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न्यूक्लियर फ्यूजन से असीम ऊर्जा

२८ जुलाई २०१४

दुनिया भर में ऊर्जा की भूख लगातार बढ़ती जा रही है और संसाधनों पर दबाव भी बढ़ रहा है. मांग को पूरा करने के लिए वैज्ञानिकों की नजर लंबे समय से सूरज पर टिकी हुई है.

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Symbolbild Energiewende
तस्वीर: dapd

वैज्ञानिक धधकते सूरज की आग को धरती पर लाना चाहते हैं. कई करोड़ डिग्री का ताप हाइड्रोजन के अणुओं को मिला देता है और इसी से असीम ऊर्जा निकलती है. मौजूदा सौर भट्टियां इतनी छोटी हैं कि उनमें यह करना मुमकिन नहीं है. इसीलिए दक्षिण फ्रांस के कादाराश में एक एक्सपेरिमेंटल रिएक्टर 'ईटर' बनाया जा रहा है. कुछ ही साल में यहां 30 मीटर ऊंचा और 23,000 टन स्टील से बना ढांचा होगा. रिएक्टर के सहारे रिसर्च के लिए जरूरी 10 गुना ज्यादा ऊर्जा पैदा करने की कोशिश की जाएगी.

ईटर अंतरराष्ट्रीय प्रोजेक्ट है. इसमें यूरोप के साथ भारत, चीन, रूस और अमेरिका भी शामिल हैं. फिलहाल परियोजना की लागत 15 अरब यूरो है. योजना का लगभग आधा खर्चा यूरोपीय संघ उठा रहा है. फ्यूजन फॉर एनर्जी के डायरेक्टर हेंड्रिक बिंडस्लेव कहते हैं, "यह कई मायनों में अनूठा है. यह विवादित परमाणु ऊर्जा की तरह लंबे समय तक टिकने वाला रेडियोधर्मी कचरा पैदा नहीं करता. परंपरागत तरीके के उलट इसके पिघलने का खतरा भी नहीं है. इसके लिए अपार संसाधन है, लिहाजा ईंधन की भी कमी नहीं होगी."

कंट्रोल्ड न्यूक्लियर फ्यूजन

न्यूक्लियर फ्यूजन यानि नाभिकीय संलयन पर 1950 के दशक की शुरुआत से ही रिसर्च हो रही है. लंबे समय तक खाली हाथ रहने के बाद सोवियत संघ में भौतिकविज्ञानियों को टोकामैक ढांचा बनाने जैसी अहम सफलता मिली. 1991 में वैज्ञानिकों ने ब्रिटिश रिएक्टर जेट में पहली बार कंट्रोल्ड न्यूक्लियर फ्यूजन से ऊर्जा हासिल की, लेकिन सिर्फ दो सेकेंड के लिए. फ्रांस की प्रोजेक्ट में जेट को आदर्श बनाया गया है लेकिन परियोजना विवादों में भी है. कई बार लेट लतीफी हुई और खर्चा भी बढ़ता चला गया. बिंडस्लेव कहते हैं, "मैं इससे खुश नहीं हो सकता, लेकिन यह चुनौती वैसी है जैसी इंसान को चांद पर ले जाने की थी. हां, हमें देरी हुई है. लेकिन मैं यह भी जानता हूं कि वैज्ञानिक और संस्थान से जुड़े लोग, ईटर, फ्यूजन फॉर एनर्जी और साथ आए उद्योग इसके लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं."

उत्तरी जर्मनी के ग्राइफ्सवाल्ड में रिसर्चर एक अलग न्यूक्लियर फ्यूजन रिएक्टर पर काम कर रहे हैं. वेनडेलश्टाइन सेवन-एक्स पर काम हाल में ही खत्म हुआ है. प्रोजेक्ट के वैज्ञानिक टोकामैक के बजाए स्टेलरेटर के जरिए धरती पर सूरज को लाना चाह रहे हैं. माक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर प्लाज्माफिजिक्स के थोमास क्लिंगर कहते हैं, "दोनों रिएक्टर रिंग आकार के चुंबकीय क्षेत्र के साथ काम करते हैं. रिएक्टर में प्लाज्मा होता है यानि 10 करोड़ डिग्री गर्म गैस. रिएक्टर की ठंडी दीवार से अलग रखने के लिए छल्ले जैसे मैग्नेटिक फील्ड की जरूरत होती है. इनमें अंतर यह है कि हम मैग्नेटिक फील्ड कैसे बनाते हैं."

स्टेलरेटर में कई लहरदार छल्लों के बीच मैग्नेटिक फील्ड बनता है जबकि टोकामैक का मैग्नेटिक केज समान गोल छल्लों के बीच से गुजरता है. बिजली प्लाज्मा से बहती है और चुंबकीय क्षेत्र इसे जोड़े रखता है. स्टेलरेटर को प्लाज्मा में बिजली की कोई जरूरत नहीं होती और यह लगातार चलते रह सकता है. फिलहाल फ्रांस में टोकामैक टाइप के रिएक्टर ज्यादा जांचे परखे माने जा रहे हैं. हो सकता है कि यह दुनिया का पहला फ्यूजन से ऊर्जा पैदा करने वाला रिएक्टर बने.

रिपोर्टरः निकोलास मार्टिन/एएम

संपादनः ईशा भाटिया