1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें
समाज

ट्रेन लेट है तो रेलवे से मुआवजा मांगिए

महेश झा
२० मार्च २०१९

भारत में किसी से भी पूछिए ट्रेन के लेट होने की गाथा सुना देगा. आम लोगों का भरोसा ही खत्म हो गया है कि ट्रेन समय पर चल सकती है. जर्मनी में जर्मन रेल लेट होने पर यात्रियों को हर्जाना दे रही है.

https://p.dw.com/p/3FL0z
Französischer TGV und deutscher ICE
तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Vidon

कभी भारत में भी लोग ट्रेन के आने से अपनी घड़ी की सूई मिलाते थे. लेकिन गए वो जमाने. अब किसी ट्रेन का कोई लिहाज नहीं रहा. आम ट्रेन के लिए भी राजधानी को रोक दिया जाता है. ट्रेन का टाइम टेबल भी सामान्य व्यक्ति की समझ से बाहर है.

एक ही रास्ते को तय करने में अलग अलग ट्रेन को अलग समय लगता है. इसलिए अक्सर कई ड्राइवर तय रफ्तार से तेज चलाते हैं. ट्रेन में सीट मिलने की हालत इतनी बुरी है कि बिहार के शहरों से दिल्ली जैसे सैकड़ों मील दूर शहरों के लिए बसें चलाई जा रही हैं जो 24-24 घंटे का समय लेती है और आरामदेह तो कतई नहीं है.

इन देशों में नहीं चलतीं ट्रेन

पिछले दिनों मैं बिहार में था. कटिहार से दिल्ली के लिए राजधानी लेनी थी. कटिहार रेलवे का वो स्टेशन है जहां आसपास की जगहों से आकर लोग राजधानी पकड़ते हैं. ट्रेन लेट थी. हो सकती है. लेकिन दिलचस्प बात ये थी कि किसी को, न तो कटिहार स्टेशन पर और न ही आसपास के स्टेशनों पर पता था कि ट्रेन कितनी लेट है. यात्री के पास इसके सिवा और कोई चारा नहीं कि वह समय पर आ जाए और फिर इंतजार करता रहे. ये इंतजार कभी कभी कई घंटों का हो सकता है.

ऐसा नहीं है कि ट्रेन के लेट होने की समस्या सिर्फ भारत की है. पिछले दिनों दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरील रामाफोसा का भी अपने देश में रेल की हकीकत से सामना हुआ. संसदीय चुनावों से दो महीने पहले वे पत्रकारों के जखीरे के साथ प्रचार अभियान पर थे लेकिन माबोपाने टाउनशिप में पहले तो उन्हें एक घंटे तक ट्रेन के आने का इंतजार करना पड़ा और फिर जब ट्रेन आई तो उसने 45 मिनट का रास्ता तय करने के लिए तीन घंटे लिए. जैसे कि यात्रियों के समय की कोई कीमत नहीं. ट्रेन से सफर करना उनकी मजबूरी हो.

विकासशील देशों में अक्सर रेल के सरकारी होने को इसका दोष दिया जाता है या फिर ये कहा जाता है कि यात्रा के साधन पर एकाधिकार होने के वजह से ऐसा होता है. लेकिन देरी की समस्या जर्मनी जैसे विकासित देशों की भी है. रेल यहां भी दूसरे देशों की तरह सरकारी है. यहां भी देरी एक मुद्दा है. जर्मनी में अब तक पांच मिनट से कम की देरी को नजरअंदाज किया जाता था और उससे ज्यादा की देरी को देरी माना जाता था. अब इसे बढ़ाकर 15 मिनट कर दिया गया है. इसकी कड़ी आलोचना हो रही है.

इस ट्रेन में पुरुषों का चढ़ना मना है

जर्मनी में विमानों या ट्रेनों के लेट होने पर उन्हें मुआवजा दिया जाता है. इससे विमान कंपनियों के अनुशासन में सुधार आया है. लेकिन अब तक जर्मन रेल पर इसका बहुत ज्यादा असर नहीं हुआ है क्योंकि जटिल प्रक्रिया के कारण ज्यादातर लोग अपना मुआवजा नहीं लेते. फिर भी पिछले साल डॉयचे बान ने रिकॉर्ड मुआवजा दिया. 27 लाख यात्रियों को 5 करोड़ 36 लाख यूरो का मुआवजा दिया गया. अब जर्मन रेलवे मुआवजा आवेदन को ऑनलाइन करने जा रहा है.

जर्मन रेल है तो सरकार की मिल्कियत लेकिन वह गैर सरकारी अर्थव्यवस्था के नियमों से चलती है. अब ट्रेनों की देरी और यात्रियों को मुआवजा देने के मामले में जर्मन रेल पर परिवहन मंत्रालय के अलावा उपभोक्ता मंत्रालय का भी दबाव है. परिवहन मंत्री तो मुआवजे की ऑटोमैटिक प्रक्रिया की मांग कर रहे हैं ताकि यात्रियों को कोई आवेदन न देना पड़ें. ये दबाव यात्रियों के अधिकारों की गारंटी के साथ रेल को आनुशासित होने में भी मदद देगा.

मुआवजे का आयडिया भारत के लिए बुरा नहीं होगा. रेल के अधिकारी यात्रियों को ग्राहक समझ सकेंगे.

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें