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पहले भी लगे हैं पत्रकारों के उत्पीड़न के आरोप

३० अक्टूबर २०१७

छत्तीसगढ़ के एक मंत्री की कथित सेक्स सीडी के मामले में एक वरिष्ठ पत्रकार विनोद वर्मा की गिरफ्तारी ने राज्य में राजनीति और पत्रकारिता के घालमेल को एक बार फिर उजागर कर दिया है.

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Indien Protest gegen Morde an Journalisten
तस्वीर: Getty Images/AFP/I. Mukherjee

अब भी इस मामले के कई पहलुओं का खुलासा होना बाकी है. वैसे, छत्तीसगढ़ में पत्रकारों के दमन का इतिहास पुराना है. इस मामले में खासकर रमन सिंह सरकार के दामन पर कई दाग हैं. पहले भी कई पत्रकारों को इसी तरह फर्जी मामलों में फंसा कर और उन पर माओवादियों की सहायता करने का आरोप लगाया जा चुका है.

ताजा मामला

छत्तीसगढ़ में पत्रकार की गिरफ्तारी का ताजा मामला बीबीसी और अमर उजाला समेत कई अखबारों में काम कर चुके और एडिटर्स गिल्ड के सदस्य विनोद वर्मा का है. एक मंत्री की कथित सेक्स सीडी रखने के मामले में छत्तीसगढ़ पुलिस ने जिस तरह की सक्रियता दिखाई वह कम से कम दूसरे मामलों में तो नजर नहीं आती. पुलिस में दर्ज प्राथमिकी में नाम नहीं होने और कोई गंभीर आरोप नहीं होने के बावजूद पुलिस की एक टीम ने हवाई जहाज से दिल्ली होते हुए गाजियाबाद जाकर जिस तरह आधी रात को उत्तर प्रदेश स्थित वर्मा के आवास से उनको गिरफ्तार किया वह सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का उल्लंघन तो है ही, कई सवाल भी खड़े करती है.सुप्रीम कोर्ट ने आतंक व देशद्रोह का आरोप नहीं होने की स्थिति में रात को किसी भी व्यक्ति की गिरफ्तारी पर रोक लगाई है. बावजूद इसके महज ब्लैकमेल के कथित आरोप में विनोद वर्मा को गिरफ्तार कर ट्रांजिट रिमांड पर रायपुर ले जाया गया. अदालत ने फिलहाल उनको तीन दिनों की पुलिस हिरासत में भेजा है. वर्मा ने दावा किया है कि उनको राजनीतिक रंजिश की वजह से फंसाया गया है.

दरअसल, इस मामले का एक सियासी पेंच भी है. विनोद वर्मा छत्तीसगढ़ कांग्रेस के अध्यक्ष भूपेश बघेल के रिश्तेदार हैं. यह भी कहा जा रहा है कि वह वहां कांग्रेस की आईटी सेल का कामकाज देखते थे. इस मामले में पुलिस ने आईटी एक्ट के तहत बघेल के तहत भी मामला दर्ज किया है. लेकिन उनको गिरफ्तार नहीं किया गया है. रायपुर में अदालत के सामने वर्मा को ले जा रही कार पर बीजेपी समर्थकों ने हमले भी किए हैं. इससे साफ है कि मामला महज एक पत्रकार की गिरफ्तारी भर का नहीं है. इस कथित सेक्स सीडी में जिस मंत्री राजेश मूणत को दिखाया गया है उन्होंने इसके फर्जी होने का दावा किया है. सरकार ने इस मामले की जांच सीबीआई से कराने की अनुशंसा की है. लेकिन फिलहाल इस मामले में अभी कई रहस्यों के सामने आने का अंदेशा है.

पहले भी होता रहा है उत्पीड़न

छत्तीसगढ़ में काम करने वाले पत्रकारों का उत्पीड़न कोई नया नहीं है. पहले भी पुलिस राजनीतिक नेताओं के इशारे पर समय-समय पर पत्रकारों से हिसाब चुकता करती रही है. पत्रकार ही नहीं, मानवाधिकार कार्यकर्ता से लेकर वकील तक उसकी वक्र दृष्टि से नहीं बच सके हैं. पत्रकारों के उत्पीड़न के मामले में बस्तर के आईजी रहे एसआरपी कल्लूरी ने तो अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पर कुख्याति बटोरी थी. अब भी कम से कम आधा दर्जन पत्रकार माओवादियों की सहायता करने के आरोप में राज्य की विभिन्न जेलों में बंद हैं. कइयों को तो राज्य छोड़ने पर भी मजबूर किया जा चुका है.

बीते साल कई पत्रकारों की गिरफ्तारी के बाद एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने एक जांच टीम को छत्तीसगढ़ भेजा था. उसने अपनी रिपोर्ट में राज्य में काम करने वाले पत्रकारों की हालत पर गहरी चिंता जताई थी. उस रिपोर्ट में कहा गया था कि छत्तीसगढ़ में पत्रकारों को माओवादियों और सुरक्षाबलों के बीच संतुलन बनाते हुए काम करना पड़ता है. लेकिन दोनों में कोई भी पक्ष पत्रकारों पर भरोसा नहीं करते. नतीजतन पत्रकार चक्की के दो पाटों की बीच पिसने पर मजबूर हैं. पुलिस अक्सर पत्रकारों पर माओवादियों की सहायता करने के आरोप लगाती रही है. जांच टीम ने कहा था कि राज्य सरकार व पुलिस माओवादियों के खिलाफ जारी लड़ाई में मीडिया का खुला समर्थन चाहती है. वह चाहती है कि मीडिया में इस लड़ाई और समय-समय पर होने वाली मुठभेड़ों पर कोई सवाल नहीं खड़ा हो.

एडिटर्स गिल्ड की इस रिपोर्ट के बाद मुख्यमंत्री रमन सिंह ने कहा था कि उनकी सरकार मीडिया की आजादी के लिए कृतसंकल्प है. बावजूद इसके बीते कोई डेढ़ साल में उनकी कथनी और करनी में कोई समानता देखने को नहीं मिली है. पत्रकारों का उत्पीड़न जस का तस है. सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2011 में ही छत्तीसगढ़ सरकार की इस सोच पर हैरत जताई थी कि राज्य में अमानवीय हालातों पर कलम चलाने या बोलने वाला हर व्यक्ति या तो माओवादी है या फिर उनका समर्थक.

छत्तीसगढ़ में लंबे अरसे तक काम करने वाले पत्रकार दिलीप बनर्जी बताते हैं, "वहां शाब्दिक अर्थों में जान हथेली पर लेकर काम करना पड़ता है. पता नहीं कब कौन सी रिपोर्ट पुलिस, सरकार या माओवादियों को बुरी लग जाए." बनर्जी बताते हैं कि कई ऐसी घटनाएं भी हैं जो बाहर नहीं आ पातीं. इनमें माओवादियों के समर्थन या पुलिसिया अत्याचार के मुद्दे पर लिखने वाले पत्रकारों को धमकाने जैसे अनगिनत मामले शामिल हैं.

अब विनोद वर्मा ने भले कहा है कि पूरे मामले की जांच से दूध का दूध और पानी का पानी साफ हो जाएगा. लेकिन राज्य सरकार और पुलिस के ट्रैक रिकार्ड को ध्यान में रखते हुए राजनीतिक विश्लेषकों या मीडिया के लोगों को इस मामले की निष्पक्ष जांच की उम्मीद कम ही है. इस मामले में ऊंट किस करवट बैठेगा, इसका पता तो जांच के बाद ही चलेगा. लेकिन इस घटना ने रमन सिंह सरकार के दामन पर लगे दागों को और गहरा तो कर ही दिया है.

रिपोर्टः प्रभाकर