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समाज

टीआरपी के रेस में तथ्यों की मौत

प्रभाकर मणि तिवारी
७ मार्च २०१९

एक पुरानी कहावत है कि मोहब्बत और जंग में सबकुछ जायज है. लेकिन भारत की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसमें टेलिविजन रेटिंग पॉइंट (टीआरपी) शब्द भी जोड़ दिया है.

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Indien Gericht in Neu Delhi Anklage Gericht
तस्वीर: picture-alliance/dpa

टीआरपी की होड़ में भारतीय चैनल पहले भी अपनी जगहंसाई कराते रहे हैं. हाल में जम्मू-कश्मीर में हुए आतंकी हमले और उसके बाद पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों पर भारत के हवाई हमलों के बाद ज्यादातर चैनलों ने जिस तरह युद्धोन्माद भड़काने का प्रयास किया उसकी पूरी दुनिया में किरकिरी हो चुकी है. लेकिन चैनल वाले हैं कि न तो अपनी गलती मानने को तैयार हैं और न ही सुधरने को. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हाल में जो रवैया अपनाया था उससे उसकी साख पर सवाल उठने लगे हैं.

Oberstes Gericht Delhi Indien
चैनलों की भीड़ में तथ्य गायबतस्वीर: picture-alliance/dpa

टीआरपी की रेस

भारत में हर साल दर्जनों नए चैनल सिर उठाते रहे हैं. उनमें से शीर्ष पांच-छह चैनलों को छोड़ दें तो बाकी चैनल टीआरपी की रेस से बाहर हैं. लेकिन शीर्ष चैनलों में भी जिस तरह टीआरपी के लिए होड़ लगी रहती है, वह बेहद शर्मनाक है. चैनल के कर्ता-धर्ता टीआरपी हासिल करने के लिए किसी भी स्तर तक जाने को तैयार रहते हैं. हाल में भारत-पाक तनाव के दौरान इन चैनलों में हास्यापद स्थिति नजर आई. उनका वश चलता तो युद्ध कब का शुरू हो गया था. कोई सेना की पोशाक पहन कर पर्दे पर आता था तो कोई तोप में बैठ कर. और वह भी वार रूम बना कर युद्ध का नजारा पैदा करते हुए. लेकिन इन चैनलों का मकसद युद्ध भड़काना नहीं बल्कि युद्धोन्माद पैदा कर टीआरपी बढ़ाना और उसकी सहायता से अपनी जेबें भरना था. और उनको इसमें खासी कामयाबी भी मिली. देशप्रेम से ओत-प्रोत यह चैनल तमाम अहम खबरों व बहसों के बीच अपना पारंपरिक विज्ञापन ब्रेक लेना नहीं भूलते थे. पुलवामा हमले के बाद से ही तमाम चैनलों के एंकर लगातार चीखने लगे कि अब पाक को सबक सिखाना जरूरी है. एक-दूसरे से अलग दिखने की होड़ में इन चैनलों ने इस दौरान पत्रकारिता के तमाम स्थापित मानकों को तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कुछ अखबार भी इस बहाव में बहते रहे. लेकिन उनमें से ज्यादा ऐसे ही थे जिनको सत्तारुढ़ बीजेपी के नजदीकी के तौर पर जाना जाता है.

क्या है टीआरपी

टीआरपी का मतलब है टेलिविजन रेटिंग पॉइंट. इससे पता चलता है कि किस शो को कितना ज्यादा देखा जा रहा है. चैनल की रेटिंग जानने के लिए बड़े शहरों में पीपुल्स मीटर नामक एक खास उपकरण को कुछ चुनिंदा जगहों पर लगा दिया जाता है. टीआरपी की अहमियत की वजह यह है कि किसी चैनल की कमाई से इसका सीधा संबंध होता है. जिस चैनल की टीआरपी जितनी ज्यादा होती है वह चैनल अपने शो के बीच में यानी ब्रेक के दौरान विज्ञापन दिखाने के लिए उतने ही ज्यादा पैसे लेता है. जिस चैनल पर दर्शकों का टोटा रहता है उसे टीआरपी गिरने की वजह से विज्ञापन कम मिलते हैं. इसके विपरीत जिस चैनल को सबसे ज्यादा टीआरपी मिलती है उसकी कमाई में तेजी से इजाफा हो जाता है. यही वजह है कि हर हफ्ते टीआरपी के आंकड़े जारी होने से पहले चैनलों को कर्ता-धर्ताओं के दिलों की धड़कनें बढ़ जाती हैं.

आलोचना भी बेअसर

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रवीश कुमारतस्वीर: DW/S. Wünsch

टीआरपी की लगातार तेज होती होड़ में फंसे इन चैनलों को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले आलोचनाओं की भी खास परवाह नहीं है. एक वरिष्ट टीवी पत्रकार नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं, "रेस में बने रहने के लिए हमें भी वही करना होगा जो दूसरे चैनल कर रहे हैं. हम अपनी नौकरी बचाएं या पत्रकारिता?” कई चैनलों में तो टीआरपी उठने-गिरने का सीधा असर कुछ शीर्ष लोगों की नौकरियों पर पड़ता है. एक बड़े क्षेत्रीय चैनल में कार्यकारी संपादक रहे सत्यब्रत नंदी कहते हैं, "जो दिखता है वही बिकता है और जो बिकता है वही टिकता है. हमको इसी फॉर्मूले पर काम करना पड़ता है.”

टीआरपी और इसकी वजह से होने वाली कमाई के कारण पत्रकारिता के नए प्रतिमान गढ़े जा रहे हैं. जाने-माने पत्रकार रवीश कुमार कहते हैं, "चैनलों में कटेंट और फॉर्मेट भी खत्म हो गया है.” पत्रकारिता में शुचिता के सबसे बड़े पैरोकारों में से एक रवीश ने हाल के अपने लेखों में आम दर्शकों से लगातार टीवी पर फालतू खबरें और प्रायोजित बहसों को नहीं देखने की अपील करते रहे हैं.

पुलवामा हमले में जान गंवाने वाले कई सैनिकों के घरवाले भी टीवी चैनलों की भड़काऊ पत्रकारिता और युद्धोन्माद फैलाने के लिए उनकी आलोचना करते रहे हैं. पश्चिम बंगाल के बाबलू सांतरा की पत्नी मीता कहती हैं, "अगर चैनल में काम करने वालों को युद्ध का इतना ही शौक हो तो उनको पत्रकारिता छोड़ कर सशस्त्र बलों में भर्ती हो जाना चाहिए.” वह कहती हैं कि स्टूडियो में बैठकर युद्धोन्माद भड़काने से किसी का भला नहीं होगा. लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो मानो "हम नहीं सुधरेंगे” की कसम ही खा ली है.