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पहली बार पहेली बनी देश की सबसे सुरक्षित सीट

प्रभाकर मणि तिवारी
१६ अप्रैल २०१९

बीते तीन दशकों से लगभग हर चुनाव में देश की जिस संसदीय सीट का नतीजा मतदान से पहले ही राजनीति का ककहरा नहीं जानने वाला भी कोई बता सकता था वह इस बार राजनीतिक पंडितों के लिए भी बड़ी पहेली बन गई है.

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Indien Wahlkampf in Gorkhaland Region
तस्वीर: DW/P.M. Tewari

यह है पश्चिम बंगाल के अकेले पर्वतीय पर्यटन केंद्र दार्जिलिंग की संसदीय सीट. बीते दो साल में पर्वतीय इलाके के बदलते राजनीतिक समीकरणों की वजह से अबकी बीजेपी के सामने जहां पिछली बार जीती इस सीट को बचाने की कड़ी चुनौती है वहीं तृणमूल कांग्रेस भी पहली बार यहां जीत के लिए जूझ रही है.  अप्रैल के महीने में जहां देश के दूसरे हिस्से तपने लगे हैं वहीं दार्जिलिंग का गुलाबी सर्दी वाला सुहाना मौसम भारी तादाद में सैलानियों को लुभा रहा है. हालांकि इस ठंडे मौसम में भी चुनावी सरगर्मी के चलते इलाके में राजनीतिक माहौल लगातार लगातार गरमा रहा है.

Indien Wahlkampf in Gorkhaland Region
तस्वीर: DW/P.M. Tewari

इस सीट पर कब्जा बनाए रखने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह इलाके में चुनावी रैलियां कर चुके हैं. दूसरी ओर, ममता ने भी इलाके में तीन-तीन रैलियां की हैं. इस बार हालांकि कांग्रेस और सीपीएम भी हमेशा की तरह मैदान में हैं लेकिन असली लड़ाई तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी के बीच ही है. अपनी जीत के दावे तो तमाम दावेदार कर रहे हैं लेकिन उनको खुद अपने दावों पर ही भरोसा नहीं है. इसकी वजह है इलाके में राजनीतिक समीकरणों में आने वाला बदलाव. बीते पांच साल में इलाके में बहुत कुछ बदल गया है. पहले इस इलाके पर एकछत्र राज करने वाला गोरखा जनमुक्ति मोर्चा अब दो गुटों में बंट चुका है. बीते तीन दशकों से यहां लगभग हर चुनाव अलग गोरखालैंड के मुद्दे पर ही लड़ा जाता रहा लेकिन अब यह मुद्दा सिरे से गायब है. इस बार तो हर राजनीतिक दल विकास के लंबे-चौड़े दावों के साथ मैदान में हैं.

अब इन पहाड़ियों की दीवारों पर ना तो गोरखालैंड के समर्थन में नारे लिखे नजर आते हैं और ना ही सैकड़ों रैलियों के गवाह रहे शहर के प्रमुख इलाके चौकबाजार में कोई पोस्टर या बैनर नजर आता है. चौकबाजार में मोमो की दुकान चलाने वाले 72 साल के नोरबू लामा कहते हैं, "यह पहली बार है कि जब किसी की जुबान पर गोरखालैंड शब्द नहीं है. हर पार्टी का उम्मीदवार विकास के नाम पर ही वोट मांग रहा है.”

Indien Wahlkampf in Gorkhaland Region
तस्वीर: DW/P.M. Tewari

दरअसल, दो साल पहले गोरखालैंड की मांग में आंदोलन के दौरान इन पहाड़ियों में बड़े पैमाने पर हुई हिंसा व आगजनी ने तमाम समीकरण को उलट-पुलट दिया है. उस दौरान 104 दिनों तक चली हड़ताल और राज्य सरकार की ओर से विभिन्न धाराओं में कई मामले दर्ज होने के बाद गिरफ्तारी के डर से गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष विमल गुरुंग भूमिगत हैं.

मोर्चा के एक अन्य नेता विनय तामंग ने अब पार्टी के एक बड़े गुट की कमान संभाल ली है और वह ममता बनर्जी के साथ हैं. अस्सी के दशक में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएप) के प्रमुख सुभाष घीसिंग के दौर से ही पर्वतीय इलाके में मतदान की हवा जस की तस रही है. यहां सत्तारुढ़ दल जिसका समर्थन करता है, जीत का सेहरा उसके माथे ही बंधता रहा है. इंद्रजीत खुल्लर से लेकर सीपीएम के आर.बी.राई और कांग्रेस के दावा नरबुला हों या फिर बीजेपी के जसवंत सिंह या फिर एस.एस.आहलूवालिया, तमाम लोग इसी फार्मूले से जीतते रहे हैं. बीते लोकसभा चुनावों में आहलूवालिया ने गोरखा मोर्चा के समर्थन से तृणमूल उम्मीदवार बाइचुंग भूटिया को लगभग दो लाख वोटों के अंतर से हराया था.

आहलूवालिया के प्रति आम लोगों की नाराजगी को ध्यान में रखते हुए बीजेपी ने अबकी राजू सिंह बिष्ट नाम के मणिपुर के एक कारोबारी को मैदान में उतारा है जबकि तृणमूल कांग्रेस ने गोरखा मोर्चा के विधायक अमर सिंह राई को अपना उम्मीदवार बनाया है. उनके अलावा कांग्रेस की ओर से शंकर मालाकर और सीपीएम के पूर्व सांसद सुमन पाठक भी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं. मोर्चा के गुरुंग गुट के अलावा जीएनएलएफ ने भी बीजेपी को समर्थन देने का एलान किया है.

Indien Wahlkampf in Gorkhaland Region
तस्वीर: DW/P.M. Tewari

यह पहला मौका है जब राजनीतिक दिग्गज भी इलाके में चुनावी बयार का सटीक अनुमान नहीं लगा पा रहे हैं. मोर्चा अध्यक्ष रहे विमल गुरुंग भले भूमिगत हों, वह अपने वीडियो संदेशों के जरिए लोगों से तृणमूल कांग्रेस और मोर्चा के तामंग गुट को हराने की अपील कर रहे हैं. दूसरी ओर, ममता के समर्थन से गोरखालैंड टेरीटोरियल एडिमिस्ट्रेशन (जीटीए) का अध्यक्ष बनने के बाद विनय तमांग ने इलाके में कई विकास योजनाएं शुरू की हैं. सड़कों के अलावा पेय जल की सप्लाई का काम बी शुरू किया गया है. बीते पांच साल में ममता बनर्जी खुद दर्जनों बार पहाड़ियों का दौरा कर चुकी हैं. उन्होंने कालिम्पोंग को अलग जिला बना दिया है. यही वजह है कि वह विकास की गति तेज करने के नाम पर वोट मांग रही हैं.

तृणमूल कांग्रेस नेता और राज्य के पर्यटन मंत्री गौतम देब कहते हैं, "सरकार ने इलाके में शांति बहाल की है. विकास की कई योजनाएं शुरू हो रही हैं और सैलानियों की आवक लगातार बढ़ रही है.” इस पर्वतीय इलाके की अर्थव्यवस्था अंग्रेजी के तीन टी पर निर्भर है. वह है टी यानी चाय, टिंबर यानी लकड़ी और टूरिज्म यानी पर्यटन.

तृणमूल उम्मीदवार अमर सिंह राई कहते हैं, "अबकी गोरखालैंड नहीं बल्कि विकास ही यहां सबसे बड़ा मुद्दा है. इलाके में बीते एक दशक से भाजपा सांसद होने के बावजूद विकास का कोई काम ही नहीं हुआ है.” दूसरी ओर, बीजेपी उम्मीदवार राजू सिंह बिष्ट भी विकास के जरिए दार्जिलिंग की समस्या के स्थायी राजनीतिक समाधान के वादे पर वोट मांग रहे हैं. पार्टी के घोषणापत्र में गोरखा तबके की 11 जनजातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का वादा किया गया है. लेकिन मोर्चा नेता विनय तमांग कहते हैं, "विकास के नाम पर होने वाले चुनाव में अबकी बीजेपी की पराजय निश्चित है. लोग उसके वादों की हकीकत जान चुके हैं.” दूसरी ओर, विमल गुरुंग गुट का दावा है कि अबकी चुनावी नतीजे से साफ हो जाएगा कि पहाड़ियों में किसकी बादशाहत है. यहां अब भी गुरुंग ही शीर्ष नेता हैं. गोरखा नेता विमल गुरुंग 2017 में हुए हिंसक आंदोलन के बाद से ही भूमिगत हैं.

बीजेपी के प्रदेश उपाध्यक्ष चंद्र कुमार बोस कहते हैं, "दार्जिलिंग हमारे लिए एक सुरक्षित सीट रही है. लेकिन बहदले राजनीतिक समीकरणों के चलते इस बार ऐसा नहीं है. अबकी इस सीट पर कड़े मुकाबले में बाजी किसके हाथ लगेगी, इसका पूर्वानुमान लगाना बहुत मुश्किल है.” राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि इस सीट की नतीजा इस बात पर निर्भर है कि इलाके के लोग अब भी विमल गुरुंग को पहाड़ियों का बादशाह मानते हैं या फिर उनकी जगह अब मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और गोरखा नेता विनय तमांग का जादू सिर चढ़ कर बोलेगा. 

 

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