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पर्यावरण के लिए तबाही बन सकता है बेतहाशा रेत खनन

९ अप्रैल २०२१

निर्माण कार्यों में इस्तेमाल होने वाली रेत की मांग बढ़ती ही जा रही है. लेकिन सप्लाई के लाले पड़ रहे हैं. रेतीले खाड़ी देश भी ऑस्ट्रेलिया और कनाडा से रेत मंगाने को मजबूर हैं. अंधाधुंध रेत-खनन पर्यावरण पर भारी पड़ रहा है.

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Belgien Sand- und Kiesabbau an der Grensmaas
तस्वीर: picture-alliance/blickwinkel/W. Pattyn

रेत का उपयोग हर तरफ है - घर से लेकर मोबाइल फोन तक. घरों की कंक्रीट में रेत लगती है, सड़कों के डामर में, खिड़कियों के कांच में और फोन की सिलिकॉन चिपों में भी रेत है. लेकिन आधुनिक जीवन के निर्माण की जरूरत ये रेत, विनाशकारी और बाजदफा गैरकानूनी उद्योग की धुरी भी बन जाती है. सप्लाई बहुत कम होती जा रही है और कोई नहीं जानता कि रेत मिलना कब बंद हो जाए.

मुहावरों में बेकार लेकिन वैसे बेशकीमती है रेत

रेत दुनिया में सबसे अधिक इस्तेमाल होने वाली सामग्री है लेकिन सबसे खराब रखरखाव की शिकार भी. दूसरे बहुत से उत्पादों से अलग नीति निर्माताओं के पास रेत की सालाना खपत का कोई ठोस अनुमान भी नहीं है. 2019 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की एक महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट में सीमेंट के डाटा की मदद से रेत की खपत का अंदाजा लगाया गया है क्योंकि सीमेंट में रेत और बजरी इस्तेमाल होती है और इस आधार पर सालाना 50 अरब टन रेत की अनुमानित मात्रा निकाली गई.

शोधकर्ताओं का कहना है कि यह मात्रा हर साल जिम्मेदारी से उपयोग की जाने वाली रेत से ज्यादा है, जबकि चट्टानों को कूटकर और रेत बनाई जा सकती है. कुछ इलाकों में रेत की कमी से जो लूट और झपटमारी शुरू हुई है, उसका निशाना पर्यावरण और वन्यजीव बन रहे हैं. उनकी रिहाइशें तबाह हो रही हैं. इस रिपोर्ट की सह लेखक और जेनेवा में ग्लोबल सैंड ऑब्जरवेटरी से जुडीं लुईस गालाघेर कहती हैं, "संकट कुछ ऐसा है कि हमें ठीक से इस सामग्री के बारे में पता भी नहीं है. हमें उस असर का भी अंदाजा नहीं है जहां से इसे निकाला जा रहा है. हम तो यह भी नहीं जानते हैं यह आती कहां से हैं. नदियों से कितनी रेत आती है. हमे नहीं पता है."

बेतहाशा रेत खनन का मतलब बेतहाशा बर्बादी

विशेषज्ञ यह जरूर जानते हैं कि बेतहाशा मात्रा में रेत निकाली जाती है तो इसकी कीमत लोग ही चुकाते रहेंगे और यह धरती चुकाएगी. रेत खनन से हैबिटैट बर्बाद हो जाते हैं, नदियां गंदली और तटों में दरार आ जाती हैं. इनमें से कई तट तो समुद्र के जलस्तर में बढ़ोत्तरी से पहले ही गुम होने लगे हैं. जब रेत की परतें खोदी जाती हैं तो नदी के तट अस्थिर होने लगते हैं.

प्रदूषण और पानी में अम्लता यानी एसिडिटी आ जाने से मछलियां मारी जा सकती हैं और लोगों और फसलों को पानी नहीं मिल पाता. यह समस्या तब और सघन हो जाती है, जब बांध के नीचे गाद भरने लगती हैं. रेत संकट के समाधानों पर किताब लिख चुकीं स्वतंत्र शोधकर्ता किरन परेरा का कहना है, "और भी बहुत सारे प्रभावों को नहीं देखा जाता है. रेत की कीमत दिखती है लेकिन ये असर बिल्कुल नहीं दिखते हैं."

इंटरनेशनल यूनियन फॉर द कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) में खनन उद्योगों पर शोध की अगुवाई कर रहे स्टीफन एडवर्ड्स के मुताबिक सबसे खराब यह है कि बहुत सारा असर तो तत्काल नहीं दिखता है, जिसके चलते यह जानना कठिन है कि वह असर कितना है, "यह मामला इतना अधिक चिंताजनक रूप से बढ़ रहा है कि हमें इस पर और करीब से ध्यान देने की जरूरत है."

रेत की अहमियत का अंदाजा नहीं

नेचर जर्नल में 2019 में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक, रेत खनन की वजह से गंगा नदीं में मछली खाने वाले घड़ियाल विलुप्ति की कगार पर पहुंच गए हैं - 250 से भी कम बचे हैं. इसी तरह मिकांग नदी के तटों को खनन ने इतना अस्थिर कर दिया है कि अगर वे टूट गए तो पांच लाख लोगों को अपने घरों से बेघर होना पड़ सकता है.

ब्रिटेन की न्यूकासल यूनिवर्सिटी में भूगोलवेत्ता क्रिस हैकनी कहते हैं कि खनन से होने वाले नुकसान को अनदेखा करने की एक वजह यह है कि रेत हमारे आसपास तमाम चीजों में मौजूद हैं, "दृष्य में होते हुए भी अदृश्य है." हैकनी नेचर पत्रिका में आए लेख के सह लेखक भी हैं और इस मुद्दे पर अध्ययन कर रहे हैं. वे कहते हैं, "धरती पर सबसे महत्त्वपूर्ण चीज क्या है? किसी से पूछिए तो उसमें रेत का जिक्र शायद ही आएगा."

बुर्ज खलीफा के निर्माण में  बाहर की रेत 

रेत की किल्लत की बात सुनने में सहज ज्ञान के उलट लगती है. यानी लगता है रेत तो बहुत सारी है, कमी कहां हैं? हालांकि धरती की एक तिहाई सतह रेगिस्तान के रूप में वर्गीकृत है. इसमें से ज्यादातर रेतीली है, फिर भी खाड़ी के देश जैसे सऊदी अरब, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे दूर देशों से रेत आयात कर रहे हैं. उसके पड़ोसी संयुक्त अरब अमीरात में 830 मीटर गगनचुंबी इमारत बुर्ज खलीफा के निर्माण में लगी रेत ऐसे ही दुनिया के दूसरे हिस्सों से मंगाई गई थी. इसकी वजह यह है कि रेगिस्तानी रेत निर्माण उद्योग में ज्यादा काम की नहीं है.

रेत के ढूहों पर जब हवाएं गुजरती हैं, तो वे गोलाई में रेत के कण बनाती जाती हैं. इन गोलाकार गेंदों में कम पकड़ होती है, जबकि नदी तल, तटों, किनारों और समुद्र तल पर मिलने वाली नुकीली दानेदार रेत में कंक्रीट को ताकतवर बनाने वाली रगड़ होती है.

किरन परेरा कहती हैं, "मैं बैंगलुरु में पली बढ़ी थी. रिपोर्टे पढ़ती थी कि कैसे रेत खनन की वजह से नदियां खत्म हो गईं." वे बताती हैं कि उनकी शुरुआती यादों में यह भी है कि कैसे उन्हें रात को दो बजे ही उठना पड़ता था सार्वजनिक नल से पानी भर कर लाने के लिए जहां भीड़ लग जाती थी, "निर्माण स्थलों को जाते रेत से भरे सैकड़ों ट्रकों का गुजरना भी मुझे याद है, जिनसे रेत उड़ती हुई सड़क पर गिरती रहती थी. वो निर्माण स्थलों के लिए जाते थे."

रेत के महल

कृत्रिमता के लिए कुदरती रेत का दोहन

ज्यादातर मांग चीन से आती है जिसने 2011 से 2014 के दरमियान सबसे ज्यादा सीमेंट बनाया. इतना सीमेंट पिछली एक सदी में अमेरिका में भी नहीं बना. चीन के बाद दूसरे नंबर का सीमेंट उत्पादक देश है भारत और माना जाता है कि 2027 तक सीमेंट उत्पादन में वह चीन को भी पीछे छोड़ देगा.

एशिया और अफ्रीका में लोग शहरों का रुख कर रहे हैं और सदी के मध्य तक विश्व आबादी 10 अरब हो जाने वाली है. ऐसे में रेत की मांग बढ़ती ही चली जाएगी और यह सिर्फ कंक्रीट बनाने के लिए नहीं. कुदरती बैरियर बनाने और धंसाव और जलवायु परिवर्तन से सुरक्षा के लिए 2011 में नीदरलैंड्स से समुद्र से 2 करोड़ घन मीटर रेत निकाली गई थी.

पिछली आधा सदी में सिंगापुर ने कृत्रिम द्वीपों का निर्माण किया है. इससे उसका लैंड मास एक चौथाई बढ़ गया है और इसके लिए रेत कंबोडिया, वियतनाम, इंडोनेशिया और मलेशिया से मंगाई गई है. दुबई का कृत्रिम पाम आईलैंड जो अंतरिक्ष से भी दिखता है, उसके निर्माण में लगी रेत फारस की खाड़ी के तल से निकाली गई है.

और एक मानवीय कीमत

रेत के खनन और दोहन की एक मानवीय कीमत भी है. रेत की कीमतें बढ़ी हैं, दक्षिण अफ्रीका से लेकर मेक्सिको तक - इन देशों की पुलिस जांच में खनन करने वालों के हाथों मारे गए लोगों की रिपोर्टें आती रहती हैं. भारत में स्थिति और भी खराब है, जहां दुनिया का सबसे खतरनाक रेत माफिया सक्रिय है. अपराधी गैंगों ने पत्रकारों को जिंदा जलाया है, एक्टिविस्टों के टुकड़े टुकड़े किए हैं और पुलिस वालों पर ट्रक चढ़ाए हैं.

दिल्ली स्थित साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स ऐंड पीपल की पिछले साल की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि अवैध रेत खनन से भारत में पिछले दो साल के दौरान 193 लोग मारे गए हैं. मौत की प्रमुख वजहों में काम के खराब हालात, हिंसा और हादसे थे. कुछ खनन मजदूर सुरक्षा पोशाक के बिना दिन में सैकडों बार नदी तल पर उतरते हैं. भारत से लेकर युगांडा तक बाल श्रम की रिपोर्टें आती हैं. फिर भी खनन उद्योग को जवाबदेह माना ही नहीं जाता.

फरवरी में दिल्ली की एक विशेष अदालत ने तटीय रेत की दिग्गज कंपनी वीवी मिनरल्स के प्रमुख और पर्यावरण मंत्रालय में एक पूर्व निदेशक को रिश्वतखोरी के आरोप में जेल की सजा सुनाई थी. दशकों से चली आ रहे अवैध रेत खनन से साफ इंकार करते हुए खनन के दिग्गज एक अधिकारी के बेटे की यूनिवर्सिटी की ट्युशन फीस भरते हुए पकड़े गए थे. कथित तौर पर यह रिश्वत एक पर्यावरणीय क्लियरंस के लिए दी जा रही थी. एक स्थानीय समाचार माध्यम में इस मामले की तुलना कुख्यात अमेरिकी सरगना अल कपोने से की गई थी, जिसे टैक्स में हेराफेरी के आरपार में जेल हुई थी.

रेत संकट और पर्यावरण की चिंता

रेत संकट के हल के लिए विशेषज्ञों का कहना है कि विश्व नेताओं को उद्योग को बेहतर ढंग से रेगुलेट करना चाहिए, भ्रष्टाचार के खिलाफ कानूनों पर सख्ती से अमल करना चाहिए और पूरी दुनिया में रेत के उत्पादन पर भी नजर रखनी चाहिए. रेत की मांग में कटौती भी लाई जा सकती है. कंक्रीट के और विकल्प तलाशे जाएं और लकड़ी जैसी सामग्रियों से और बेहतर और कुशल निर्माण की ओर ध्यान देने की जरूरत है. जैसे, ढहाई गई इमारतों का मलबा भी सड़कों को जोड़ने में किया जा सकता है.

कुछ शोधकर्ता उन तरीकों की छानबीन कर रहे हैं जिनके जरिए दुनिया में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रेगिस्तानी रेत को निर्माण के लिए उपयुक्त बनाया जा सके. वित्तीय रूप से भी उसकी उपयोगिता देखी जानी जरूरी है. किरन परेरा का कहना है, "निर्माण की हमारी योग्यता रेत पर हमारी जरूरत पर निर्भर नहीं है. हम इन दोनों को अलग अलग रखते हुए भी निर्माण कर सकते हैं और इकोसिस्टम को बर्बाद किए बिना मनुष्य समृद्धि का रास्ता खुला रख सकते हैं."

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