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दुरुपयोग रोकिए लेकिन अधिकार मत छीनिए

२९ अप्रैल २०१६

सरकारी कामकाज में पारदर्शिता के लिये 2005 में सूचना का अधिकार कानून बना था, लेकिन आज ग्यारह वर्ष बाद वो विवादों के घेरे में है. राज्यसभा में बहस के दौरान सभी दलों ने एक सुर से इस अधिनियम के दुरुपयोग पर चिंता जाहिर की.

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Symbolbild Panama Papers - Daten-Leak Steuerflüchtlinge
तस्वीर: picture-alliance/maxppp/J. Pelaez

दिलचस्प बात ये है कि राज्यसभा में उठा मूल सवाल ये था कि आरटीआई के सवालों से अधिकारीगण अब कन्नी काटने लगे हैं. लेकिन नेताओं ने इस सवाल का मुंह अलग ही बहस की ओर मोड़ दिया लिहाजा सरकार भी कुछ इसी तरह का जवाब देती पाई गई कि हां समस्या तो है. इसी तरह पीआईएल यानी जनहित याचिका के गलत इस्तेमाल पर भी माननीयों के स्वर तल्ख ही थे.

थोड़ी देर के लिए मान लें कि आरटीआई कानून हट जाता है तो क्या सरकारी दफ्तरों और अफसरों की निष्क्रियता खत्म हो जाएगी, कार्यक्षमता बढ़ जाएगी, वे चाकचौंबद हो जाएंगे? अगर आंकड़ों में जाएं तो 2015 में जब इस कानून को बने 10 वर्ष पूरे हुए थे तब तक सिर्फ 80 लाख आवेदन ही प्राप्त हुए थे यानी कुल आबादी के एक प्रतिशत से भी कम लोगों ने इसका इस्तेमाल किया. इन कितने मामलों में भ्रष्टाचार उजागर होने के बाद कार्रवाई हुई है ये भी पड़ताल का विषय है. इस बात से इंकार नहीं कि इस कानून का व्यापक दुरुपयोग हुआ है. पत्नियों ने अफसर पतियों की तनख्वाहें जानने के लिये, रिश्तेदारों ने संपत्ति की जानकारी हासिल करने के लिए आरटीआई दाखिल कीं. वहीं ये भी नहीं भूला जा सकता कि अमित जेठवा, सतीश शेट्टी और शाइला मसूद जैसे अनेक आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई.

अगर आज सांसद ये कहते हैं कि अधिकारियों में आरटीआई को लेकर खौफ पसर गया है तो दूसरी बात भी तो उतनी ही सच हो सकती है कि आरटीआई के नाम पर किसी काम को अंजाम तक न पहुंचने देने का बहाना भी अधिकारियों और कर्मचारियों के पास आ गया है.

क्या ये बहस राज्यसभा में सुनियोजित ढंग से उठाई गई है? कहीं ऐसा तो नहीं कि आने वाले दिनों में हम आरटीआई जैसे सशक्त नागरिक अधिकार में कोई कटौती देखने वाले हैं? इसमें तो कोई शक नहीं कि आरटीआई के सवालों ने अधिकारियों और सरकारों को असहज तो किया ही है. आज हम ये जान पा रहे हैं कि किसी मंत्री या अधिकारी या राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के हवाई दौरों में कितना खर्च आता है. ये तो सिर्फ एक उदाहरण है, ऐसे कई मामले हैं जो आरटीआई के जरिए सामने न आते तो देश उनके बारे में अनभिज्ञ ही रहता. एक अनभिज्ञ समाज, एक विकसित राष्ट्र की पहचान नहीं बन सकता. और ये अनभिज्ञता घातक भी हो सकती है जब समाज जागरूक होने के बजाय पिछड़ा, हिंसक और रूढ़िवादी होता जाए. क्या हम एक अनभिज्ञ समय की ओर नहीं धकेले जा रहे हैं?

असल में आरटीआई की उपयोगिता तो यूं भी कुछ अधिकारियों और कर्मचारियों की उदासीनता, कुछ लोगों में जागरूकता के अभाव, अधिकारों को लेकर आलस्य की वजह से घिसती ही जा रही है, लेकिन एक और संकट इसके अस्तित्व पर मंडरा रहा है. वो है निजी क्षेत्र का फैलता दायरा. सरकारें जिस तेज़ी के साथ और कमोबेश योजनाबद्ध ढंग से निजी क्षेत्र को बुनियादी सेवाएं परोस रही हैं उनमें अब आरटीआई जैसे अधिकारों की क्या सार्थकता रह पाएगी, कहना कठिन है. मिसाल के लिए उच्च शिक्षा को लें. सरकारी उच्चशिक्षण संस्थानों की तुलना में निजी संस्थानो की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है. सरकारी संस्थानों में नियुक्ति, दाखिले, टेंडर या शुल्क आदि को लेकर आप आरटीआई दाखिल कर सकते हैं लेकिन निजी संस्थानों में किसके पास जाएंगे. वे भी तो आखिर यहीं व्यवसाय कर रहे हैं. कौन सी ऐसी शक्ति होगी जो उन्हें जवाबदेह बनाएगी. अगर निजी क्षेत्र में आरक्षण की बात उठाई जाती है तो क्यों नहीं आरटीआई को भी वहां लागू करने की मांग उठती.

लेकिन तमाम बहस में बात घूमफिरकर इसी चिंता पर स्थिर हो जाती है कि चाहे सरकारी हो या निजी संस्थान, अगर आरटीआई के सवालों से बचना ही मकसद बन जाए तो फिर क्या कीजिएगा. आप लाख आरटीआई करते रहिए कौन सुनने वाला है. और इसी से जुड़ा दूसरा पहलू आरटीआई के अनापशनाप इस्तेमाल का भी है. बेतुके, प्रायोजित, साजिशन और स्वार्थवश पूछे गए सवाल, अंततः आरटीआई की सार्थकता और महत्त्व को ही गिराते हैं.

इसी के आसपास जनहित याचिकाओं यानी पीआईएल का भी सवाल है. वे जेनुइन होती हैं लेकिन कई पीआईएल का कोई न्यायिक या विधिसम्मत आधार नहीं होता है. जैसा आरटीआई के साथ है कमोबेश वही स्थिति जनहित याचिकाओं की भी होती जा रही है. सुप्रीम कोर्ट में आने वाली पीआईएल बड़े पैमाने पर खारिज भी की जाने लगी है. निजी पीआईएल को छोड़ ही दीजिए, प्रशांत भूषण जैसे दिग्गज विशेषज्ञों और एक्टिविस्टों की जनहित याचिकाएं दायर करने की प्रवृत्ति को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट खरी खरी सुना चुका है. तो क्या सुप्रीम कोर्ट भी पीआईएल से आजिज आ चुका है, कोर्ट में जजों की कमी का रोना तो पूरा देश देख और सुन ही चुका है- ये भी निश्चित रूप से एक समस्या तो है ही. लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि आरटीआई से पहले जनहित याचिकाओं के हवाले से कई बड़े फैसले आ चुके हैं. कई नजीरें बनी हैं. सार्वजनिक जीवन को उनसे लाभ ही हासिल हुआ है.

अगर आरटीआई और पीआईएल में कमियां हैं, उनके बेजा इस्तेमाल की घटनाएं बढ़ीं हैं तो इसे लेकर कोई नीति या निर्देश बनाने चाहिए, न कि उन्हें पूरी तरह खारिज कर देना चाहिए. फिर मौलिक अधिकारों की भी क्या जरूरत रह जाएगी. सूचना और जानकारी लोकतंत्र का आधार है. यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी को सुनिश्चित करता है. विशेषाधिकार प्राप्त और साधन-संपन्न वर्ग को अगर असुविधा होती है तो उस असुविधा का भी ख्याल रखा जाना चाहिए जो आरटीआई या पीआईएल के न रहने से या उसमें मनमाफिक बदलाव कर देने से इस देश के आम नागरिक को होगी जिसका एक बड़ा हिस्सा यूं भी कई किस्म की वंचनाओ, हताशाओं और अभावों में जी रहा है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी