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पवित्रता के नाम पर पाखंड झेलने की मजबूरी

निर्मल यादव१० मई २०१५

भारत में शादी को संस्कार से जोड़कर पवित्र बंधन मानते हुए कानून भी महिलाओं को वैवाहिक बलात्कार के दंश से उबारने में विवश है. शादी की पवित्रता के पाखंड को बनाए रखने को संसद मौन है, मगर समाज तथ्यों की बानगी मुखर हो गया है.

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Symbolbild - Proteste gegen Vergewaltigungen in Indien
तस्वीर: Getty Images/N. Seelam

समाज की मुखरता और संसद के मौन की हकीकत को जानने के लिए महज दो तथ्य बताना ही काफी है. संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत में 75 फीसदी विवाहित महिलाएं वैवाहिक बलात्कार की शिकार हैं. दूसरा तथ्य कानून की मौजूदा स्थिति को उजागर करते हुए कहता है कि भारतीय कानून में शादी को संस्कार मानते हुए पवित्र बंधन का दर्जा दिया गया है, इसलिए पति को पत्नी का दैहिक शोषण करने का दोषी नहीं ठहराया जा सकता है. इतना ही नहीं पति और परिवार के जुल्मों से महिलाओं को बचाने के लिए लागू किए गए घरेलू हिंसा कानून में भी पत्नी अपने ही पति द्वारा किए जा रहे यौन शोषण के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकती है.

संसद मौन समाज मुखर

तथ्य एवं परिस्थितियों के आधार पर हालात गंभीर हैं. स्पष्ट है कि वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के लिए समाज तो दिल दिमाग से तैयार है लेकिन संसद नहीं. निर्भया कांड के बाद गठित जस्टिस जेएस वर्मा समिति ने भी महिलाओं को समाज से लेकर परिवार तक यौन हिंसा की परिधि में बताया था. इस आधार पर वर्मा समिति ने भी वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने की सिफारिश की थी, जिसे सरकार मानने को राजी नहीं है. इसमें सरकार की सबसे मजबूत दलील सुप्रीम कोर्ट की इस मामले में रजामंदी न होना है.

सुप्रीम कोर्ट का रुख

गत फरवरी में सुप्रीम कोर्ट में एक महिला ने अपने पति के खिलाफ वैवाहिक बलात्कार का मामला दर्ज कराने की अनुमति मांगी. सर्वोच्च अदालत ने कानून में इसका कोई प्रावधान न होने का हवाला देते हुए अपील खारिज कर दी. साथ ही याचिका में सरकार की कानून में बदलाव करने की मांग को भी अदालत ने खारिज कर बेतुकी दलील दी, कि महज एक व्यक्ति की मांग पर कानून नहीं बदला करते. अदालत ने इस मामले में मुखर होने वाली सिर्फ एक महिला को मद्देनजर रखा लेकिन 75 फीसदी विवाहिताओं के दंश को नजरअंदाज कर दिया.

विरोधी पक्ष की दलील

वैवाहिक बलात्कार को नकारने वाले कानूनविदों का मानना है कि भारत की विशिष्ट सामाजिक परिस्थितियां ऐसा करने की मंजूरी नहीं देती हैं. पूर्व जज जस्टिस एसएन धींगरा और आरएस सोढ़ी का मानना है कि वैवाहिक बलात्कार को कानूनी जामा पहनाने पर परिवार टूट जाएंगे. उनकी दलील है कि भारत में विवाह को पवित्र बंधन मानने की पारंपरिक सोच परिवार के स्थायित्व का मूल आधार है. साथ ही दहेज कानून से लेकर यौन हिंसा से जुड़े अन्य प्रावधानों के अब तक के दुरुपयोग के कड़वे अनुभवों को देखते हुए वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करना खतरनाक साबित होगा. धींगरा का मानना है कि इससे न सिर्फ परिवार टूटेंगे बल्कि झूठे मामलों की अदालतों में बाढ़ आने के अलावा सबसे व्यवहारिक दिक्कत वैवाहिक बलात्कार को साबित करना होगा.

अनुत्तरित सवाल

कानूनविदों की इन दलीलों की हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता है. लेकिन इन दलीलों के साए में कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका इनके पास कोई जवाब नहीं है. मसलन क्या शादी को पवित्र बंधन मानकर 75 फीसदी विवाहित महिलाओं को हिंसा के हवाले छोड़ना न्याय के नैसर्गिक सिद्धांत के अनुरुप है? क्या दो तिहाई विवाहित महिलाओं की कीमत पर परिवार बचाना कानून की नजर में तर्कसंगत है? जहां तक झूठे मामलों की बाढ़ का संकट है तो क्या चोरी से लेकर हर अपराध में झूठे मामले नहीं आते हैं? किसी भी मामले का झूठ और सच उजागर करना ही अदालत का मूल काम है. ऐसे में क्या यह नहीं माना जाए कि न्यायपालिका वैवाहिक बलात्कार के नाम पर अपने मूल दायित्व से ही बचना चाहती है. आखिर में अपराध को साबित करने की दलील का सच हम अमेरिका से लेकर दक्षिण अफ्रीका तक उन 52 देशों से क्यों नहीं सीखना चाहते है, जहां वैवाहिक बलात्कार को अपराध की दहलीज पर ला खड़ा किया गया है? अंतिम सवाल, सदियों की वर्जनाएं तोड़कर अगर महिलाएं मुखर हो रही हैं तो सर्वोच्च अदालत और संसद मौन क्यों है? आखिर व्यवस्था के स्तंभ अपनी जिम्मेदारी से कब तक बचते रहेंगे? यह सोचने के लिए समय मौजूं है कि आखिर चुप्पी कब टूटेगी?

ब्लॉग: निर्मल यादव