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पानी के फिल्टर के लिए नया टी-बैग

२० नवम्बर २०१०

सारे विश्व में एक अरब से अधिक लोगों को पीने का स्वच्छ पानी नहीं मिल रहा है. इसकी वजह से अनेक बीमारियां होती हैं, जिन्हें आसानी से टाला जा सकता था. लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध कराने के प्रयास तेज हो गए हैं.

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तस्वीर: DW-TV

अब दक्षिण अफ्रीका के स्टेलेनबोश विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने एक फिल्टर ईजाद किया है, जिसकी मदद से कम खर्च में पानी साफ किया जा सकता है, साथ ही वह इतना छोटा है कि उसे आसानी से कहीं भी पहुंचाया जा सकता है. कहा जा सकता है कि यह एक टी-बैग की तरह है. जल्द ही औद्योगिक स्तर पर इसका उत्पादन शुरू होने वाला है.

उससे पहले विश्वविद्यालय के माइक्रोबायलॉजी विभाग की मारेलिजे बोथा आखिरी परीक्षणों में जुटी हुई हैं. वे कहती है, "यह फिल्टर एक सस्ता नुस्खा है. बोतलों का पानी या दूसरे फिल्टर कहीं अधिक महंगे हैं. आसानी से इसका इस्तेमाल किया जा सकता है और दूरदराज के इलाकों में इसे भेजा जा सकता है. सबसे बड़ी बात है कि यह सिर्फ गंदे पानी के बैक्टीरिया को दूर ही नहीं करता है, बल्कि उन्हें धीरे-धीरे मार भी डालता है. इस प्रकार वे पर्यावरण में रह नहीं जाते."

संयुक्त राष्ट्र सहित अनेक राहत संगठनों ने इस नए फिल्टर में दिलचस्पी दिखाई है. अचरज की कोई बात नहीं, क्योंकि अकेले अफ्रीकी महाद्वीप में लगभग 30 करोड़ लोगों को पीने का स्वच्छ पानी नहीं मिल रहा है. यह एक संयोग ही था कि प्रोफेसर युजेन क्लोएटे और उनकी टीम के मन में ऐसा एक फिल्टर बनाने का विचार आया. वे कहते हैं, "शुरू में हम इस दिशा में शोध नहीं कर रहे थे. दरअसल हमारा इरादा था औद्योगिक संयंत्रों के लिए फिल्टर बनाना. लेकिन प्रयोगशाला में तो छोटे दायरे में काम किया जाता है. थोड़े से पानी के साथ किए गए प्रयोगों के नतीजे जब मुझे दिखे, तो मैं सोचने लगा कि एक छोटा फिल्टर भी बनाया जा सकता है."

और इस प्रकार तथाकथित टी-बैग का विचार आया. इस बैग में चाय के बदले कोयले के चूरे भरे जाते हैं, जो पानी से दूषित पदार्थों को अलग करते हैं. नई बात यह है कि फिल्टर के कागज में बदलाव लाए गए हैं. उनमें नानो फाइबर वाले बायोसाइड लगाए जाते हैं, जो बैक्टीरिया को मार भी डालता है. इस फिल्टर को एक एडेप्टर में डाला जाता है, जिसे लगभग सभी बोतलों में लगाया जा सकता है.

प्रोफेसर युजेन क्लोएटे इसके बारे में कहते हैं, "हम यहां सबसे गरीब लोगों की मदद के लिए नैनो टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर रहे हैं. हम उनकी जिंदगी बदल देंगे. सोचिए जरा, इन लोगों की जिंदगी में कैसी उम्मीद लाई जा सकती है. उनके बच्चों को पेचिश नहीं होगी, क्योंकि उन्हें गंदा पानी नहीं पीना पड़ेगा."

केपटाउन के नजदीक स्टेलेनबोश विश्वविद्यालय को प्रोफेसर क्लोएटे और उनकी टीम की इस नई खोज पर फख्र है. कभी वर्णभेदी प्रणाली का गढ़ समझे जाने वाले इस विश्वविद्यालय में अतीत के काले अध्याय पर गौर किया गया है और आज वह आम जनता की भलाई के लिए शोध पर जोर दे रहा है.

इस परियोजना के साथ जुड़े डेसमंड थॉमस का कहना है कि यह फिल्टर इस नए रुख की एक मिसाल है. उनका कहना है, "स्टेलेनबोश या दक्षिण अफ्रीका के दूसरे विश्वविद्यालयों जैसे संस्थान वर्णभेद की अन्यायी प्रणाली के हिस्से भी थे. हमने इस सवाल से दो-चार होने का फैसला लिया और अतीत की गलतियों को सुधारने का बीड़ा उठाया."

आनेवाले वर्षों के लिए विश्वविद्यालय का नारा है साइंस फॉर सोसाइटी, समाज की खातिर विज्ञान. इसकी खातिर एक परियोजना चल रही है, जिसे होप, यानी उम्मीद का महत्वाकांक्षी नाम दिया गया है. इसी परियोजना के तहत फिल्टर टी-बैग ईजाद किया गया है, जिसके अंतिम दौर के परीक्षण चल रहे हैं.

अगले साल से राहत संगठनों की ओर से इसे जरूरतमंद लोगों के बीच बांटा जाएगा. प्रोफेसर क्लोएटे खुश हैं. वे कहते हैं, "कितनी सनसनीखेज बात है. एक वैज्ञानिक के तौर पर मेरे लिए आज यह मुमकिन है कि दुनिया के बहुतेरे लोगों की भलाई के लिए मैं अपनी जानकारी, अपनी सर्जनात्मकता और अपनी तकनीकी संभावनाओं का इस्तेमाल कर सकता हूं."

रिपोर्ट: योएर्ग पॉप्पेनडी/उभ

संपादन: महेश झा

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