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"प्रणब से भारत की छवि को फायदा होगा"

१७ जुलाई २०१२

भारत में इस बार राष्ट्रपति का चुनाव इतना अहम क्यों हो गया. क्या राष्ट्रपति चुनाव के बहाने अगले लोकसभा चुनाव की बिसात तैयार की जा रही है. जेएनयू के प्रोफेसर आरके जैन से खास बातचीत.

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तस्वीर: AP

डॉयचे वेलेः कांग्रेस ने प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर क्यों चुना गया. आप उनमें किस तरह की खासियत देखते हैं?

आरके जैनः प्रणब मुखर्जी पर सभी दलों में लगभग सहमति थी कि वह इस समय राष्ट्रपति के सबसे योग्य उम्मीदवार हैं. एक तो उनमें काफी राजनीतिक सूझबूझ है, दूसरा वह जिस तरह से चुपचाप राजनीतिक मसलों को हल करते हैं उससे राजनतिक दलों में उनकी स्वीकार्यता काफी बढ़ गई है. हालांकि सोनिया को प्रणब मुखर्जी पर पूरा भरोसा नहीं था क्योंकि राजीव गांधी की मौत के बाद प्रणब मुखर्जी ने प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी रखी थी. लेकिन जब आखिर में मुखर्जी ने इच्छा जाहिर कर दी कि वह रिटायर होने से पहले राष्ट्रपति बनना चाहते हैं तो सहमति बन गई.

डॉयचे वेलेः आम तौर पर राष्ट्रपति चुनाव में इतनी सरगर्मी नहीं होती. लेकिन इस बार सीन थोड़ा अलग है. आप बता सकते हैं कि क्यों इस बार पक्ष और विपक्ष के लिए राष्ट्रपति का चुनाव इतना अहम हो गया?

आरके जैनः देखिए, जिस राजनीतिक संकट में यूपीए 2 का कार्यकाल था, भ्रष्टाचार और गिरती आर्थिक प्रगति - ऐसे में इस चुनाव का अहम होना ही था. दूसरी ओर तृणमूल की ममता बनर्जी आर्थिक सुधार को रोक कर बंगाल के लिए बड़ा आर्थिक पैकेज मांग रही थीं. इसी बीच ये कयास लगाया जा रहा था कि हो सकता है कि 2014 का चुनाव समय से पहले हो जाए. इससे गांधी परिवार और कांग्रेस के नेतृत्व के सामने ये चुनौती पैदा हो गई कि अविश्वास के माहौल में छवि कैसे सुधारें. ममता बनर्जी की एकला चलो से अलग होकर जब सोनिया मुलायम सिंह को साथ लाने और लेफ्ट पार्टी का समर्थन हासिल करने में कामयाब हो गईं, तब जाकर थोड़ा छवि को सुधारने में सफल हुई है.

डॉयचे वेलेः राष्ट्रपति देश का संवैधानिक प्रतिनिधि होता है. उसके हाथ में असल मायने में कोई ताकत नहीं होती. प्रतिभा पाटिल की विदेश यात्रा के दौरान विदेशी मीडिया में उनका काफी मजाक उड़ाया गया. भारत की छवि के लिए राष्ट्रपति का चेहरा कितना अहम होता है?

आरके जैनः इसमें दो महत्वपूर्ण बातें हैं. 1990 के बाद देश में लगातार गठबंधन सरकार बन रही है. जाहिर है कि 2014 में जो आम चुनाव होंगे उसमें भी गठबंधन सरकार ही बनेगी. सभी दल चाहते हैं कि जो राष्ट्रपति के पद पर बैठे वह निष्पक्ष हो. निष्पक्ष तरीके से फैसला करे कि किस राजनीतिक दल को सरकार बनाने के लिए बुलाना चाहिए. चाहे विदेश यात्रा की बात हो, लेकिन एक किस्म की राजनीतिक परिपक्वता राष्ट्रपति में होनी चाहिए जो प्रतिभा पाटिल में नहीं थी. चाहे कोई विदेशी अतिथि आए या फिर भारत का राष्ट्रपति बाहर जाए. प्रणब मुखर्जी रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री और सरकार की कई समितियों के अध्यक्ष रह चुके हैं. ऐसे में उनकी जो राजनीतिक परिपक्वता है, उससे देश की छवि को फायदा निश्चित रूप से पहुंचेगा.

डॉयचे वेलेः आपने मुखर्जी के अनुभव के बारे में बात की. लेकिन कई लोग मानते हैं कि बतौर वित्त मंत्री उनका कार्यकाल सफल नहीं रहा. अब वित्त मंत्रालय का काम काज मनमोहन सिंह खुद संभाल रहे हैं. लोग मानते हैं कि इस बहाने मनमोहन भी अपनी छवि सुधारना चाहते हैं. जो सुधार लागू नहीं हो सके, उन्हें जल्दी ही आगे बढ़ाना चाहते हैं. ये किस हद तक आप सच मानते हैं?

आरके जैनः आपसे सहमत हूं. मनमोहन सिंह में मुखर्जी को काबू करने की क्षमता नहीं थी. प्रणब मुखर्जी जिस दृढ़ता से वित्त मंत्रालय संभाल रहे थे, उसमें कई ऐसे निर्णय हुए जैसे वोडाफोन का टैक्स वाला मामला, जिससे विदेशी निवेशक घबरा गए. इस समय असहायता की स्थिति उत्पन्न हो गई है. सारे सुधार कार्यक्रम रुके हुए हैं. तो ये मनमोहन सिंह के लिए अच्छा अवसर भी है कि वो अर्थव्यवस्था को सकारात्मक मोड़ दें. और प्रधामनमंत्री की जो सुधार वाली छवि थी उसे फिर से हासिल करें. वह सुधार की जिस प्रक्रिया को गति देना चाहते हैं जैसे सिंगल ब्रांड रिटेल सेक्टर में वह कर सकते हैं. 2014 में जो चुनाव होंगे उसमें कांग्रेस को एक प्रगतिशील पार्टी का रुख दोबारा से अपनाना है तो आर्थिक सुधार जरूरी है. मेरे ख्याल से मनमोहन सिंह इस मौके का फायदा उठाएंगे. लेकिन ये आखिरकार राजनीतिक गठबंधन पर निर्भर करेगा क्योंकि सहमति बनाना इतना आसान नहीं. मेरे ख्याल से हम प्रभावशाली हलचल देखने वाले हैं.

डॉयचे वेलेः अगर हम इस बार के राष्ट्रपति चुनाव की बात करें तो कांग्रेस के अंदर भी विभाजन देखने को मिला है. पहले प्रणब मुखर्जी के नाम पर सहमति नहीं बन पाई. बड़ा गठबंधन है. क्षेत्रीय दल भी काफी ताकतवर हो गए हैं. ऐसे में कांग्रेस की स्थिति थोड़ी कमजोर हुई है. आप इसको किस नजरिये से देखते हैं.

आरके जैनः दूसरे राजनीतिक दलों के संदर्भ में कांग्रेस की जो स्थिति है वह निश्चित रूप से कमजोर हुई है. लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि 1990 के बाद से जब से गठबंधन सरकारें चल रही हैं भारतीय राजनीति की वास्तविकता ये भी है कि जितनी क्षेत्रीय पार्टियां हैं वो अधिक से अधिक शक्तिशाली हो गई हैं. न केवल सुधार प्रक्रिया पर बल्कि कई दूसरे मसलों पर जैसे विदेश नीति पर भी इनका दबाव बढ़ा है. भविष्य में ये और भी बढ़ेगा.

डॉयचे वेलेः भारत की आबादी का बहुत बड़ा वर्ग युवा है. और ये बहुत फायदेमंद आंकड़ा भी है. लेकिन नेतृत्व की बात करें तो युवा कम ही दिखाई पड़ता है. मनमोहन सिंह 80 के होने वाले हैं. मुखर्जी 76 के हैं. तो कहां हैं हमारे युवा नेता?

आरके जैनः ये सही है. लेकिन राजनीति में परिवारवाद की जड़ काफी तगड़ी है. ये परिवर्तन मुश्किल है लेकिन जब तक युवा पीढ़ी राजनीति में सक्रियता से भाग नहीं लेगी हमारे देश में चीजें नहीं बदलेंगी. बढ़ती हुई युवा पीढ़ी सरकार पर दबाव डाल रही है कि वह आर्थिक सुधारों को लागू करे. हाल ही में आपने देखा कि अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में युवा प्रतीक हैं लेकिन केंद्रीय स्तर पर भारी कमी है. ये परिवर्तन आसान नहीं है.

इंटरव्यूः प्रिया एसेलबॉर्न

संपादनः ए जमाल