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बच्चों का सरकारी खाना

२९ जुलाई २०१३

ये दुनिया की सबसे बड़ी भोजन व्यवस्था है. नाम है एमडीएम. प्राइमरी और अपर प्राइमरी के 12 लाख स्कूलों के करीब 11 करोड़ बच्चों को दिन का खाना खिलाती है. लेकिन इस योजना के सुहावने से दिखते औचित्य पर ही अब सवाल उठ रहे हैं.

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तस्वीर: picture alliance/AP Photo

15 अगस्त 1995 से प्राइमरी शिक्षा के पोषण सपोर्ट के लिए राष्ट्रीय प्रोग्राम(एनपीएनएसपीई) के रूप में बच्चों को पोषक आहार देने के लिए राशन मुहैया कराने की योजना शुरू की गई थी. 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि बच्चों को पका हुआ गरम आहार दिया जाना चाहिए. उसके बाद से मिड-डे मील नाम के साथ दिन का खाना बच्चों को स्कूलों में परोसा जाने लगा. सार्वभौम शिक्षा से लेकर सार्वभौम स्वास्थ्य और सार्वभौम आहार आखिर किस प्रगतिशील समाज की अपेक्षा न होगी. बच्चों का ये नागरिक अधिकार है.

अपने आकार और आकर्षण में अपार, इस मिड डे मील योजना में इस बीच बड़े छेद नजर आने लगे हैं. योजना से जुड़ी अपेक्षाएं धड़ाधड़ गिर रही हैं. मानव संसाधन विकास मंत्रालय का एक पूरा अमला, एक पूरा विभाग, राज्य सरकारों की मशीनरी, एनजीओ, दिहाड़ी कर्मचारी, राशन विभाग, खाद्य सप्लाई, गोदाम,ट्रांसपोर्ट आदि सब कुछ इतना बड़े पैमाने पर अथाह ब्यूरोक्रेटिक सिस्टम की धुरी में घूम रहा है कि समझ नहीं आता कि ये कार्यक्रम नागरिक अधिकार को सुनिश्चित करने वाले नैतिक दायित्व है या नौकरशाही का एक और महाझोल. निपटाते रहो का शातिर उपक्रम ऊपर से लेकर नीचे तक.

बिहार के छपरा की वारदात यही बताती है. कैसी राशन, कैसी दाल, कैसा चावल, कैसा पकाना कैसा परोसना. सब कुछ फिर एक तयशुदा गति से चलता आता है. उसमे कोई जीवन नहीं है कोई उत्साह या दायित्व का बोध नहीं. जैसे एक मशीन किसी ने सुबह चालू कर दी हो और दिन के खाने के बाद वो गड़गड़ की आवाज से शनैःशनैः बंद हो जाएगी. आप देश के इन सरकारी स्कूलों में दिन का खाना बनाने की प्रक्रिया को नोट कीजिए एक दिन. वे महिलाएं जो खाना पकाने आती हैं, वे भोजन माताएं उनकी हालत देखी है किसी ने.

Schulessen in Indien
तस्वीर: AP

दोपहर का भोजन के छपरा कांड के बाद जैसे अचानक सबकी नींद टूटी हो. इस या उस दल के नेता ऐसे चौंके जैसे सरकारी बेरुखी से जानें चली जाने की आजाद भारत की ये पहली वारदात हो. खासकर हमारा टीवी मीडिया अभूतपूर्व ढंग से हैरान हुआ. जाहिर है सरकारी स्कूलों की जर्जरता के यथार्थ को वो नहीं जानता. मिड डे मील तो उसी जर्जरता का हिस्सा है.

कुपोषण से लेकर भ्रष्टाचार तक, बुराइयों से पैबस्त सिस्टम में आप एक बेचारे मिड डे आहार को टार्गेट नहीं कर सकते हैं. कहां से मिलेगा अच्छा खाना, कहां से आएगा सही चावल, दाल, सब्जी, कौन पकाएगा स्वादिष्ट और पोषण युक्त आहार, किसे फुर्सत है रसोई की सफाई की, दाल बीनने की या चावल पसारने की. सब्जी कौन धोएगा, बर्तन कौन धोएगा, खाना गैस पर पकेगा या लकड़ी के चूल्हे पर. कहां बैठकर खाएंगें बच्चे, उनकी थालियां कहां हैं, किसने साफ की हैं. उनके हाथ साबुन से धुले हैं, उनके पास पीने के लिए पानी कहां से आता है, उन्हें फल क्या मिलेगा. कैसा फल है, कितने बच्चे आए कितनों ने खाया कौन बताएगा. लिस्ट कहां है, आज क्या बना है कौन बताएगा. खाना ठंडा क्यों था, बच्चे बीमार क्यों पड़े उन्हें एनीमिया क्यों है, उनकी कदकाठी क्यों नहीं बढ़ती. राशन लेने कौन जा रहा है, कौन देख रहा है, सप्लाई डिपो कहां है, कितनी राशन एमडीएम की है, क्या क्या चीजें आई हैं. राशन इंस्पेक्टर कहां है, बड़ा बाबू है या चला गया, कहां गया, डीएम, अपर सचिव, सचिव, प्रमुख सचिव, मुख्य सचिव, मुख्यमंत्री, वो पूरी की पूरी सरकार किन ख्यालों में खोई है. बच्चों को खाना खिलाना क्या इतना आसान है. क्या इतना आसान है कि उन्हें एक वक्त का भरपेट और पोषणयुक्त खाना मिल जाए. कमीशनखोरी और बंदरबांट के अंधेरों में दिन का खाना किसे दिखेगा. कीटनाशक तो कल था, उससे पहले मेंढक, छिपकली, डिटर्जेंट, गंदे बर्तन और न जाने क्या क्या.

ये सारी बातें कहीं कम कहीं ज्यादा अपनी भयावहता में सरकार की नाक के ऐन नीचे उसके विभाग के उसी संभाग के दस्तावेजों में आई हैं जिसे मिड डे मील की वस्तुस्थिति का आकलन करने के लिए रखा गया है. केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय की मिड डे मील परियोजना के पांचवें समीक्षा मिशन(2013-14) की राज्यवार रिपोर्टें आनी शुरू हो गई हैं. एमडीएम की वेबसाइट पर जाइए और देख लीजिए उसे. आंकड़ें भी हैं अध्ययन भी तस्वीरें भी ब्यौरे भी और नतीजे भी. बहुत उपयोगी एक्सरसाइज है. विभिन्न राज्यों में मिड डे आहार का क्या हाल है, रिव्यू मिशन की मैराथन रिपोर्टे सब बता देती हैं. वे जो नहीं बताती हैं, वो ये कि जानकारों को भेजकर इकट्ठा की गई जानकारी की इस लंबी चौड़ी प्रक्रिया के बाद एंड ऑफ द डे होता क्या है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी, देहरादून

संपादनः एन रंजन