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डिग्री नहीं शिक्षा की सोचिए

२९ मई २०१४

जिस देश में गली चौराहे पर डिग्रियां मिलती हों, वहां शिक्षा मंत्री की डिग्री पर बहस हैरान करती है. राजनीति में भले ही ये विवाद बने पर इसके बहाने भारत में डिग्री के तरीके पर बहस छेड़ इसे सकारात्मक रूप भी दिया जा सकता है.

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Indien Parteien Smriti Irani von Bharatiya Janata Party
तस्वीर: PRAKASH SINGH/AFP/Getty Images

अस्सी और नब्बे के दशक में कम से कम बिहार, यूपी में किताब खोल कर इम्तिहान दिए जाते थे, ये बात किसी से छिपी नहीं. जो बच्चे पढ़ने के साथ लिखने में भी कमजोर हुआ करते थे, उनके लिए "लेखक" लाए जाते थे. गांव मुहल्लों में अच्छी लिखाई वाले लोगों की पूछ बढ़ जाया करती थी. टीचरों को पहले से बुक कर लिया जाता था. कभी दिल्ली यूनिवर्सिटी में बिहार की डिग्रियों को सही नहीं माना जाता था और दाखिले के वक्त बच्चों के नंबर पांच फीसदी कम कर दिए जाते थे. यानि देश की एक संस्था को दूसरी संस्था की डिग्री पर भरोसा नहीं. तो क्या ऐसी ही किसी डिग्री के लिए मारामारी हो रही है.

ऐसा देश, जहां सिर्फ 74 फीसदी आबादी साक्षर है, वह भी अंगूठा लगाने की जगह दस्तखत करने के आधार पर, वहां डिग्रियों की चर्चा बेइमानी है. चर्चा हो, तो शिक्षा के तरीकों की. भारत में बहुत हद तक पैसा भी शिक्षा तय करता है. पैसा है, तो तथाकथित बड़े स्कूलों में दाखिला मिलेगा. उन बड़े स्कूलों की लॉबी आपको बड़े कॉलेजों में पहुंचा देगी. अगर मेरिट से नहीं पहुंचे, तो डोनेशन से पहुंच जाएंगे. फिर आपके पास एक डिग्री आ जाएगी.

यह भी विचार करने का विषय है कि अब तक के बहुत पढ़े लिखे शिक्षा मंत्रियों ने शिक्षा में बदलाव के लिए क्या किया. क्या 60-70 साल में शिक्षा के तरीकों में बदलाव नहीं किया जाना चाहिए था. इस महकमे ने पीवी नरसिंहा राव से लेकर मुरली मनोहर जोशी तक के दिग्गज पढ़े लिखे मंत्री देखे हैं. इस दौरान शिक्षा व्यवस्था में तो बदलाव नहीं हुए, अलबत्ता रूढ़ीवादी शिक्षा के तरीके लागू करने पर विवाद जरूर हुआ.

एक मिथक यह भी रहा है कि भारतीय बच्चे विदेशों में बहुत अच्छा करते हैं. सच्चाई यह है कि ज्यादातर पश्चिमी देशों में काम करने से पहले उन्हें एक मुश्किल टेस्ट से गुजरना पड़ता है. भारतीय डिग्रियों को तो खास तौर पर शक की नजर से देखा जाता है. ब्रिटेन और अमेरिका में पेशेवर डॉक्टरों तक को प्लैप जैसे इम्तिहान पास करने होते हैं. अंग्रेजी में एमए कर चुके छात्र को भी न्यूनतम अंग्रेजी की परीक्षा पास करनी होती है. उसके बाद ही वे काम करने लायक समझे जाते हैं, डिग्रियों से कुछ नहीं होता.

अंग्रेजी की कहावत है कि "विजडम इज इम्पॉर्टेंट दैन एडुकेशन." यानि शिक्षा से जरूरी अकलमंदी होती है. नंबर तो इम्तिहान में कई तरह से आ सकते हैं, जिसकी बुनियाद पर शिक्षित कहलाया जा सकता है. लेकिन अकलमंदी हो, तो शिक्षा के सही तरीके लागू किए जा सकते हैं. स्मृति ईरानी से इस अकलमंदी की अपेक्षा की जा सकती है. शिक्षा माफिया, 500 रुपये में अंग्रेजी सिखाने वाली कोचिंग संस्थाएं और घर बैठे ग्रैजुएट कराने वाली संस्थाओं से अलग शिक्षा खोजने की जरूरत है. ऐसी शिक्षा, जो आपको सिर्फ डिग्री न देती हो, वाकई शिक्षित करती हो.

ब्लॉग: अनवर जे अशरफ

संपादन: ओंकार सिंह जनौटी