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नंदीग्राम का चेहरा बदला, पीड़ितों की किस्मत नहीं

प्रभाकर मणि तिवारी
१७ मार्च २०१७

कहा जाता है कि समय सबसे बड़ा मरहम होता है. लेकिन पश्चिम बंगाल में पूर्व मेदिनीपुर जिले में बसे नंदीग्राम के पीड़ित परिवारों के लिए यह कहावत अब तक गलत ही साबित हुई है.

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Prämierministerin Mamta Banerjee besucht das Dorf Nandigram, West Bengalen, Indien
तस्वीर: DW

कभी देश ही नहीं पूरी दुनिया में राजनीतिक तूफान पैदा करने वाली घटनाएं किस तरह बीतते समय के साथ हाशिए पर सिमट जाती हैं, नंदीग्राम इसका जीवंत सबूत है. ठीक दस साल पहले जमीन अधिग्रहण का विरोध करने वाले लोगों पर पुलिस फायरिंग में 14 लोग मारे गए थे. उस घटना ने पूरी दुनिया में सुर्खियां तो बटोरी ही थीं, पश्चिम बंगाल में जमीन अधिग्रहण का चेहरा भी बदल दिया था. इसके साथ ही वहीं से राज्य की तीन दशक से भी ज्यादा पुरानी लेफ्ट फ्रंट सरकार के पतन की नींव भी पड़ गई थी. इस घटना के खिलाफ आंदोलन करने वाली ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल कांग्रेस तो बीते छह वर्षों से सत्ता सुख भोग रही है. लेकिन जिन 14 परिवारों के लोग उस फायरिंग में मारे गए थे, उनकी हालत जस की तस है.

नंदीग्राम की घटना

नंदीग्राम में वर्ष 2007 की शुरूआत से केमिकल सेज के लिए 14 हजार एकड़ जमीन अधिग्रहण की अफवाह तेज होने लगी थी. इसके पीछे सीपीएम के ताकतवर नेता लक्ष्मण सेठ की अहम भूमिका थी. लेकिन गांव वालों ने इसका विरोध शुरू कर दिया. बाद में कुछ नक्सली गुट भी बहती गंगा में हाथ धोने के लिए मैदान में उतर गए. गांव वालों ने नंदीग्राम को बाहरी दुनिया से जोड़ने वाली एकमात्र सड़क को जहां-तहां से काट दिया था ताकि पुलिस वहां तक नहीं पहुंच सके. लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने गांव वालों के इस प्रतिरोध को तोड़ने के लिए ताकत के इस्तेमाल का फैसला किया. नतीजतन 14 मार्च, 2007 को भारी तादाद में पुलिस के जवानों ने गांव को घेर लिया और फिर मामला बिगड़ते देख कर किसी अधिकारी के कहने पर फायरिंग शुरू कर दी. इसमें 14 बेकसूर लोग मारे गए. सरकार ने तब दलील दी थी कि नक्सली लोग ही अधिग्रहण के खिलाफ हिंसक आंदोलन कर रहे हैं. इस घटना ने पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरी थीं. बाद में यही घटना सिंगुर आंदोलन के साथ मिल कर बुद्धदेव सरकार के पतन और ममता की ताजपोशी की अहम वजह बनी.

तमाम जांच और कई समितियों की रिपोर्ट के बावजूद अब तक इस मामले में किसी को सजा नहीं हो सकी है. केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) ने इस घटना की जांच के बाद जनवरी, 2014 में अपना आरोपपत्र दायर किया था. इस जांच एजेंसी ने सरकार से कई पुलिस अधिकारियों के खिलाफ  कार्रवाई की अनुमति मांगी थी. लेकिन अब तक राज्य सरकार की ओर से यह अनुमति नहीं मिली है. इस फायरिंग में जिन पुलिस अधिकारियों के नाम सामने आए थे उनको लेफ्ट फ्रंट सरकार ने भी प्रमोशन से नवाजा और उसके बाद सत्ता में आई ममता बनर्जी सरकार ने भी. इस घटना की जड़ में सीपीएम नेता लक्ष्मण सेठ पार्टी से निकाले जाने के बाद फिलहाल बेरोजगार हैं. उस दौर में पूरे इलाके में उनकी तूती बोलती थी.

Indien Nandigram Denkmal Opfer der Polizeigewalt in 2007
तस्वीर: DW/Prabhakar Mani Tewari

पीड़ितों का दर्द

बीते एक दशक में नंदीग्राम का चेहरा काफी बदल गया है. अब यहां पक्की सड़क बन गई है. उस दौर में जहां एक जर्जर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खड़ा था वहां अब सौ से ज्यादा बिस्तरों वाला एक आलीशान अस्पताल खड़ा है. नहरों पर छोटे-बड़े ब्रिज बन गए हैं और पीने के पानी की किल्लत भी दूर हो गई है. नंदीग्राम आांदोलन में अपनी भूमिका निभाने वाले तृणमूल कांग्रेस के ज्यादातर नेता विधायक व मंत्री बन चुके हैं. स्थानीय विधायक शुभेंदु अधिकारी फिलहाल परिवहन मंत्री हैं. लेकिन इन तमाम बदलावों के बावजूद 14 पीड़ित परिवारों का जीवन जस का तस है.

दस साल का समय कम नहीं होता. लेकिन इतना लंबा इंतजार भी नंदीग्राम के पीड़ितों के घावों पर मरहम नहीं लगा सका है. उनको अब भी न्याय का इंतजार है. ममता बनर्जी और उनकी पार्टी हर साल 14 मार्च को शहीद दिवस मना कर अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री मान लेती है. सरकार की ओर से मुआवजे के तौर पर मिली पांच लाख रुपये की रकम जाने कब की खत्म हो चुकी है. ऐसे ज्यादातर परिवारों के पास राशन कार्ड तक नहीं है.

अब्दुल खान (68) के एक पुत्र इमादुल की फायरिंग में मौत हो गई थी. वह सवाल करते हैं, "आखिर हम न्याय पाने के लिए और कितना इंतजार करें?" अब्दुल के दूसरे पुत्र मोइदुल को बरसों तक राजनेताओं की मिन्नतें करने के बाद होमगार्ड में नौकरी मिली है. एक अन्य मृतक भारत मंडल की मां कविता मंडल कहती हैं, "हम तो राशनकार्ड जैसी जरूरी चीजों के लिए भी मोहताज हैं. ऐसे में उस घटना के दोषियों को सजा दिलाना तो दूर की बात है." बरसों से सरकारी दफ्तर में भागदौड़ के बावजूद परिवार के 10 सदस्यों का डिजिटल राशनकार्ड नहीं बन सका है.

Prämierministerin Mamta Banerjee besucht das Dorf Nandigram, West Bengalen, Indien
तस्वीर: DW

फायरिंग में मारे गए गोविंद दास की मां अलका दास कहती हैं, "सरकार ने कुछ मुआवजा दिया और कुछ लोगों को नौकरियां दीं. लेकिन क्या मेरा बेटा कभी लौटेगा? फायरिंग का आदेश देने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई?"

पीड़ितों का कहना है कि ममता बनर्जी सरकार उनके साथ होने का दावा करती है. बावजूद इसके एक दशक बाद भी उक्त घटना के तमाम अभियुक्तों की शिनाख्त तक नहीं हो सकी है, सजा तो दूर की बात है. तृणमूल कांग्रेस के स्थानीय नेता इस मुद्दे पर बचाव की मुद्रा में हैं. आंदोलन का प्रमुख चेहरा रहे शेख सूफियान अब जिला परिषद के उपाध्यक्ष हैं. वह कहते हैं, "हमें उम्मीद है कि फायरिंग की घटना में दोषियों को शीघ्र सजा मिलेगी. सूफियान कहते हैं कि पीड़ित परिवारों में नाराजगी तो है. लेकिन सरकार ने इलाके के विकास के लिए कई परियोजनाएं लागू हैं.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि कभी बंगाल की राजनीति में मील का पत्थर साबित होने वाला नंदीग्राम आंदोलन बीतते समय के साथ हाशिए पर पहुंच गया है. इस आंदोलन के सहारे सत्ता पाने वाली राजनीतिक पार्टी को अब नंदीग्राम व इसके पीड़ितों की खास चिंता नहीं है. ऐसे में इन परिवारों की न्याय पाने की आस कब पूरी होगी, यह कहना मुश्किल है.