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समाज

प्रेस और अभिव्यक्ति की आजादी पर कसता शिकंजा

शिवप्रसाद जोशी
११ जून २०१९

देश में आपातकाल के दौर से पत्रकारों के दमन की डरावनी मिसालें मिलती रही. 90 के दशक में इसमें तेजी आई और इंटरनेट मीडिया ने रही सही कसर पूरी कर दी. अब पत्रकार सोशल मीडिया पर लिखे गए ट्वीट के लिए भी गिरफ्तार हो रहे हैं.

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Medienfreiheit
तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Lopez

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से जुड़े एक कथित अपमानजनक वीडियो को ट्वीट करने वाले पत्रकार को सुप्रीम कोर्ट ने रिहा करने का आदेश दिया है. पत्रकार प्रशांत कनौजिया को मुख्यमंत्री की मानहानि करने के आरोप में दो अन्य सहयोगी पत्रकारों के साथ शनिवार को दिल्ली से गिरफ्तार कर लिया गया था. कनौजिया की पत्नी ने सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में कहा था कि उनके पति की गिरफ्तारी असंवैधानिक और अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकारों का उल्लंघन है.

मीडिया में आई खबरों के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस इंदिरा बनर्जी और जस्टिस अजय रस्तोगी की पीठ ने कनौजिया की रिहाई का आदेश देते हुए यूपी सरकार से कहा कि उसे ‘दरियादिली' दिखानी चाहिए. कोर्ट ने हैरानी जताते हुए कहा कि ये हत्या का मामला तो था नहीं कि आरोपी को 11 दिन की रिमांड पर भेज दिया गया. पीठ के मुताबिक ट्वीट की प्रकृति को देखने से ज्यादा जरूरी ये देखना है कि व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता का हनन न हो. कोर्ट ने साफ किया कि याचिकाकर्ता के पति अगर ट्वीट न करते तो ठीक रहता लेकिन एक विवादास्पद ट्वीट पर गिरफ्तार कर लेने का औचित्य समझ से परे है.

बहरहाल कोर्ट के आदेश के मुताबिक जमानत प्रक्रिया निचली अदालत में तय होगी और पत्रकार पर कानूनी मामला चलता रहेगा. यूपी में पत्रकारों की गिरफ्तारी एक बार फिर, अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की उस चेतावनी की याद दिलाती है जिसमें भारत को पत्रकारिता के लिहाज से रेड जोन के रूप में दिखाया गया है. पत्रकारों के लिए समय कठिन से कठिन होता जा रहा है. उनके मानवाधिकार, सूचना हासिल करने, प्रेषित और प्रसारित करने के अधिकार और कानूनी वैधानिक अधिकार तक दांव पर लगे हैं. अदालतों से, खासकर सुप्रीम कोर्ट से ही पीड़ित पत्रकारों को अकसर राहत मिलती रही है. लेकिन इससे ये भी साफ हुआ है कि पत्रकारों पर कानून का डंडा चलाने वाली सत्ता राजनीति या उन्हें अपने विरोध में खबर न छापने के लिए धमकाने वाली ताकतों को इसकी कोई परवाह नहीं रहती कि उनकी कार्रवाई वैधानिक तौर गलत हो सकती है या उनका कोई कुछ बिगाड़ सकता है.

मामला अदालतों में ना पहुंचे तो, उत्पीड़न के खिलाफ गुहार की सुनवाई कहां होगी.

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स दुनिया भर में पत्रकारों के उत्पीड़न का ब्यौरा रखती है और हर साल इस बारे में आंकड़े भी जारी करती है. संस्था द्वारा तैयार प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में सभी देशों को अंक दिए जाते हैं. पत्रकारों की सुरक्षा के लिहाज से 2019 के सूचकांक में भारत की स्थिति खराब बताई गई है और कुल 180 देशों की सूची में वो 140वें नंबर पर रेड जोन में रखा गया है. भारत 2018 से दो स्थान और खिसक गया है. कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स के आंकड़ों के हवाले से इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने बताया था कि देश में 1992 से 2018 तक 47 पत्रकार मारे जा चुके हैं. इनमें से 33 की हत्या हुई है.

देश में आपातकाल के दौर से पत्रकारों के दमन की डरावनी मिसालें मिलती रही हैं, लेकिन 90 के दशक के बाद इसमें एक नई तीव्रता देखी जा सकती है. इंटरनेट मीडिया ने रही सही कसर पूरी कर दी. इंटरनेट के बाद जिस तेजी से सूचना संप्रेषण और संचार का दायरा फैला है उसी तेजी से पत्रकारों और मीडियाकर्मियों पर हमले और उनके उत्पीड़न की घटनाएं भी बढ़ी हैं. 21वीं सदी का दूसरा दशक पूरा होते होते सच्ची, निष्पक्ष और ईमानदार पत्रकारिता के लिए काम के हालात दुष्कर हुए हैं.

पिछले पांच छह साल से तो एक नये बहुसंख्यकवादी उन्माद में तो सोशल मीडिया ट्रोल्स में भारी उछाल आया है. कभी छद्म और बहुत सी भ्रामक पहचानों के साथ और कभी खुलेआम सोशल मीडिया पर अपने विरोधी विचार या आलोचना की धज्जियां उड़ाने, फब्तियां कसने, गालीगलौच करने, जान से मार देने की धमकियों और और अन्य तमाम किस्म की हिंसक अश्लीलताओं के जरिए एक भयावह माहौल बनाने की कोशिश की गई है. सत्ता राजनीति की हरकतों का पर्दाफाश करने या उन पर अंगुली उठाने वाले पत्रकारों को चुनचुनकर निशाना बनाया गया है.

महिला पत्रकारों को अश्लील वीडियो और बलात्कार की धमकियां सोशल मीडिया पर या फोन से भेजी जाती हैं. शिकायतें और पुलिस कार्रवाइयां भी हुई हैं लेकिन उनका कोई डर इन नये बर्बरों और दबंगों को नहीं रह गया है.

चर्चाओं से दूर कई लेखक, पत्रकार और संवाददाता अदम्य साहस के साथ अपना काम कर रहे हैं और हर वक्त धमकियों और हमलों की आशंकाओं से घिरे हुए हैं. लोकतांत्रिक व्यवस्था में अभिव्यक्ति की आजादी और असहमति के साहस को सम्मान देने की एक स्वाभाविक रिवायत होती है. आलोचना और प्रतिपक्ष भी लोकतंत्र का निर्माण करते हैं और एकतरफा विचार के समांतर एक ठोस संतुलन बनाए रखते हैं. ये संतुलन न बिगड़े, ये सुनिश्चित करने का काम शासन, प्रशासन, राजनीतिज्ञों, सरकार, पुलिस और सुरक्षा बलों का है.

स्वयंसेवी संगठनों, समाज के असरदार और रसूखदार लोगों, सेलेब्रिटी, उद्योगपतियों, खुद को बुद्धिजीवी, प्रगतिशील और लिबरल कहने वालों को भी अपनी भव्य सुविधाओं और रियायतों के आलस्य और आडंबर से बाहर निकलकर अभिव्यक्ति पर बढ़ते हमलों के विरोध में आवाज उठानी चाहिए.

अपने लेखन के लिए गौरी लंकेश जैसी पत्रकार का मारा जाना या रविश कुमार जैसे टीवी एंकरों को मार देने की धमकियां मिलना या एक पत्रकार का ‘देशद्रोह' के आरोप में या ‘आपत्तिजनक सामग्री' रखने के आरोप में या एक पत्रकार का मुख्यमंत्री की ‘छवि धूमिल करने' के आरोप में गिरफ्तार हो जाना - एक सभ्य सुसंस्कृत लोकतांत्रिक देश की घटनाएं नहीं हो सकती हैं.

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