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समाज

निर्भया कोष की रकम खर्च करने में नाकाम हैं सरकारें

प्रभाकर मणि तिवारी
४ जुलाई २०१९

किसी पीड़ित की मदद ना कर पाने का एक सबसे बड़ा कारण अकसर धन की कमी बताया जाता है. लेकिन जब करोड़ों रुपये कोष में हों और यह ही ना पता हो कि उनका किया क्या जाए, तो इस पर कोई सरकार क्या जवाब देगी?

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Symbolbild - Ehrenmord - Pakistan
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Keystone USA Falkenberg

2012 में दिल्ली के निर्भया कांड के बाद केंद्र सरकार ने ऐसी घटनाओं पर अंकुश लगाने की दिशा में ठोस पहल करते हुए महिलाओं की सुरक्षा के लिए निर्भया कोष की स्थापना की थी. लेकिन यह एक विडबंना ही है कि देश में रेप और महिला उत्पीड़न की घटनाओं में लगातार वृद्धि के बावजूद तमाम राज्य व केंद्रशासित प्रदेश 2015 से 2018 के बीच इस मद में आवंटित रकम में से महज 20 फीसदी ही खर्च कर सके हैं.यह आंकड़ा सरकार ने लोकसभा में पेश किया है. महिला अधिकार कार्यकर्ताओं ने राज्य सरकारों की इस उदासीनता पर चिंता जताते हुए कहा है कि इससे उक्त कोष की स्थापना का मकसद ही बेमतलब साबित हो रहा है.

एक हजार करोड़ वाला निर्भया कोष

दिल्ली में 2012 में हुए निर्भया सामूहिक बलात्कार कांड ने देश के साथ-साथ विदेशों में भी काफी सुर्खिया बटोरी थीं. उसके बाद मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन केंद्र सरकार ने एक हजार करोड़ रुपये के शुरुआती आवंटन के साथ महिलाओं की सुरक्षा के प्रति समर्पित एक विशेष कोष की स्थापना का एलान किया था. उसे निर्भया कोष का नाम दिया गया था. वर्ष 2013 के बजट में इस कोष के लिए एक हजार करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे. लेकिन पैसा आवंटित होने के बावजूद सरकार इसे खर्च करने में नाकाम रही.

इस कोष के तहत आवंटित धन का महज एक प्रतिशत खर्च होने की वजह से 2015 में सरकार ने गृह मंत्रालय की जगह महिला व बाल विकास मंत्रालय को निर्भया कोष के लिए नोडल एजेंसी बना दिया. बावजूद इसके तमाम राज्य सरकारें इस रकम को खर्च करने में नाकाम रही हैं. बीते साल सुप्रीम कोर्ट ने भी इस कोष से पीड़ितों को मिलने वाले मुआवजे की दर पर चिंता जताई थी.

केंद्रीय महिला व बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी की ओर से संसद में पेश आंकड़ों में बताया गया है कि केंद्र की ओर से इस मद में जारी 854.66 करोड़ की रकम में विभिन्न राज्य और केंद्रशासित प्रदेश महज 165.48 करोड़ रुपये ही खर्च कर सके हैं. उक्त कोष में फिलहाल 3600 करोड़ की रकम है. 2013 में स्थापना के बावजूद इस कोष से धन आवंटन की प्रक्रिया 2015 से तेज हुई. इसके तहत बलात्कार और अपराध की शिकार महिलाओं को विभिन्न योजनाओं के तहत मुआवजे समेत कई तरह की सहायता का प्रावधान है.

उक्त कोष के तहत आवंटित रकम के इस्तेमाल में चंडीगढ़, मिजोरम, उत्तारखंड, आंध्र प्रदेश और नागालैंड जैसे राज्यों की स्थित बेहतर है. लेकिन इस मामले में सबसे खराब प्रदर्शन वाले पांच राज्यों में मणिपुर, महाराष्ट्र, लक्षद्वीप, पश्चिम बंगाल और दिल्ली हैं. विडंबना यह है कि बलात्कार और महिला अपराधों के मामले में बंगाल और दिल्ली के नाम शीर्ष पांच राज्यों में शुमार हैं.

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मंत्रालय के आंकड़ों में कहा गया है कि दिल्ली को उक्त कोष के तहत शुरू की गई चार योजनाओं के लिए 35 करोड़ की रकम आवंटित की गई थी. लेकिन उसने पीड़ितों को मुआवजा देने पर महज 3.41 प्रतिशत रकम ही खर्च की. महिलाओं व बच्चों के खिलाफ साइबर अपराध रोकने की योजना पर किसी भी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश ने इस कोष में से अब तक एक पाई तक नहीं खर्च की है जबकि ऐसे मामले लगातार बढ़ रहे हैं. केंद्र सरकार ने अकेले इसी योजना के लिए 2017 में 93.12 करोड़ की रकम आवंटित की थी.

इसी तरह बलात्कार, एसिड हमलों व मानव तस्करी की शिकार और सीमा पार से होने वाली फायरिंग में मरने या घायल होने वाली महिलाओं को मुआवजा देने की योजना के तहत उक्त कोष से मिली रकम का 21 राज्यों ने इस्तेमाल ही नहीं किया. ऐसी पीड़िताओं को राज्य सरकारों की ओर से मिलने वाली आर्थिक सहायता को बढ़ाने और विभिन्न राज्यों में मुआवजे की रकम में अंतर को पाटने के मकसद से केंद्र ने इस मद में 200 करोड़ की रकम जारी की थी.

रोजाना बलात्कार के 106 मामले

इसबीच देश में बलात्कार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि 2016 के दौरान रोजाना बलात्कार के 106 मामले दर्ज किए. ऐसे हर 10 में से चार मामले में पीड़ित नाबालिग थे. रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं के खिलाफ होने वाले कुल अपराधों में से 12 प्रतिशत बलात्कार से संबंधित होते हैं. एनसीआरबी ने कहा है कि 1994 से 2016 के बीच देश में छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाओं में चार गुनी वृद्धि दर्ज की गई है. ऐसे ज्यादातर मामलों में अभियुक्त उन बच्चियों के नजदीकी संबंधी ही होते हैं.

महिला संगठनों ने निर्भया कोष की रकम खर्च करने में राज्य सरकारों की उदासीनता पर सवाल उठाते हुए कहा है कि इससे उक्त कोष की स्थापना का मकसद ही बेमतलब हो गया है. एक महिला संगठन स्वयम की सदस्य स्नेहलता मंडल कहती हैं, "महिलाओं के प्रति अपराधों की रोकथाम और पीड़ितों के साथ खड़े होने के मामले में राज्य सरकारों का रिकॉर्ड पहले से ही खराब रहा है. सरकारें पहले धन की कमी का रोना रोतीं थी. लेकिन अब धन मिलने के बावजूद उसका इस्तेमाल नहीं हो रहा है.” वह कहती हैं कि दरसल सरकारों में ऐसे मामलों में प्रभावी कदम उठाने के लिए समुचित इच्छाशक्ति की भारी कमी है.

पश्चिम बंगाल महिला आयोग की पूर्व उपाध्यक्ष डोला सेन मानती हैं कि निर्भया कोष के तहत जारी योजनाओं पर रकम खर्च नहीं कर पाना राज्य सरकारों की नाकामी है. वह कहती हैं, "कई मामलों में केंद्र व राज्य सरकारों के बीच तालमेल की कमी भी इसकी एक बड़ी वजह है. इसका खामियाजा पीड़ित महिलाओं को ही उठाना पड़ता है.” मानवाधिकार कार्यकर्ता समीरन मुखर्जी कहते हैं, "उक्त कोष के जरिए लागू की जाने वाली योजनाओं पर केंद्र और राज्य में तालमेल बढ़ाना जरूरी है. इसके साथ ही केंद्र, राज्य केंद्रशासित प्रदेश और महिला अधिकार संगठनों के प्रतिनिधियों को लेकर राज्य स्तर पर एक निगरानी समिति का गठन किया जाना चाहिए जो योजनाओं की प्रगति पर निगाह रख सके.”

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