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थिएटर मेरे खून में हैः शबाना

७ सितम्बर २०१३

जानी मानी अभिनेत्री शबाना आजमी को बेहतर सिनेमा का पर्याय माना जाता है. अब उनकी पहचान एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर भी है. कोलकाता में डॉयचे वेले ने शबाना आजमी से बात की. पेश है इसके कुछ अंश.

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तस्वीर: DW

डीडब्ल्यूः हिंदी फिल्मों में आपके सफर की शुरूआत कैसे हुई?

शबाना आजमीः मैं स्कूल के दिनों में भी अभिनय करती थी. स्कूल के तमाम सहपाठी कहते थे कि यह लड़की बड़ी होकर अभिनेत्री बनेगी. लेकिन मैं उनकी टिप्पणियों को गंभीरता से नहीं लेती थी. सेंट जेवियर कॉलेज में पढ़ाई के दौरान मुझे अभिनय में मजा आने लगा. उस दौरान मुझे अभिनय के लिए कई अवार्ड भी मिले. उसके बाद मैं प्रशिक्षण के लिए पुणे की भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान में दाखिल हो गई.

डीडब्ल्यूः आपको अंकुर फिल्म में काम कैसे मिला?

शबाना आजमीः यह तो मैं आज तक नहीं समझ सकी हूं. मैं श्याम बेनेगल से मुलाकात करने गई थी. उन्होंने मुलाकात के दो मिनट के भीतर ही मुझे अंकुर और निशांत में काम करने का प्रस्ताव रख दिया.

डीडब्ल्यूः आपने मुख्यधारा और समानांतर सिनेमा में एक साथ काम किया है. क्या इस बारे में पहले से कुछ सोचा था?

शबाना आजमीः मैंने पहले से कुछ भी तय नहीं किया था. यह संयोग है कि बॉक्स ऑफिस पर अंकुर और इश्क इश्क इश्क का प्रदर्शन बढ़िया रहा. उसके बाद मुझे दोनों तरह के सिनेमा में रोल मिलने लगे.

डीडब्ल्यूः आपने कई बेहतरीन फिल्मों में अभिनय किया है. उनमें से आपकी सबसे पसंदीदा फिल्म कौन सी है?

शबाना आजमीः यह तो बताना मुश्किल है. मैं अपने अभिनय से कभी भी संतुष्ट नहीं रही. मैं खुद ही अपनी सबसे बड़ी आलोचक रही हूं. तीन चार फिल्में मेरे दिल के करीब हैं. इनमें अर्थ, पार, फायर और 15 पार्क एवेन्यू शामिल हैं. इन फिल्मों ने मुझे जीवन में कुछ करने की प्रेरणा दी.

Shabana Azmi
कोलकाता के कार्यक्रम में शबाना आजमीतस्वीर: DW/Prabhakar

डीडब्ल्यूः आपके जीवन पर माता पिता के अलावा किसका सबसे ज्यादा प्रभाव रहा?

शबाना आजमीः मेरे जीवन पर श्याम बेनेगल का सबसे ज्यादा असर रहा है. मैंने उनके साथ अपना करियर शुरू किया और पहली विदेश यात्रा भी उनके साथ की. उनके अलावा शशि कपूर की पत्नी जेनिफर, मुजफ्फर अली की पूर्व पत्नी सुहासिनी और मेरे पति जावेद (अख्तर) का मेरे जीवन पर सबसे ज्यादा प्रभाव रहा. हम पति पत्नी में विभिन्न मुद्दों पर बहस होती है. इसके बावजूद हम दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं.

डीडब्ल्यूः अंकुर से लेकर आपकी ज्यादातर फिल्में एक संदेश देती रही हैं. आप पटकथा का चयन कैसे करती थीं?

शबाना आजमीः मैं ऐसे माहौल में बड़ी हुई जहां यह सोच थी कि कला को सामाजिक बदलाव का हथियार बनाना चाहिए. मैं ऐसे किरदार निभाना चाहती थी जिनसे सामाजिक बदलाव की दिशा में पहल हो. फिल्मों में निभाए किरदारों ने मुझमें एक नई सोच विकसित की. उसके बाद चीजें ज्यादा आसान हो गईं. घरेलू माहौल ने भी मेरी सोच को एक दिशा देने में अहम भूमिका निभाई.

डीडब्ल्यूः आपने थिएटर और फिल्म दोनों में पहचान बनाई है. आपको इनमें क्या ज्यादा पसंद है?

शबाना आजमीः मैं पेशेवर तौर पर प्रशिक्षित फिल्म अभिनेत्री हूं. इसलिए मेरी पहली पहचान एक फिल्म अभिनेत्री के तौर पर है. लेकिन थिएटर तो मेरे खून में है. चार महीने की उम्र में ही मुझे पीठ पर बांध कर मेरी मां रिहर्सल के लिए पृथ्वी थिएटर जाती थीं. बाद में भी हम उनके दौरों पर साथ जाते थे. इसके अलावा स्कूल और कॉलेज में भी मैंने काफी नाटकों में काम किया. सेंट जेवियर्स में फारुक शेख के साथ मिल कर मैंने हिन्दी नाट्य मंच की स्थापना की. उसके बैनर तले हमने कई नाटकों का मंचन किया.

डीडब्ल्यूः आप महिला अधिकारों के लिए लंबे अरसे से लड़ रही हैं. भारत में महिलाओं की स्थिति से आप कितनी संतुष्ट हैं?

शबाना आजमीः महिलाओं की स्थिति पहले के मुकाबले बेहतर जरूर हुई है. लेकिन भ्रूण हत्या, कुपोषण, महिला अधिकारों आदि की दिशा में अब भी काफी कुछ किया जाना है. अभी लंबा रास्ता तय करना है. महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों पर जल्दबाजी में कोई टिप्पणी किए बिना समस्या की सामाजिक तह में जाना चाहिए. इसके अलावा त्वरित कार्रवाई कर दोषियों को कड़ी सजा देने पर ऐसे अपराधों पर अंकुश लगाना संभव है.

इंटरव्यूः प्रभाकर, कोलकाता

संपादनः ए जमाल

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