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पृथ्वी से परे सभ्यता की खोज

२५ अप्रैल २०१०

इस ब्रह्मांड में हम अकेले नहीं हैं तो वे सभ्यताएं कहां हैं, जो हमारी जैसी या शायद उससे भी बेहतर हैं? उड़न तश्तरियां कहां से आती हैं? वे कल्पनाएं नहीं हैं तो उन्हें चलाने वाले हमारे रेडियो संकेतों का जवाब क्यों नहीं देते.

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कहां है वो दुनियातस्वीर: AP

अमेरिका के प्रोफ़ेसर फ़्रैंक ड्रेक को भी यही प्रश्न कुरेदा करते थे. आज से पचास साल पहले, 1960 में, जब वे तीस साल के भी नहीं थे, तब उन्होंने एक रेडियो टेलिस्कोप की मदद से पहली बार पृथ्वी से परे इतरलोकीय सभ्यता की आहट लेनी चाही. सोचा, उन्हें कुछ इस तरह की आवाज़ें सुनाई पड़ेंगी. वह बताते हैं, "मेरे पहले प्रयोग का नाम था प्रॉजेकट आज़मा. हमने दो महीनों तक सूर्य जैसे दो तारों की दिशा में रेडियो संकेतों की खोज की. लेकिन हमें कुछ नहीं मिला."

कोई सुराग नहीं

फ्रैंक ड्रेक को आज तक ऐसा कुछ नहीं मिला है, जिसके बारे में भरोसे के साथ कहा जा सकता कि वह किसी दूसरी दुनिया के सभ्य लोगों की पैदा की हुई रेडियो तरंग है. रेडियो तरंगें तो ढेरों मिलती हैं, लेकिन वे आकाशीय पिंडों द्वारा स्वयं पैदा की हुई प्राकृतिक तरंगें होती हैं. तब भी, फ्रैंक ड्रेक की जिज्ञासा और लगन की कोख से विज्ञान की एक नई शाखा का जन्म हुआ, जैवखगोल विज्ञान (बायोएस्ट्रॉनॉमी) का. विज्ञान की यह नई शाखा अंतरिक्ष में संभावित जीवन की खोजबीन को समर्पित है.

Ausstellung Monster & Mythen
तस्वीर: picture-alliance/ dpa

फ्रैंक ड्रेक सन फ्रांसिस्को के तथाकथित सेती इस्टीट्यूट के लिए काम करते हैं. SETI का अर्थ है Search for Extraterrestrial Intelligence, यानी, पृथ्वी से परे बुद्धिधारियों की खोज. आज से पैंतालीस साल पहले 8 अप्रैल 1965 के दिन सेती ने तश्तरीनुमा बड़े बड़े रेडियो एंटेनों की सहायता से अंतरिक्ष में बुद्धिधारी प्रणियों की खोज शुरू की.

भ्रम टूटा

दो ही साल बाद, 1967 में वैज्ञानिकों को लगा कि बटेर हाथ लग गयी. तब अख़बारों की सुर्खियां कुछ इस तरह की थीं. "डॉक्टरेट कर रही महिला वैज्ञानिक ने हरे आदमियों का पता लगा लिया." "हम अंतरिक्ष में अकेले नहीं हैं." "खगोलविदों ने नई दुनिया खोज निकाली."

उस महिला वैज्ञानिक का नाम था जोसेलिन बेल. लेकिन, सारी ख़ुशी पर तब पानी फिर गया, जब पता चला कि जिस रेडियो पल्स (स्पंद) को किसी सभ्यता का संकेत समझा जा रहा था, वह वास्तव में एक मृत न्यूट्रॉन तारे से आ रहा था. न्यूट्रॉन तारे ऐसे ठोस पिंड होते हैं, जो बहुत तेज़ी से घूमते हैं और साथ ही बहुत ही कसी हुई रेडियो तरंगों की कौंध सी पैदा करते हैं. इसीलिए उन्हें पल्सर भी कहा जाता है.

तलाश है रेडियो तरंगों की

इस बीच पृथ्वी से परे किसी बुद्धिमान सभ्यता का सुराग पाने के लिए सेती के वैज्ञानिक रात दिन आकाश को छान रहे हैं. आकाश से आ रही लाखों रेडियों फ्रीक्वेंसियों को पकड़ने के लिए वे ओवन्स वैली, कैलीफ़ोर्निया में स्थित एलन टेलेस्कोप अर्रे का उपयोग करते हैं. इस परियोजना के प्रमुख पीटर बैकस बताते हैं, "पृथ्वी से परे बुद्धिधारियों की अपनी खोज में हम इस दर्शनशास्त्री प्रश्न को गंभीरता से नहीं लेते कि बुद्धि क्या चीज़ है. हम टेक्नॉलॉजी पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं. आकाशीय पिंड फ्रीक्वेंसियों के एक बहुत बड़े दायरे में रेडियो तरंगें छोड़ते हैं. हम मनुष्यों के बनाए रेडियो ट्रांसमिटर सबसे कम बैंड विस्तार वाले प्राकृतिक ट्रांसममिटरों की तुलना में भी 300 गुना संकरे बैंड पर प्रसारण करते हैं. इसलिए हमारी नज़र में बहुत कम बैंड विस्तार वाला एक बहुत ही कसा हुआ रेडियो संकेत ही हमारे जैसी ही किसी तकनीकी सभ्यता परिचायक होगा."

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फिल्मों से लेकर कार्टून की दुनिया तक छाए हैं अजनबी दुनिया के किरदारतस्वीर: picture-alliance/dpa

रेडियो तरंगें और राडार स्पंद

चूंकि हम पृथ्वी से परे किसी सभ्यता को नहीं जानते, इसलिए यह भी नहीं जानते कि ऐसी कोई सभ्याता रेडियो संकेतों का ही उपयोग करती होगी या किसी और माध्यम का. खगोलविदों की समझ से हमारे पास तो रेडियो संकेत ही एकमात्र रास्ता हैं. केवल उन्हीं के द्वारा हम किसी दूसरी दुनिया के अस्तित्व को जान सकते हैं और कोई दूसरी दुनिया हमारे अस्तित्व को जान सकती है. बैकस कहते हैं, "पृथ्वी से बहुत सारे रेडियो संकेत अंतरिक्ष में जाते हैं. सबसे स्पष्ट संकेत होते हैं टेलीविज़न ट्रांसमिटरों के. कुछ तो एक मेगावाट तक की क्षमता के साथ प्रसारण करते हैं. अब तक की तकनीक की सहायता से हम तीन प्रकाश वर्ष तक की दूरी तक उनकी टोह ले सकते हैं. उन से भी कहीं शक्तिशाली हैं वे राडार पल्स (स्पंद) जिनकी मदद से खगोलविद हमारे सौरमंडल के ग्रहों को जांचते परखते हैं. राडार पल्स-जैसे संकेत हम अपनी तकनीक के द्वरा दस हज़ार प्रकाश वर्ष दूर तक पकड़ सकते हैं."

दूसरे शब्दों में, हमारी पृथ्वी पर के डॉएचे वेले सहित सारे रेडियो और टेलीविज़न स्टेशन जो भी कार्यक्रम प्रसारित करते हैं, उनकी तरंगें दूरी के साथ भले ही क्षीण होती जाती हैं, तब भी अंतरिक्ष में अरबों-खरबों किलोमीटर दूर तक पहुंचती हैं.

तश्तरीनुमा एंटेनों का संजाल

इसी सिद्धांत का उपयोग करते हुए वैज्ञानिक एलन टेलेस्कोप अर्रे की सहायता से अधिक से अधिक तारकमंडलों पर नज़र रखना चाहते हैं. यह टेलेस्कोप इस समय 6-6 मीटर व्यास वाले कुल 42 तश्तरीनुमा एंटेनों का एक जाल है. पीटर बैकस की टीम उसे और भी बड़ा और शक्तिशाली बनाने जा रही है, "जब हमारे पास 350 एंटेनों का नेटवर्क होगा, तो वह संसार के सबसे बड़े रेडियो दूरदर्शियों वाले एंटेनों के संपूर्ण क्षेत्रफल के बराबर होगा. तब हम 18 अलग अलग आकाशीय पिंड़ों पर एक साथ नज़र रख सकेंगे. रेडियो खगोल विज्ञान की दुनिया में तब क्षमता और कुशलता का एक नया युग शुरू हो जायेगा."

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कहां से आती हैं उड़न तश्तरियां, अब तक नहीं है पतातस्वीर: picture-alliance / dpa/dpaweb

20 साल और धीरज

50 साल पहले इस सबका श्रीगणेश करने वाले फ्रैंक ड्रेक कहते हैं, "बुद्धिधारी प्राणियों का सुराग हमें किसी भी समय मिल सकता है. भाग्य यदि साथ दे, हम आकाश में सही जगह देख रहे हों, हमारे पास एक बड़ा टेलिस्कोप हो और हम सही फ्रीक्वेंसी पर हों, तो हमें आज भी सफलता मिल सकती है. लेकिन, मैं कहूंगा कि हमें अभी 20 साल और धीरज रखना होगा."

सोचने की बात यह भी है कि हमारी पृथ्वी पर रेडियो के आविष्कार को मुश्किल से सौ साल हुए हैं. इन सौ वर्षों में हमारी रेडियों तरंगे अंतरिक्ष में केवल सौ प्रकाश वर्ष दूर तक ही पहुंची होंगी. इन सौ वर्षों में यदि हमें अपनी रेडियो तरंगों से जुड़ी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है, तो इसका यही अर्थ है कि पृथ्वी के सौ प्रकाश वर्ष के दायरे में या तो कोई तकनीकी सभ्यता नहीं है, या फिर वह कोई बिल्कुल दूसरी तकनीक इस्तेमाल करती है जिसे हम नहीं जानते, या उसका संदेश अभी हमारे पास तक पहुंचा नहीं है. यदि हम नितांत अकेले नहीं भी हैं, तब भी अपनी तकनीक के साथ फ़िलहाल तो अकेले ही लगते हैं.

रिपोर्टः राम यादव

संपादनः ए कुमार