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बच्चों के स्ट्रोक को संजीदगी से लें

९ अगस्त २०१४

बच्चे अपनी तकलीफ जाहिर नहीं कर पाते. ऐसे में जरूरी है कि माता पिता और डॉक्टर उनकी परेशानी को संजीदगी से लें. बहुत से लोग यह बात जानते ही नहीं हैं कि बच्चों को भी लकवा मार सकता है.

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तस्वीर: Fotolia/Oksana Kuzmina

लिन महज एक साल की थी जब वह पहली बार लकवे का शिकार हुई. मुड़े हुए हाथ के साथ माता पिता उसे अस्पताल ले गए. डॉक्टर ने समझा कि उसकी कलाई में कुछ परेशानी है, लगाने के लिए मरहम दिया और उन्हें घर वापस भेज दिया. माता पिता बच्ची की हालत देख कर परेशान रहे. दस दिन बाद जा कर डॉक्टरों को समझ आया कि मामला क्या है. लेकिन इस बीच लिन को दो स्ट्रोक और पड़ चुके थे. दिमाग के दाएं हिस्से पर काफी बुरा असर पड़ा था और शरीर के बाएं हिस्से को लकवा मार चुका है.

आज लिन सात साल की है. पिछले छह साल से उसका इलाज चल रहा है. वह पहले से बेहतर है लेकिन पूरी तरह ठीक होने की उम्मीद बहुत कम है. मां पिया बताती हैं, "साढ़े चार साल की उम्र तक लिन ने चलना या बोलना शुरू नहीं किया था. वह बैठ भी नहीं पाती थी." पिया बताती हैं कि लिन की आंखें भी कमजोर हैं और उसकी बाईं टांग का ठीक से विकास नहीं हो रहा है. टांगों पर लोहे की रॉड लगाई गयी हैं ताकि शरीर में कुछ हलचल आ सके. अब उसे जिंदगी भर इलाज पर निर्भर रहना होगा.

जन्म के दौरान स्ट्रोक

जर्मनी में मुन्स्टर यूनिवर्सिटी क्लीनिक के रोनाल्ड श्ट्रेटर बताते हैं कि लकवा जन्म के दौरान और जन्म से पहले भी हो सकता है. बच्चे पर इसका कितना असर होगा इसमें उम्र एक बड़ी भूमिका निभाती है. जर्मनी में हर साल करीब 300 बच्चे लकवे का शिकार होते हैं. श्ट्रेटर बताते हैं कि जिन बच्चों का दिल कमजोर होता है, उन्हें स्ट्रोक का खतरा ज्यादा होता है.

समस्या तब आती है जब माता पिता स्थिति को समझ ही नहीं पाते हैं. श्ट्रेटर के अनुसार, "दुविधा यह है कि नवजात शिशु को जब दौरा पड़ता है, तो लोगों का ध्यान ही नहीं जाता, क्योंकि उन्हें बस इतना ही नजर आता है कि बच्चा ठीक से दूध नहीं पी रहा या फिर आलसी हो गया है." व्यस्कों की तरह शिशु अपनी तकलीफ जाहिर नहीं कर सकते. इसलिए जरूरी है कि जरा सा भी संदेह होने पर पूरी न्यूरोलॉजिकल जांच कराई जाए. श्ट्रेटर के अनुसार अगर बच्चे के शरीर के एक हिस्से में दूसरे की तुलना में कम हरकत दिखे तो डॉक्टर से जरूर संपर्क करें.

समय रहते अगर इलाज शुरू हो जाए तो फिजियोथेरेपी इत्यादि की मदद से हालत में सुधार लाया जा सकता है. लिन की मां भी मानती हैं कि अगर डॉक्टरों को उस समय समझ आ गया होता कि लिन को पक्षाघात हुआ है और बिना वक्त बर्बाद किए इलाज शुरू हुआ होता, तो आज वह बेहतर होती. उनकी सबसे बड़ी ख्वाहिश है कि उनकी बेटी एक सामान्य जीवन व्यतीत कर सके.

आईबी/एएम (डीपीए)