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देशों को निगलता बेकाबू आतंकवाद

१२ जून २०१४

इराक में मोसूल और तिकरिट पर कब्जे के बाद आतंकवादी बगदाद की ओर बढ़े. सरकार कमजोर पड़ती दिख रही है. ऐसा ही हाल एशिया के कुछ दूसरे मुस्लिम बहुल देशों का भी है. वो आतंकवाद के खिलाफ वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं.

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तस्वीर: Getty Images/Afp//Safin Hamed

सुन्नी आतंकवादियों ने इराक की सबसे बड़ी तेल रिफाइनरी वाले शहर तिकरिट को बुधवार शाम नियंत्रण में ले लिया. बताया जा रहा है कि आतंकवादी रिफाइनरी से कुछ ही दूर हैं. तेल सप्लाई करने वाले देशों के संघ ओपेक ने हालात पर चिंता जताते हुए अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम बढ़ने की आशंका जताई है. एशियाई बाजारों में कीमतें उछलने लगी हैं.

आतंकवादी खुद को इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड लेवेंट का सदस्य कहते हैं. संगठन अल कायदा के नक्शे कदम पर चल रहा है. इराकी सेना और सरकार आतंकवादियों के सामने कमजोर पड़ती दिखाई दे रही है. अमेरिकी अखबार न्यू यॉर्क टाइम्स के मुताबिक इराकी प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकी ने पिछले ही महीने आतंकवादियों के खतरे को भांपते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से हवाई हमले करने की गुजारिश की थी. वॉशिंगटन ने फिलहाल हवाई हमले करने से इनकार किया है लेकिन संकेत दिए हैं कि वो इराकी फौज को मजबूत करने में मदद करेगा.

इराक में अगर हालात बिगड़ते चले गए तो इसकी नैतिक जिम्मेदारी अमेरिका पर भी आएगी. इराक में 2003 में अमेरिका ने हमला किया. तब सद्दाम हुसैन इराक के राष्ट्रपति थे. अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने सद्दाम हुसैन पर जनसंहार के हथियार बनाने का आरोप लगाया. ये हथियार आज तक नहीं मिले. दिसंबर 2003 में सद्दाम हुसैन को पकड़ लिया गया और तीन साल बाद फांसी दे दी गई. इसके बाद अमेरिकी सेना वहां रही, लेकिन आतंकवाद भी जड़ें फैलाता गया.

Irakische Flüchtlinge im Irak
अपने मुल्क से भागते इराकीतस्वीर: picture-alliance/AA

प्रायोजित आतंकवाद

एशिया के कई मुस्लिम बहुल देश शिया और सुन्नी संप्रदायों में बंटे हुए हैं. ये जातीय समीकरण अरब जगत को परेशान करता आया है. ईरान और सीरिया का सऊदी अरब पर आरोप है कि वह सुन्नी चरमपंथियों को आर्थिक मदद देता है. बाकी देशों के बीच भी ऐसे ही मसले हैं. दोनों पक्ष रंजिश से निपटने के लिए एक दूसरे पर तेल और प्राकृतिक गैस से मिले पैसे के दुरुपयोग के आरोप भी लगाते हैं. कभी युद्ध के जरिए ऐसे मतभेदों से निपटा जाता था लेकिन बाद में ये विवाद आतंकवाद के सहारे छद्म लड़ाई में बदल गया. अब मुश्किल यह है कि आतंकवादी संगठन बेहद ताकतवर हो गए हैं और वे अपने फैसले खुद कर रहे हैं. देशों में भले ही मतभेद बरकरार हों, आतंकवादी एक दूसरे से सहयोग कर रहे हैं.

आतंकवाद का फैलता दायरा बड़े इलाकों को अपने प्रभाव में ले रहा है. फिलहाल पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक, सोमालिया, यमन, सीरिया, लीबिया, लेबनान और नाइजीरिया जैसे देश इसके सामने लड़खड़ाते दिख रहे हैं. 1990 के दशक में सोमालिया, यमन और अफगानिस्तान को चरमपंथ का गढ़ समझा जाता था, लेकिन अब पाकिस्तान, सीरिया और इराक जैसे देश इसकी ज्यादा चपेट में दिख रहे हैं.

इसे अमेरिकी कूटनीति की अदूरदर्शिता के तौर पर भी देखा जा सकता है. अरब जगत के नेताओं के साथ अमेरिका की साम, दाम, दंड और भेद वाली कूटनीति ने चरमपंथ के प्रति सहानुभूति पैदा की है. अफगानिस्तान और इराक में अमेरिकी सेना के लंबा वक्त गुजारने के बावजूद हालात पहले से ज्यादा गंभीर दिखाई पड़ रहे हैं. इसी महीने जिस ढंग से पांच तालिबान बंदियों के बदले एक अमेरिकी सैनिक को पांच साल बाद रिहा किया उससे साफ पता चला कि तालिबान के आगे अमेरिका को कैसे बेबस होना पड़ा.

ओएसजे/एमजे(एएफपी, एपी)