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दवाओं से ख़तरे में है उड़ान का महारथी गिद्ध

संदीपसिंह सिसोदिया, सौजन्य: वेबदुनिया२६ अप्रैल २०१०

प्रकृति को साफ सुथरा बनाए रखने वाले गिद्ध एशिया में तेज़ी से घट रहे हैं. गिद्धों की घटती संख्या से प्राकृतिक चक्र गड़बड़ा रहा है. अब भारत सरकार ने दर्दनाशक लेकिन गिद्धों के लिए जानलेवा साबित होती कई दवाओं पर रोक लगाई.

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तस्वीर: Naturschutzgebiet Uvac

कुदरत जब गढ़ी गई तो हर एक जीव जन्तु की निश्चित भागीदारी तय की गई. गिद्धों को साफ सफाई के अलावा सांप, चूहे और खरगोशों की तदाद काबू में रखने का काम सौंपा गया. लेकिन आज गिद्ध विलुप्त होने की कग़ार पर आ खड़े हुए हैं. गिद्धों की संख्या पिछले एक दशक में एकाएक घट गई है.


लगभग पूरे दक्षिण एशिया में विलुप्त हो रहे गिद्धों को बचाने के लिए अब भारत में सरकार ने प्रयास शुरू कर दिए हैं. इसके तहत पशुओं को दी जाने वाली उस दवा पर प्रतिबंध लगा दिया है, जिसके कारण गिद्धों की मौत हो रही थ. पक्षी संरक्षण के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं का कहना है कि पिछले 14 सालों में गिद्धों की संख्या में आश्चर्यजनक रूप से 97 प्रतिशत की कमी आई है और वे विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गए हैं.


इसका मुख्य कारण बताया जा रहा है कि पशुओं को दर्दनाशक के रूप में एक दवा डायक्लोफेनाक दी जाती है और इस दवाई को खाने के बाद यदि किसी पशु की मौत हो जाती है तो उसका मांस खाने से गिद्ध मर जाते हैं.


भारत, पाकिस्तान और नेपाल में हुए सर्वेक्षणों में मरे हुए गिद्धों के शरीर में डायक्लोफेनाक के नमूने मिले हैं. उपचार के बाद पशुओं के शरीर में इस दवा के रसायन घुल जाते हैं और जब ये पशु मरते हैं तो उनका माँस खाने वाले गिद्धों की किडनी और लिवर को गंभीर नुकसान पहुंचता है, जिससे वे मौत का शिकार हो जाते हैं. यह भी एक वजह है कि गिद्ध तेज़ी से घट रहे हैं.

Afrikanische Geier
ख़त्म होता बसेरा, खाना ज़हरीलातस्वीर: picture-alliance/dpa


साथ ही शहरी इलाकों में बढ़ता प्रदूषण, पेड़ों की कटाई से भी बसेरे की समस्या इस शानदार पक्षी को बड़ी तेजी से विलुप्ती की ओर धकेल रही है. भारतीय समाज में मरे हुए प्राणियों का मांस खाने वाले इस पक्षी को प्यार या दया की दृष्टि से नहीं देखा जाता है.


गिद्ध मुर्दाखोर होने की वजह से पर्यावरण को साफ-सुथरा रखते हैं और सड़े हुए माँस से होने वाली कई बिमारियों की रोकथाम में सहायता कर संतुलन बैठाते हैं.

ब्रिटेन के रॉयल सोसायटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड्स में अंतरराष्ट्रीय शोध विभाग के प्रमुख डेबी पेन का कहना है कि गिद्धों की तीन शिकारी प्रजातियां चिंताजनक रूप से कम हुई हैं. उनका कहना है हालांकि अब भारत में डायक्लोफेनाक पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, लेकिन भोजन चक्र से इसका असर खत्म होने में काफी वक्त लगेगा.


गौरतलब है की टनों की संख्या में यह दवा गांवों और शहरों में उपलब्ध है. निरक्षरता और इस सम्बन्ध में कोई समुचित जानकारी नहीं होने से इस पर लगाए गए प्रतिबंध इतनी जल्दी असरदार साबित होंगे इसमें संदेह है. भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 2008 की समीक्षा के अंतर्गत भी ऐसी दवाइयों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई है, जिनसे किसी वन्य प्रजाति को नुकसान हो.


मुख्यतया रेतीले इलाकों के पाए जाने वाले गिद्धों की संख्या सिर्फ गुजरात में ही 2500 से घटकर 1400 रह गई है. कभी राजस्थान व मध्यप्रदेश में भी गिद्ध भारी संख्या में पाए जाते थे, लेकिन अब बिरले ही कहीं दिखाई देते हैं. गिद्धों की जनसंख्या को बढ़ाने के सरकारी प्रयासों को मिली नाकामी से भी इनकी संख्या में गिरावट आई है. इनकी प्रजनन क्षमता भी संख्या बढ़ाने के प्रयासों में एक बड़ी बाधा है, गिद्ध जोड़े साल में औसतन एक ही बच्चे को जन्म देते हैं.


भारत में गिद्धों की नौ प्रजातियाँ पायी जाती हैं, जिनमें बियर्डेड, इजिप्शयन, स्बैंडर बिल्ड, सिनेरियस, किंग, यूरेजिन, लोंगबिल्ड, हिमालियन ग्रिफिम एवं व्हाइट बैक्ड शामिल हैं. इनमें से चार प्रवासी किस्म की हैं.