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पोषण अभियान पर गंभीर नहीं हैं सरकारें

प्रभाकर मणि तिवारी
३१ दिसम्बर २०१९

8 मार्च 2018 को शुरू हुए 'राष्ट्रीय पोषण मिशन' या पोषण अभियान के तहत अब तक जारी हुई रकम में से भारत के तमाम राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों ने महज 30 फीसदी ही खर्च किया है.

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Indien Slumbewohner in Delhi
तस्वीर: DW/R. Chakraborty

भारत में खासकर महिलाओं और बच्चों को कुपोषण-मुक्त करने और उनमें एनीमिया यानी खून की कमी की समस्या दूर करने के मकसद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आठ मार्च 2018 को महिला दिवस के मौके पर राजस्थान के झुंझुनू में इसकी शुरुआत की थी. योजना का मकसद 10 करोड़ से अधिक लोगों को फायदा पहुंचाना था. लेकिन हुआ ये है कि मिजोरम, लक्षद्वीप, बिहार और हिमाचल प्रदेश के अलावा भारत की कोई भी राज्य सरकार बीते तीन वित्तीय वर्षों के दौरान जारी रकम का आधा भी खर्च नहीं कर सकी है. लांसेट जर्नल के ताजा अंक में छपी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बीते दो दशकों के दौरान भारत में कुपोषण और मोटापे के मामले तेजी से बढ़े हैं.

योजना का लक्ष्य

सरकार ने हाल में संसद में पोषण अभियान से संबंधित जो आंकड़े पेश किए थे उनसे साफ है कि मिजोरम, लक्षद्वीप, हिमाचल प्रदेश और बिहार के अलावा दूसरे किसी राज्य में इस मद में आवंटित आधी रकम भी खर्च नहीं हो सकी है. महिला व बाल विकास मंत्रालय के इस फ्लैगशिप कार्यक्रम का लक्ष्य वर्ष 2022 तक गर्भवती महिलाओं, माताओं व बच्चों के पोषण की जरूरतों को पूरा करना और बच्चों व महिलाओं में खून की कमी (एनीमिया) को दूर करना भी है.

एक दिसंबर, 2017 को केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में मंजूरी के बाद तीन वर्षों के लिए 9,046.17 करोड़ के बजट के साथ इस योजना की शुरुआत हुई थी. इसमें से आधी रकम बजट प्रावधान के जरिए मिलनी थी. उसमें से भी केंद्र और राज्य को क्रमशः 60 और 40 फीसदी रकम देनी थी. पूर्वोत्तर राज्यों के मामले में केंद्र व राज्य सरकारों की भागीदारी क्रमशः 90 और 10 फीसदी है जबकि बिना विधायिका वाले केंद्रशासित प्रदेशों में पूरी रकम केंद्र सरकार के खाते से ही जाएगी.

इस योजना के तहत बाकी 50 फीसदी रकम विश्व बैंक या दूसरे विकास बैंकों से मिलनी है. नतीजतन केंद्र सरकार का हिस्सा 2,849.54 करोड़ आता है. लेकिन अब इस अभियान के तहत खर्च होने वाली रकम का आंकड़ा सामने आने के बाद तस्वीर बेहतर नहीं नजर आ रही है. केंद्रीय महिला व बाल कल्याण मंत्री स्मृति ईरानी ने संसद के शीतकालीन अधिवेशन के दौरान इस अभियान का जो आंकड़ा पेश किया उसमें कहा गया था कि केंद्र ने अब तक विभिन्न राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों को 4,238 करोड़ की रकम जारी की है. लेकिन इस साल 31 अक्तूबर तक इसमें से महज 1,283.89 करोड़ यानी 29.97 फीसदी रकम ही खर्च हो सकी थी. पोषण अभियान के वित्त वर्ष 2017-18 के आखिर में शुरू होने की वजह से उस साल के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं.

इस अभियान के तहत जारी रकम को खर्च करने में मिजोरम (65.12 फीसदी) और लक्षद्वीप (61.08 फीसदी) क्रमशः पहले व दूसरे स्थान पर रहे. इस मामले में पंजाब, कर्नाटक, केरल, झारखंड और असम का प्रदर्शन सबसे खराब रहा. वर्ष 2019-20 के दौरान 19 राज्यों को इस मद में रकम जारी की गई. हालांकि इनमें से 12 राज्य पहले दो वित्त वर्ष के दौरान महज एक तिहाई रकम ही खर्च कर सके थे.

कुपोषण की स्थिति

भारत में कुपोषण की तस्वीर बेहद भयावह है. इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईएमआरसी) की एक रिपोर्ट में वर्ष 2017 तक के आंकड़ों के हवाले से कहा गया है कि पांच साल तक के बच्चों में मौत की एक बहुत बड़ी वजह कुपोषण है. अब भी कुपोषण से पांच साल से कम आयु के 68.2 फीसदी बच्चों की मौत हो जाती है. राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार और असम के साथ मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, नागालैंड और त्रिपुरा के बच्चे कुपोषण के सबसे ज्यादा शिकार हैं.

इस बीच, यूनिसेफ की ओर से जारी एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि कुपोषण के मामले में दुनिया के बाकी देशों के मुकाबले भारत में हालात बदतर हैं. कुपोषण की वजह से बच्चों को बचपन तो गुम हो ही रहा है उनका भविष्य भी अनिश्चतता का शिकार है. पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन आफ इंडिया और नेशनल इंस्टीट्यूट आफ न्यूट्रीशन की ओर से कुपोषण की स्थिति पर हाल में जारी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि वर्ष 2017 में देश में कम वजन वाले बच्चों के जन्म की दर 21.4 फीसदी रही. इसके अलावा एनीमिया से पीड़ित और कम वजन वाले बच्चों के जन्म की तादाद भी बढ़ी है.

रिपोर्ट में कहा गया था कि वर्ष 1990 से 2017 के बीच पांच साल से कम उम्र वाले बच्चों के मौत के मामले घटे हैं. लेकिन कुपोषण से होने वाली मौतों की तादाद में कोई खास अंतर नहीं आया है. वर्ष 1990 में यह दर 70.4 फीसदी थी जो वर्ष 2017 में 68.2 फीसदी तक ही पहुंची है. इससे साफ है कि कुपोषण का खतरा कम नहीं हुआ है. ऐसे में पोषण अभियान की अहमियत काफी बढ़ जाती है. लेकिन इसे जमीनी स्तर पर लागू करने में सामने आने वाली खामियों ने स्वास्थ्य विशेषज्ञों की चिंता बढ़ा दी है.

कमियों को कैसे करें दूर

स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉक्टर पुलकेश कुमार गांगुली कहते हैं, "केंद्र सरकार की यह योजना तो ठीक है. लेकिन जमीनी स्तर पर इसे लागू करने के लिए कुशल तंत्र और इच्छाशक्ति जरूरी है. कुपोषण की यह समस्या इतनी गंभीर है कि तमाम गैर-सरकारी संगठनों को भी साथ लेकर काम करना जरूरी है.” गांगुली कहते हैं कि इस योजना को लागू करने के साथ ही आम लोगों में जागरुकता अभियान चलाना भी जरूरी है. इस काम में गैर-सरकारी संगठन अहम भूमिका निभा सकते हैं.

पोषण अभियान की देख-रेख करने वाले नेशनल काउंसिल ऑन इंडिया न्यूट्रीशन चैलेंजेज के सदस्य चंद्रकांत पांडेय कहते हैं, "हम दूसरी खतरनाक बीमारियों की तरह कुपोषण के प्रति उतनी गंभीरता नहीं दिखाते. इसकी वजह यह है कि दूसरी जानलेवा बीमारियां के लक्षण तो सामने आते हैं लेकिन कुपोषण में यह प्रक्रिया बेहद धीमी है और इसके लक्षण शीघ्र नजर नहीं आते. इसलिए लोग इस पर ध्यान नहीं देते.” वह कहते हैं कि पोषण अभियान को कामयाब बनाने के लिए स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले तमाम हितधारकों को मिल कर काम करना होगा.

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