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'फ्लॉप या हिट फिल्मों का असर नहीं'

११ मई २०१४

जाने माने अभिनेता नसीरुद्दीन शाह किसी भी मुद्दे पर दो टूक टिप्पणी करने से परहेज नहीं करते. उनके लिए एक अभिनेता उतना ही अच्छा होता है जितना कि वह फिल्म, जिसमें उसने काम किया है.

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तस्वीर: AP

पिछले दिनों उन्होंने भाग मिल्खा भाग की काफी आलोचना की थी. लेकिन उसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने के बावजूद उसके बारे में नसीर की राय नहीं बदली है.अब सितंबर में उनकी किताब 'एंड देन वन डे' बाजार में आने वाली है. नसीर कहते हैं कि वह किताब कई बवाल पैदा करेगी. जल्दी ही रिलीज होने वाली बांगला फिल्म खासी कथा (बकरे की कहानी) में उन्होंने एक कसाई की भूमिका निभाई है. सत्यजित रे मेमोरियल लेक्चर देने कोलकाता आए इस अभिनेता ने अपने शुरूआती दिनों और हिन्दी सिनेमा की दशा-दिशा पर कुछ सवालों के जवाब दिए. पेश हैं उस बातचीत के मुख्य अंश

डीडब्ल्यूः आज के नसीरुद्दीन शाह को गढ़ने में बचपन के माहौल की कितनी भूमिका रही है?

नसीरुद्दीन शाहः बचपन और परवरिश की भूमिका अहम है. मेरे पिता सरकारी नौकरी करते थे. उनको हजार रुपए वेतन मिलता था. उसमें से छह सौ रुपए हम तीन भाइयों की पढ़ाई पर खर्च होते थे. मैं उसी समय पैसों की कीमत समझता था. लेकिन कभी उसके पीछे नहीं भागा. मैं आजीवन नाम के पीछे ही भागता रहा.

आपने कहा है कि सत्यजित रे की फुल्मों में काम नहीं करने का हमेशा मलाल रहेगा?

हां, यह निजी तौर पर मेरा नुकसान है. शायद भाषा की समस्या की वजह से ही ऐसा हुआ. मैं बांग्ला नहीं बोल सकता. इसलिए उन्होंने मुझे कभी किसी फिल्म में काम करने का मौका नहीं दिया. मिर्च मसाला देखने के बाद उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया था. मेरा उनसे बस उतना ही परिचय था.

अभिनय के शुरूआती दौर का कोई मजेदार प्रसंग?

हां, पुणे फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट में पढ़ने के दौरान मैंने एक बार गुलजार भाई को पत्र लिखा था. मैंने सुना था कि वे संजीव कुमार को लेकर मिर्जा गालिब पर एक फिल्म बनाने जा रहे हैं. लेकिन संजीव के बीमार हो जाने की वजह से फिल्म बंद हो गई. मैंने पत्र में उनको लिखा था कि आपको मेरे जैसा अभिनेता चाहिए और संजीव कुमार को उस फिल्म में नहीं लेना चाहिए. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि गुलजार को कभी मेरा वह पत्र ही नहीं मिला. बाद में साथ इजाजत और लिबास (जो आज तक रिलीज नहीं हुई) में काम करने के बाद एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं गालिब का किरदार करना चाहता हूं. उसी समय मैंने अपने पत्र का जिक्र किया. उसके बाद ही पता चला कि गुलजार को कभी मेरा वह पत्र मिला ही नहीं था. शायद मेरी लिखावट इतनी खराब थी कि किसी ने उसे पढ़ने की जहमत नहीं उठाई.

Indien Schauspieler Naseeruddin Shah
तस्वीर: STRDEL/AFP/Getty Images

क्या वजह है कि कोई अभिनेता एक फिल्म में बढ़िया काम करता है और दूसरी में खराब?

किसी भी फिल्म की शुरूआत के समय यह कहना मुश्किल है कि वह अच्छी होगी या नहीं. मैंने भी कई बार गलत फैसले लिए हैं. लेकिन बावजूद उसके उम्मीद बनी रहती थी कि शायद पूरी होने पर फिल्म बेहतर बन जाए. मैं शूटिंग शुरू होने के पहले सप्ताह के दौरान समझ जाता हूं कि चयन में गलती हो गई. लेकिन कमिटमेंट की वजह से काम आगे बढ़ाता रहता हूं.

कामयाब और फ्लॉप फिल्मों ने आपके करियर को कितना प्रभावित किया है?

दूसरों के बारे में तो नहीं पता. लेकिन न तो कामयाब फिल्मों ने मेरे करियर को प्रभावित किया है और न ही फ्लॉप फिल्मों ने. एक अभिनेता उतना ही अच्छा होता है जितनी कि वह फिल्म जिसमें उसने काम किया है.

पहले समानांतर सिनेमा में काम करने वाले कलाकारों को ज्यादा पैसे नहीं मिलते थे. क्या अब स्थिति बेहतर हुई है?

अब फिल्मों की लागत पहले के मुकाबले सौ गुनी बढ़ गई है. लेकिन अब भी इन फिल्मों में काम करने वालों को ज्यादा पैसे नहीं मिलते. दरअसल, कोई भी फिल्मकार अब छोटे बजट की फिल्मों नहीं बनाना चाहता.

आपने भाग मिल्खा भाग की आलोचना की थी. लेकिन उसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिल गया?

हां, उसे श्रेष्ठ फिल्म और श्रेष्ठ निर्देशन का पुरस्कार मिला है. दरअसल, पुरस्कारों के लिए फिल्मों का चयन ऐसे निर्माता करते हैं जिनके पास कोई काम नहीं होता. मेरे लिए राष्ट्रीय पुरस्कारों की भी उतनी ही अहमियत है जितनी किसी छोटी पत्रिका की ओर से दिए जाने वाले पुरस्कार की. मेरी समझ में नहीं आता कि क्या अच्छी नहीं होने के बावजूद तमाम फिल्मों को पुरस्कार देना जरूरी है.

आपकी नजर में बेहतरीन हिंदी फिल्में कौन सी हैं?

गाइड अब तक हिंदी में बनी सबसे बेहतरीन फिल्म है. दूसरी भारतीय भाषाओं की तमाम फिल्में नहीं देखने की वजह से मैं उसे सबसे बेहतरीन भारतीय फिल्म नहीं कहना चाहता. इसी तरह पथेर पांचाली भारत में बनी सबसे बेहतरीन फिल्मों में से एक है. इसके अलावा प्यासा और मुगले आजम भी गाइड के काफी करीब हैं. मासूम भी काफी बेहतर तरीके से बनी फिल्म थी.

इंटरव्यूः प्रभाकर, कोलकाता

संपादनः मानसी गोपालकृष्णन