरेट को तो किसी न किसी रूप से सहलाने थपकाने की रही हैं लेकिन देश की कम आय वाली, गरीब और वंचित जनता के लिए इन दलों और इनके आर्थिक पैरोकारों के पास कोई न एजेंडा नजर आता है न उनके कल्याण का कोई सूत्र.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी