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धार्मिक समुदाय के नाम पर राजनीति

२४ सितम्बर २०१५

मुजफ्फरनगर दंगों पर जस्टिस विष्णु सहाय की रिपोर्ट में उन बातों की पुष्टि हुई है जिसके आरोप थे. प्रशासन का निष्क्रिय रहना शर्मनाक तो है ही इस बात का सबूत भी कि प्रशासनिक अधिकारियों ने अपनी ड्यूटी का निर्वाह नहीं किया.

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तंबुओं में रहने को मजबूरतस्वीर: SAJJAD HUSSAIN/AFP/Getty Images

दो वर्ष पहले उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में हुए सांप्रदायिक दंगों के बारे में कल राज्यपाल को सौंपी गई विष्णु सहाय आयोग की 775 पृष्ठों की रिपोर्ट के निष्कर्षों के बारे में जो बातें अभी तक पता चल पायी हैं, उनमें कोई भी ऐसी नहीं जो नई हो. दंगों के दौरान अखबारों में छपी खबरों से स्पष्ट था कि उन्हें भड़काने में जहां भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की प्रमुख भूमिका थी, वहीं सत्तारूढ़ दल समाजवादी पार्टी के नेताओं ने भी हिंसा की लपटों को हवा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. कुछ स्थानीय अखबारों और सोशल मीडिया ने भी अनेक तरह की अफवाहों के फैलने में मदद की थी. प्रशासन और पुलिस की भूमिका भी संदिग्ध थी. सहाय आयोग की रिपोर्ट से इन सभी आशंकाओं की पुष्टि हुई है.

पिछली डेढ़ सदी के दौरान भारत में सांप्रदायिक दंगों का एक खास तरह का पैटर्न उभर कर सामने आया है और हर बार लगभग उसी की पुनरावृत्ति होती रहती है. किसी धार्मिक त्यौहार पर एक समुदाय विशेष के धर्म पर छींटाकशी या उसे नीचा दिखाने की कोशिश, किसी धर्मस्थल का अपमान या फिर किसी समुदाय की लड़की के साथ दुर्व्यवहार या दूसरे समुदाय के लड़के या लड़की की शादी, ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो घूम-फिर कर हर सांप्रदायिक दंगे के मूल में होते हैं. मुजफ्फरनगर में भी एक समुदाय की लड़की को दूसरे समुदाय के लड़कों द्वारा छेड़ा जाना, इसके बदले में लड़कों की हत्या और इस सारे प्रकरण के दौरान पुलिस एवं प्रशासन की चौंकाने वाली निष्क्रियता ही दंगों का कारण बनी. हिन्दुत्ववादी भारतीय जनता पार्टी ने जहां हिन्दू समुदाय को भड़काया वहीं सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी ने मुस्लिम समुदाय के रक्षक के तौर पर दिखने की कोशिश की जबकि हकीकत यह थी कि उसकी सरकार ने स्थानीय प्रशासन और पुलिस को त्वरित कार्रवाई करने के निर्देश नहीं दिए. नतीजतन दंगों की आग फैलती गई और उसमें 60 से अधिक लोगों की जानें गईं और लगभग 50,000 लोग बेघर हो गए.

दरअसल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का राजनीतिक लाभ उठाने की प्रवृत्ति घोषित रूप से सांप्रदायिक पार्टियों में भी है और घोषित रूप से धर्मनिरपेक्ष पार्टियों में भी. चुनावों के ठीक पहले यह प्रवृत्ति और अधिक खुल कर सामने आती है. पिछले दशकों में पुलिस और प्रशासन पूरी तरह से सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के एजेंट की तरह काम करने लगे हैं. वे अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह करने के बजाय सरकार और सत्तारूढ़ दल के नेताओं के निर्देशों की प्रतीक्षा करते रहते हैं और यदि कोई निर्देश नहीं मिलता तो हाथ पर हाथ धरे निष्क्रिय होकर बैठे रहते हैं. अक्सर उन्हें कुछ न करने का निर्देश ही मिलता है ताकि दंगे भड़काने वाले तत्वों को खुलकर खेलने का मौका मिल जाए. 1984 की सिखविरोधी हिंसा हो या 2002 की गुजरात की मुस्लिमविरोधी हिंसा, सभी के पीछे पुलिस और प्रशासन की सक्रिय निष्क्रियता और राजनीतिक दलों की भागीदारी रही है. सांप्रदायिक हिंसा पर महत्वपूर्ण शोध करने वाले अवकाशप्राप्त वरिष्ठ पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय का कहना है कि जब तक प्रशासन न चाहे, तब तक कोई भी सांप्रदायिक दंगा चौबीस घंटे से अधिक अवधि तक जारी नहीं रह सकता.

मुजफ्फरनगर में हुई सांप्रदायिक हिंसा का सीधा-सीधा लाभ भाजपा को हुआ था. आज के राजनीतिक माहौल का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन दंगों के आरोपी भाजपा विधायक संगीत सोम चुनाव जीत कर सांसद बने और उनका पार्टी की ओर से सार्वजनिक अभिनंदन भी किया गया. यह एक शोचनीय स्थिति है कि समावेशी राजनीति की बात करने वाले राजनीतिक दल इस या उस धार्मिक समुदाय के नाम पर राजनीति करते हैं.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार