तीस साल पहले आजादी की दस्तक दे रही थी बर्लिन की हवा
२२ अक्टूबर २०१९दीवार खुलने की खुशी यानी कि यात्रा कर सकने की आजादी. साम्यवादी पूर्वी जर्मनी के ढेर सारे लोगों का गुस्सा यह था कि उन्हें देश से बाहर जाने की आजादी नहीं थी. सरकार भले ही इसके लिए विदेशी मुद्रा की कमी का बहाना बनाती हो, असल मामला सुरक्षा से जुड़ा था और राज्य की शक्ति से भी जो यह फैसला करना चाहता था कि किसे यात्रा करने की आजादी मिलेगी, किसे नहीं. कौन देश से बाहर जाने और फिर वापस आने का हकदार होगा? आलोचना करने वालों को देश के बाहर देश से बाहर जाने की अनुमति देने का सवाल ही नहीं था ताकि उन्हें देश को बदनाम करने का मौका न मिले. दीवार खुलने से सबसे ज्यादा उन युवा लोगों को खुशी हुई जो अपने सीमित साधनों से भी दुनिया देखना चाहते थे, खुद अपना अनुभव करना चाहते थे कि उनकी दुनिया कैसी है, लोग कहां किस तरह रहते हैं, किस तरह जी रहे हैं.
आज तीस साल पहले के अपने अनुभवों की बात करने वाले तीन पीढ़ी के लोग हैं. वे जो उन दिनों विदेशों की यात्रा न कर पाने का मलाल लिए जी रहे थे, वे युवा जो बाहर जाने की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे थे और वे बच्चे जो किंडरगार्टनों या स्कूलों में थे. उनमें से कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें अचानक दीवार खुलने के बाद किंडरगार्टन में ही छोड़कर उनके मां बाप आजादी का मजा लेने चले गए थे. दीवार खुलने का दिन अप्रत्याशित, अभूतपूर्व ऐतिहासिक घटनाओं का दिन था. अकसर बर्लिन में बहुत से मां बाप यह सोचकर गए थे कि किंडरगार्टन के बंद होने तक वापस आ जाएंगे लेकिन खुशियों का माहौल कुछ ऐसा था कि टाइम पर किसी का काबू नहीं था. दीवार खुलने से कुछ दिन पहले गर्मियों की छुट्टियों के दौरान बहुत से लोग हंगरी और चेकोस्लोवाकिसया होकर देश छोड़ने लगे थे. उन परिवारों के बच्चों के लिए भी बहुत कुछ नया था. उनसे मोहल्लों में रहने वाले उनके दोस्त और परिजन पीछे छूट गए थे. उन्हें नई परिस्थितियों और नए माहौल में जीना पड़ रहा था.
नवंबर में दीवार गिर जाएगी, इसका भान किसी को नहीं था. जून से जो लोग देश छोड़कर भागने लगे थे, उन्होंने जीडीआर में रहते हुए यात्रा कर पाने या अभिव्यक्ति की आजादी मिलने की सारी आस छोड़ दी थी. बड़ी मुश्किलों से भागकर पश्चिमी जर्मनी पहुंचे, लेकिन जिंदगी आसान नहीं थी. हालांकि पश्चिम जर्मन सरकार नई जगह पर पैर जमाने में उनकी मदद कर रही थी. लेकिन नई जगह पर रहने के लिए घर खोजना, अच्छी सी नौकरी खोजना, दोस्त बनाना आसान नहीं था. और चार महीने बाद दीवार यूं भी गिर गई. पूर्वी जर्मनी के सारे लोगों को कहीं भी जाने की आजादी मिल गई, बिना किसी मशक्कत के. बिना पुलिस की जांच के, बिना खुफिया पुलिस की हां के. दीवार खुलने से पहले मुश्किल से जान पर जोखिम उठाकर भागे लोगों के सामने दीवार गिरने और देश के एक होने की खुशी तो थी, लेकिन अचानक एक सूनापन था. बहुत से लोग उन दिनों को याद कर रहे हैं, उन लोगों को याद कर रहे हैं जिन्होंने उनकी मदद की या उन पलों को याद कर रहे हैं जिसने परिवारों के रिश्ते तोड़ दिए.
दीवार गिरने पर खुशी का इजहार करने वालों में अंगेला मैर्केल जैसे लोग भी थे. वह विज्ञान अकादमी में काम करती थीं, सामान्य सा वैज्ञानिकों वाला जीवन था और मन में दीवार के गिरने और देश के एक होने की तमन्ना थी. दीवार के खुलने से और लोकतांत्रिक व्यवस्था के आने से उन्हें अभूतपूर्व मौका मिला. पहले जीडीआर की लोकतांत्रिक सरकार में सहायक प्रवक्ता का पद और एकीकरण के बाद चांसलर हेल्मुट कोल की सरकार में केंद्रीय मंत्री का पद. आज वे एकीकृत देश की चांसलर हैं. अंगेला मैर्केल जैसे बहुत से लोग जो दीवार के गिरने के बाद राजनीति में सक्रिय हुए आज देश के विभिन्न महत्वपूर्ण जगहों पर राजनीतिक और आधिकारिक पदों पर हैं.
लेकिन देश अभी भी बंटा हुआ है. शायद पहले भी बंटा था, एक होने की कोशिश कर रहा था. लेकिन 2015 के बाद यूरोप में शरणार्थी संकट और अंगेला मैर्केल के शरणार्थियों को जर्मनी में आने देने के बाद से जर्मनी मानसिक तौर पर भी बंट गया है. 1989 में लोकतंत्र की अलख जगाने वाले शीतयुद्ध खत्म करवाने और देश के साथ यूरोप को एक करवाने में कामयाब रहे. लेकिन जर्मनी की एकता की उम्मीदें अधूरी है. दीवार के गिरने का लोगों ने अलग अलग अनुभव किया, उससे अलग अलग सबक लिया और मौकों का अलग अलग इस्तेमाल किया. आज यात्रा की आजादी का इस्तेमाल करने वाले पूर्वी जर्मनी के लोग दुनिया को वसुधैव कुटुम्बकम के नजरिए से देखते हैं तो पूर्वी हिस्से में रह गए कई लोग बाहर से आने वालों से परेशान हैं. हालांकि पूर्वी हिस्से में विदेशियों की तादाद पश्चिम के मुकाबले बहुत ही कम है, लेकिन डर और आशंका के लिए तथ्यों की जरूरत नहीं होती.
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