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तारीफ से हुआ संगीत का आकर्षण

८ फ़रवरी २०१४

पंडित विद्याधर व्यास की गिनती हिंदुस्तानी शास्त्रीय कंठ संगीत के उच्च कोटि के कलाकारों में की जाती है. वे ग्वालियर घराने की पलुस्कर परंपरा को आगे बढ़ाने में लगे हैं.

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तस्वीर: Kuldeep Kumar

69-वर्षीय पंडित विद्याधर व्यास ने रागविद्या और गायनकला की बारीकियां अपने पिता से सीखीं. उनके पिता पंडित नारायणराव व्यास ग्वालियर घराने के दिग्गज गायक और पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर के प्रमुख शिष्यों में से एक थे. विद्याधर व्यास भी पलुस्कर-परंपरा को पूरे मनोयोग और निष्ठा के साथ आगे बढ़ा रहे हैं. मात्र 40 वर्ष की आयु में उन्हें बंबई विश्वविद्यालय में संगीत विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया. बाद में वह लखनऊ के प्रसिद्ध भातखण्डे संगीत संस्थान के कुलपति भी बने और कुछ वर्ष तक उन्होंने कोलकाता में आईटीसी संगीत रिसर्च अकादमी के कार्यकारी निदेशक के रूप में भी कार्य किया. उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है जिनमें प्रतिष्ठित संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी शामिल है. प्रस्तुत हैं उनके साथ हुई बातचीत के कुछ चुने हुए अंश:

आपके लिए तो संगीतकार बनना नितांत स्वाभाविक रहा होगा क्योंकि अक्सर संगीतकार चाहते हैं कि उनके बच्चे भी उन्हीं के नक्शे-कदम पर चलें. आपके पिताजी ने इस बारे में फैसला लिया या आपने?

मैंने तो संगीत के माहौल में ही आंखें खोलीं और मैं बचपन से ही दिन-रात संगीत सुनता आ रहा हूं. मैंने पिताजी से संगीत सीखना शुरू किया. वह और शिष्यों को सिखाते थे तो मैं भी सुन-सुनकर कुछ-न-कुछ ग्रहण करता ही था. लेकिन मैं संगीत के प्रति गंभीर नहीं था. मेरे पिताजी पंडित नारायणराव व्यास कभी किसी चीज के लिए दबाव नहीं डालते थे. फिर मैं पढ़ाई में बहुत अच्छा था. हमेशा क्लास में फर्स्ट आता था. एक बार हम गर्मी की छुट्टियों में एक सप्ताह के लिए शिमला गए. वहां पिताजी का कार्यक्रम था. उनके आने की खबर सुनकर वहां के महाराष्ट्रीय समाज के अध्यक्ष मिलने आए और उनसे समाज के कार्यक्रम में गाने का आग्रह करने लगे. लेकिन उनका कार्यक्रम उस कार्यक्रम से पहले था जिसके लिए पिताजी आमंत्रित थे. इसलिए उन्होंने मना कर दिया. तब उन्होंने मुझसे गाने को कहा. तब तक मैंने कभी किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में गाया नहीं था. लेकिन मैं यह सोचकर मान गया कि आधा घंटा तो गा ही लूंगा. लेकिन जब कार्यक्रम में मैंने गाना शुरू किया तो लगभग तीन घंटे तक गाता रहा और लोग सुनते रहे. काफी तारीफ भी मिली.

उस समय मैं बंबई विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में बी. ए. (ऑनर्स) कर रहा था. प्रोफेसर विष्णु नार्लीकर पिताजी के बालसखा थे और उनका लड़का जयंत (अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त अन्तरिक्ष भौतिकशास्त्री) मुझसे कुछ साल बड़ा होने के बावजूद मेरा भी बचपन का दोस्त था. वह उन दिनों कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में था. वह मुंबई आया तो पढ़ाई में मेरी गति देखकर बोला कि एम. ए. करने तुम कैम्ब्रिज आओ, मैं सब इंतजाम कर दूंगा. इससे उत्साहित होकर मैं और लगन से पढ़ने लगा लेकिन जब रिजल्ट आया तो मुझ पर मानों वज्रपात ही हो गया. आज तक मैं समझ नहीं पाया हूं इतना खराब रिजल्ट कैसे आया. तब मैंने सोचा कि जिस काम में इतनी मेहनत की, उसका ऐसा परिणाम आया और जिसके प्रति कभी गंभीर नहीं रहा, उसमें इतनी तारीफ मिली. बस मैंने तय कर लिया कि अब पूरा जीवन संगीत को ही समर्पित करूंगा.

आपके पिताजी तो खुश हुए होंगे. आपकी तालीम किस तरह से हुई?

नहीं, पिताजी ने मुझे इस रास्ते में आने वाली कठिनाइयों के बारे में विस्तार से बताया और कहा कि मैं अपने निर्णय पर पुनर्विचार करूं. मैंने दोबारा सोचकर भी जब वही कहा तो उन्होंने पूरी गंभीरता से मुझे सिखाना शुरू किया. पिता के रूप में वह जितने स्नेहशील थे, गुरु के रूप में उतने ही अनुशासनप्रिय. रोज सुबह पांच बजे उठा देते थे और कुछ ही मिनटों में मेरे हाथ में तानपूरा होता था. एक घंटे सिर्फ मंद्र षड्ज की साधना करता था और कोशिश करता था कि उससे भी नीचे जाकर एक-एक सुर पर जितना टिक सकूं, उतना टिकूं. फिर पिताजी राग के बारे में और हर पहलू से उसका किस तरह विस्तार करना है, यह बताते थे. दोपहर के भोजन के बाद तीन घंटे का अंतराल और फिर देर रात तक तालीम का सिलसिला जारी रहता था. इन तीन घंटों के अंतराल में ही मैंने पिताजी को बिना बताए एम. ए. (समाजशास्त्र) में दाखिला ले लिया और पूरे विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम आया.

आपका पहला सार्वजनिक कार्यक्रम कहां हुआ? उसकी कोई खास बात याद है?

पहला कार्यक्रम जालंधर में स्वामी हरिवल्लभ संगीत सम्मेलन में हुआ. भीमसेन जोशी ने आगे बैठकर पूरा सुना और बाद में आकर बहुत तारीफ की. बाद में भी वे हमेशा मेरा उत्साह बढ़ाते रहे. कैसे विलक्षण गायक थे वह...!!!

क्या कुछ राग आपको अधिक प्रिय हैं? शास्त्रीय संगीत के वर्तमान और भविष्य के बारे में आप क्या सोचते हैं?

राग तो सभी अच्छे हैं. वैसे हमारे ग्वालियर घराने में हमीर, कामोद, गौड़ सारंग, भूप और मालगुंजी जैसे राग अधिक गाए जाते हैं. आजकल तो न जाने क्यों मालगुंजी बहुत कम सुनने में आ रहा है. मेरी कोशिश तो ग्वालियर घराने की पलुस्कर परंपरा के प्रति निष्ठावान बने रहने और उसे आगे बढ़ाने की ही रही है और भविष्य में भी रहेगी. जहां तक संगीत के भविष्य का सवाल है, मैं उसके प्रति बहुत आश्वस्त और आशान्वित हूं. अच्छे-अच्छे कलाकार उभर कर आ रहे हैं. गायक भी और वादक भी.

इंटरव्यू: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा

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