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न्याय के मंदिर पर फिर दाग

६ अगस्त २०१४

भारतीय न्यायपालिका इन दिनों विवादों के घेरे में है. जजों की नियुक्ति में गड़बड़ी के विवाद से न्यायपालिका अभी मुक्त भी नहीं हो पाई थी कि अब एक जज के चाल चलन पर भी सवाल खड़े हो गए हैं.

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तस्वीर: Fotolia/Sebastian Duda

अदालतें अगर न्याय के मंदिर हैं तो इनमें तैनात जज इस मंदिर के ऐसे निष्ठावान पुजारी होने चाहिए जिनके दामन पर दाग की कल्पना भी न की जा सके. न्यायपालिका के बारे में इस सैद्धांतिक आदर्श का एक अंश मात्र सिर्फ उच्च न्यायपालिका में देखा जा सकता है. मगर निचली अदालतों में खूबियों के अलावा व्याप्त हर खामी की हकीकत का असर अब उपर तक दिखने लगा है. खासकर केन्द्र में नई सरकार बनने के बाद जजों की नियुक्ति से शुरु हुआ विवाद अब जजों के चरित्र पर उठती उंगलियों तक जा पहुंचा है.

ताजा मामला मध्य प्रदेश हाईकोर्ट से आया है जब एक जिला जज ने हाईकोर्ट के एक जज पर उसके प्रति बदनीयती रखने और आपत्तिजनक बर्ताव करने का आरोप लगाया है. शिकायतकर्ता महिला जज ने न सिर्फ आरोप लगाया बल्कि देश के मुख्य न्यायाधीश को शिकायत भेजने से पहले अपनी नौकरी तक से इस्तीफा दे दिया. मोदी सरकार द्वारा सत्ता संभालते ही पूर्व सॉलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम को जज बनाने पर आपत्ति के साथ विवादों का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आगे बढ़ता ही जा रहा है.

विवाद दर विवाद

सुब्रमण्यम विवाद के बाद मद्रास हाईकोर्ट में एक जज की तैनाती को लेकर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मार्कण्डेय काटजू ने राजनीतिक हस्तक्षेप के आरोप लगाए. अब ताजा विवाद हाईकोर्ट के जज के चरित्र को लेकर है. हालांकि आरोप का खुलासा होने के 24 घंटे के भीतर ही आरोपी जज ने हर तरह की जांच का सामना करने और दोषी पाए जाने पर मौत की सजा तक भुगतने की बात कह कर अपनी तरफ से यथासंभव सफाई देने की कोशिश जरुर की है. मगर इस तरह की घटनाओं का भरापूरा इतिहास यह सोचने पर विवश कर देता है कि धुंआ उठा है तो कहीं न कहीं आग का थोड़ा बहुत ही सही, मगर वजूद तो है.

मौजूदा मामले में महिला जज सुप्रीम कोर्ट में 15 साल तक बतौर वकील प्रैक्टिस करने के बाद न्यायिक सेवा में चुन कर ग्वालियर में तैनात हुई थी. स्पष्ट है कि देश की सर्वोच्च अदालत में बतौर पेशेवर वकील काम करने वाले व्यक्ति की योग्यता संदेह के परे है. जिससे इस तरह का झूठा आरोप लगाने की अपेक्षा करना प्रथम दृष्टया व्यावहारिक नहीं लगता है. लेकिन न्यायिक सिद्धांत के मुताबिक संदेह का लाभ आरोप लगाने वाले से पहले आरोपी को मिलना चाहिए, जो जज महोदय को मिल रहा है. देश के मुख्य न्यायाधीश ने शिकायत की जांच शुरु कर दी है और इसके जल्द पूरा होने एवं हकीकत सामने आने तक इंतजार करना होगा.

मानसिकता का सवाल

इस तरह के प्रकरण कुछ सामाजिक सवाल भी उठाते हैं. सबसे बड़ा सवाल महिलाओं की समाज में जगह और उनकी सुरक्षा के अलावा लोगों की मानसिकता का भी है. इस प्रकरण के उजागर होते ही महिला वकीलों के अग्रणी संगठन लॉयर्स कलेक्टिव में इस बात पर चर्चा की गई कि आजादी के सात दशक बाद भी मुल्क में आखिरकार महिलाएं समाज के किसी भी स्तर पर महफूज क्यों नहीं हैं. साथ ही नामचीन वकील इंदिरा जयसिंह ने आरोपी जज पर महाभियोग चलाने और जांच पूरी होने तक जज को कोई काम नहीं देने का अनुरोध किया है.

मकसद साफ है उच्च पदों पर बैठे लोगों के साथ न्यायिक जांच की प्रक्रिया कठोर होनी चाहिए साथ ही इस कथित कुलीन तबके में सख्त संदेश भी जाए जिससे ऐसी हिमाकत बाकी लोग न करें. हालांकि न्यायपालिका के दामन पर बदचलनी के आरोप लगने का यह पहला वाकया नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के दो पूर्व जज ऐसे ही आरोपों में जांच की आंच से अभी गुजर रहे हैं. दोनों ही मामलों में जांच के मंजिल तक पहुंचने का लोगों को इंतजार है, इस अपेक्षा के साथ कि यह यथाशीघ्र पूरी हो और आम आदमी के मन में न्यायपालिका के प्रति डोलती आस्था बरकरार रहे.

इस प्रकरण से दो स्वाभाविक सवाल हर सामान्य नागरिक के मन में उठना लाजिमी है. पहला कि अगर ग्वालियर जैसे बड़े जिले की अतिरिक्त जिला जज अपने ही पेशे के वरिष्ठ लोगों के बीच सुरक्षित नहीं हैं तो समाज के निचले तबके का क्या हाल होगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. और दूसरा, हाईकोर्ट का जज अगर अपनी जूनियर जज को घर में अकेले आने और आइटम सॉन्ग पर डांस करने की जिद करे तो फिर उसे शिक्षित समझा जाए या महज साक्षर. कुल मिलाकर सवालिया निशान समाज और व्यवस्था पर उठता है. तथाकथित शिक्षित तबका भी सामंतवादी सोच से उबर नहीं पाया है.

ब्लॉग: निर्मल यादव

संपादन: महेश झा