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तब तक हादसों में मरते रहेंगे बेकसूर ट्रेन यात्री

प्रभाकर मणि तिवारी
२५ नवम्बर २०१६

भारतीय रेल में सुधार की तमाम सिफारिशें लंबे समय से फाइलों में धूल फांक रही हैं और रेल हादसे बदस्तूर जारी हैं. धन और कर्मचारियों की कमी है रेल सुरक्षा की राह का रोड़ा.

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Indien Zugunglück
तस्वीर: Reuters/J. Prakash

हाल ही में कानपुर में हुए रेल हादसे ने भारतीय रेल और इसके डिब्बों की लचर हालत का खुलासा कर दिया है. रेलवे ने सुरक्षा के लिहाज से इंटीग्रल कोच फैक्ट्री (आईसीएफ) में बने डिब्बों को एलएचबी (LINKE HOFFMAN BUSCH) डिब्बों से बदलने की योजना बनाई थी. लेकिन यह गति इतनी धीमी है कि इसमें रेलवे को कम से कम 30 साल लग जाएंगे. एलएचबी डिब्बे फिलहाल राजधानी और शताब्दी एक्सप्रेस जैसी ट्रेनों में ही लगे हैं. सुरक्षा उपायों की वजह से हादसे की स्थिति में ऐसे डिब्बे एक दूसरे के ऊपर नहीं चढ़ते. कानपुर में एक-दूसरे पर डिब्बे चढ़ जाने की वजह से डेढ़ सौ यात्री मौत के मुंह में समा गए. इससे पहले हुए हादसों के बाद तमाम विशेषज्ञ समितियों ने आईसीएफ डिब्बों को बदलने की सिफारिश की थी. ब्रिटिश शासनकाल के दौरान स्थापित दुनिया के चौथे सबसे बड़े भारत के रेलवे नेटवर्क से रोजाना औसतन 2.30 करोड़ लोग सफर करते हैं. लेकिन रेल मंत्रालय की लापरवाही और उदासीनता से कइयों के लिए यह अंतिम सफर साबित हो रहा है.

हादसों से सबक नहीं

केंद्र सरकार और रेल मंत्रालय ने अतीत में होने वाले हादसों से कोई खास सबक नहीं लिया है. ट्रेनों में यात्री सुरक्षा के तमाम दावों के बावजूद हकीकत इसके उलट है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते साल रेलवे नेटवर्क को बेहतर बनाने की महात्वाकांक्षी योजना के तहत पांच साल के दौरान 124 अरब अमेरिकी डॉलर यानी साढ़े आठ खरब रुपए के निवेश का एलान किया था. बावजूद इसके ट्रेन हादसे थमने की बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं. चालू वित्त वर्ष के दौरान अब तक छोटे-बड़े 80 हादसे हो चुके हैं जबकि बीते साल इसी दौरान 69 हादसे हुए थे. इसी तरह वर्ष 2014 में रेल हादसों में 27,581 लोग मारे गए थे. इस साल की शुरूआत में रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने रेल की पटरियों को अपग्रेड करने, नए ब्रिज बनाने और सिग्नल प्रणाली को आधुनिकतम बनाने के लिए वित्त मंत्रालय से 1.19 खरब रुपए मांगे थे. लेकिन उनका यह अनुरोध इस आधार पर खारिज हो गया कि रेलवे को निवेश के लिए पहले ही काफी रकम आवंटित की जा चुकी है. अब उक्त हादसे के बाद रेलवे ने एक बार फिर वित्त मंत्रालय से उक्त रकम आवंटित करने की मांग की है.

डिब्बे बदलना जरूरी

अब ताजा हादसे के लिए रेल मंत्री ने आईसीएफ डिब्बों को जिम्मेदार ठहराया है. लेकिन रेलवे सूत्रों का कहना है कि पुराने डिब्बों को जर्मन तकनीक से बने एलएचबी डिब्बों से बदलने की प्रक्रिया इतनी धीमी है कि इसमें 25 से 30 साल तक का समय लग सकता है. रेलवे बोर्ड के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, "भारतीय ट्रेनों में सौ फीसदी एलएचबी डिब्बों का इस्तेमाल समय से पहले तभी संभव है जब तमाम कोच फैक्ट्रियों में बड़े पैमाने पर इनका उत्पादन शुरू हो जाए." फिलहाल रेलवे के पास साढ़े सात हजार एलएचबी डिब्बे हैं. उसके सामने चेन्नई के पेरांबूर स्थित इंटीग्रल कोच फैक्ट्री में बने 55 हजार डिब्बों को बदलने का मुश्किल लक्ष्य है. एक आईसीएफ डिब्बे की उम्र 25 साल की होती है. इसलिए इन सबको एक साथ बदलना संभव नहीं है. अब रेल मंत्री ने डिब्बे बदलने की प्रक्रिया तेज करने का भरोसा दिया है. एलएचबी डिब्बों की खासियत यह है कि हादसे की स्थिति में यह एक-दूसरे पर नहीं चढ़ते. इससे जान-माल का नुकसान कम होता है. स्टेनलेस स्टील से बने इन डिब्बों के भीतर एलुमिनियम का इस्तेमाल होता है जिसके कारण यह पारंपरिक डिब्बों के मुकाबले हल्के होते हैं. पहले सरकार ने वर्ष 2020 तक इन डिब्बों के सौ फीसदी इस्तेमाल का लक्ष्य तय किया था.

लापरवाही खाली पद

रेल नेटवर्क में आधुनिकतम एलएचबी डिब्बे जोड़ने में मंत्रालय की लापरवाही का सबूत यह है कि भारतीय पटरियों पर इनका परीक्षण वर्ष 1997 में ही शुरू हुआ था. लेकिन इनका उत्पादन 15 साल बाद वर्ष 2012 में शुरू हो सका. रेलवे सुरक्षा पर गठित अनिल काकोदकर आयोग ने वर्ष 2012 में ही तमाम आईसीएफ डिब्बों को एलएचबी डिब्बों से बदलने की सलाह दी थी. आयोग ने आईसीएफ डिब्बों को सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा करार देते हुए इनका उत्पादन तुरंत रोकने की सलाह दी थी. उसने पांच साल में बदलाव की इस प्रक्रिया को पूरा करने पर 10 हजार करोड़ रुपए खर्च होने की बात कही थी. लेकिन आईसीएफ डिब्बों का उत्पादन अब तक जारी है. रेलवे ने काकोदकर आयोग की सिफारिशों को ठंडे बस्ते में डाल दिया है. अब डेढ़ सौ लोगों की जान लेने के बाद रेलवे की नींद खुली है. रेल मंत्री ने रेलवे बोर्ड के अतिरिक्त महानिदेशक अनिल कुमार सक्सेना को आईसीएफ डिब्बों का उत्पादन रोकने और उनको एलएचबी डिब्बों से बदलने के लिए एक समयबद्ध योजना तैयार करने को कहा है. 

देश में फिलहाल तीन फैक्ट्रियों में डिब्बे बनाए जाते हैं. यह हैं इंटीग्रल कोच फैक्ट्री, चेन्नई, रेल कोच फैक्ट्री, कपूरथला और माडर्न कोच फैक्ट्री, रायबरेली. इनमें फिलहाल हर साल चार हजार नए डिब्बे बनते हैं. इनमें से कपूरथला स्थित फैक्ट्री में सिर्फ एलएचबी डिब्बे ही बनते हैं. बाकी दोनों में आईसीएफ और एलएचबी दोनों डिब्बे बनाए जाते हैं. हर साल 15 सौ एलएचबी डिब्बे बनते हैं.

दूसरी ओर, रेलवे में सुरक्षा का कामकाज देखने वाले कर्मचारियों के 1.27 लाख पद खाली पड़े हैं. नतीजतन बाकी कर्मचारियों पर काम का भारी दबाव है. इससे भी रेल हादसे बढ़े हैं. आल इंडिया रेलवेमेंस फेडरेशन के महासचिव शिव गोपाल मिश्र कहते हैं, "जहां तीन पेट्रोलमैन की जरूरत हैं, वहां एक भी नहीं है." कर्मचारी यूनियनों का कहना है कि रेल मंत्रालय ट्रेनों और पटरियों की सुरक्षा बढ़ाने के चाहे जितने उपाय कर ले, कर्मचारियों की भारी कमी की वजह से उनको जमीनी स्तर पर लागू करना संभव नहीं होगा. इसके चलते हादसों पर अंकुश नहीं लगाया जा सकेगा.

रेलवे बोर्ड के पूर्व सदस्य के. बालाकेसरी कहते हैं, "ऐसे हर हादसे के बाद महज कुछ लोगों के खिलाफ कार्रवाई कर या बयान देकर संबंधित मंत्री अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं. इसकी बजाय एक ठोस योजना के तहत सबको साथ लेकर जमीनी स्तर पर सर्वोच्च प्राथमिकता के साथ सुरक्षा उपायों को लागू करना जरूरी है." वह कहते हैं कि ऐसा नहीं होने तक बेकसूर लोग ट्रेन हादसे में मरते रहेंगे और भारतीय रेलों का सफर उनके लिए जीवन का अंतिम सफर साबित होता रहेगा.