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बर्बरता में लौटता देश

९ जून २०१४

भारत के विभिन्न इलाकों में इधर एक के बाद एक जिस तेजी से औरतों पर हमले बढ़े हैं ऐसा लगता है कि इस देश में क्या बलात्कारियों का बोलबाला हो गया है. मानो मध्ययुगीन बर्बर लौट आए हैं. लेकिन क्या इनसे डर जाएं?

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तस्वीर: UNI

बदायूं मामला हो या निर्भया कांड या महिला टूरिस्टों पर हमले या सांप्रदायिक दंगे, वर्चस्व और वासना का घिनौना खेल थमने का नाम नहीं ले रहा है. आधुनिकता का एक कदम आगे रखते ही बर्बरता का कोई मामला पीछे धकेल देता है. बलात्कार की हिंसा के अलावा स्त्रियों को दूसरे ढंग से मिटाया जा रहा है. औरतें घरेलू हिंसा से, कम खाने से, बीमारी से, कुपोषण से और लगातार बच्चे पैदा करने की पुरुष हवस से भी बड़े पैमाने पर मारी जा रही हैं. जातीय और सांप्रदायिक लड़ाइयां देखिए. सेना और पुलिस की ज्यादतियों के बारे में कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक हमारे पास क्या है? सिर्फ खामोशी. क्या स्त्रियों की कौम पर ये अघोषित लेकिन सिलसिलेवार हमलों का नया दौर है?

इधर जो गिरावटें सबसे मुखर तौर पर नजर आती हैं वे रोजमर्रा के व्यवहार और विचार में देखी जा सकती हैं. स्कूलों में, कॉलेजो में, सिनेमाघरों में, होटलों, पार्कों और सड़क चलते लगातार कई निगाहें पीछा करती रहती हैं, टटोलती रहती हैं. साफ दिखता है कि ये रूमानियत नहीं, बुरी निगाहें हैं. मनचलों और शोहदों से घिरा हुआ समाज हमारा हो गया है. नए मीडिया ने नई पीढ़ी को स्वतंत्र और आधुनिक बनाया लेकिन इसी ने उसे पीछे भी धकेला. औरतों के प्रति ये रवैया यहीं तक सीमित नहीं है. तमाम गालियां औरतों के इर्द गिर्द बुनी गई हैं. कान फट जाएं ऐसी गालियां आप किसी गली चौराहे नुक्कड़ पर सुन सकते हैं. यौन संदर्भ रोजाना के संवादों में चले आए हैं. फिल्मी गाने और अल्बमों के बोल तो मानो इस जघन्यता को ही बढ़ा रहे हैं. वहां औरत बस एक “माल” है. एक चर्चित गवैये का तो एक गाना ही है, “मैं हूं बलात्कारी.”

Symbolbild Depression
क्यों उठते हैं महिलाओं पर सवालतस्वीर: Irna

ये कैसी आधुनिकता

अब ऐसे में समझ नहीं आता कि ये कैसी आधुनिकता आ रही है इस देश में. सांस्कृतिक उत्थान के पुरोधा क्यों मौन हैं. वे जो बात बात में लड़कियों के बाहर निकलने, लड़कों के साथ घूमने, फिल्म देखने, पब जाने या अपने मन की करने के नाम पर उन्हें जा घेरते हैं, मारते पीटते और उन पर अत्याचार करते हैं, वे समाज के पहरेदार लड़कियों के साथ अपनी जघन्यता को तो सही ठहराते हैं, लेकिन दूसरे हमलों पर उनका आक्रोश कहां काफूर हो जाता है. कितने कायर हैं वे.

समाज में ऐसे ही कायरों की कांवकांव है या दानवों का अट्टहास. ऐसे महानुभाव भी हैं इस समाज में, जो स्त्रीविरोधी हिंसा को अपने बयानों से जायज ठहराने की कोशिश करते हैं. कोई कहता है लड़कों से भूल हो जाती है, कोई कहता है जानबूझकर रेप नहीं किया जाता, कोई लड़की को ही दोषी मानता है तो कोई कहता है जीन्स स्कर्ट न पहनें. क्या हिंदुस्तान के लाखों करोड़ों घरों में लड़कियां सिर्फ वही पोशाकें पहनती हैं जिन्हें न पहनने की ताकीद बहुत से ऐसे बयानों में है. फिर हिंसा का आंकड़ा इतना डरावना क्यों है? क्यों हर साल ये बढ़ता ही जाता है?

एक ऐसी राजनैतिक इच्छाशक्ति चाहिए जिसकी आवाज भारत के कोने कोने में सुनाई दे और जो सामाजिक चेतना की अलख जगा सके. क्या हमारी सरकारें इतने सारे कल्याणकारी अभियानों के साथ शीर्ष पर ऐसा कोई अभियान नहीं छेड़ सकतीं जिसमें समाज की खास कर पुरुषों की मानसिकता को बदल देने का बीड़ा उठाया जाए. औरतों के स्वावलंबन की प्रक्रिया इतनी सशक्त और इतनी विस्तृत कर दी जाए कि हर तिरछी निगाह गिर जाए. अगर पहरेदारी ही करनी है समाज में तो समाज विरोधी विचारों के खिलाफ की जाए. दलितों पर, औरतों पर, गरीबों पर अत्याचार के खिलाफ पहरेदारी करने वाले गांव गांव भेजे जाएं. स्थानीय समाजों से वॉलंटियर तैयार किये जाएं. स्कूलों में पाठ्यक्रमों में यौन शिक्षा की एक सचेत व्यवस्था की जाए.

मीडिया का इस्तेमाल

अत्यधिक मास मीडिया के इस दौर में उन्हीं संसाधनों को समाज की कुरीतियों, जातीय बंधनों और स्त्री पुरुष के बीच असमानता को खत्म करने में झोंक दिया जाए. क्या ऐसा नहीं हो सकता? सबसे बढ़ कर आप औरतों की आर्थिक आजादी सुनिश्चित तो कीजिए. मुकम्मल आजादी. आधी अधूरी नहीं. वो तो है ही. चंद मिसालें देकर झूठी हौसला अफजाई मत कीजिए. नामधाम कमाकर जा चुकी कितनी महिलाएं हैं जो अपनी कौम की हिफाजत के लिए जमीनी लड़ाई में शामिल होने पहुंच जाती हैं या डटी रहती हैं.

सत्ता व्यवस्थाएं तो जो करेंगी सो करेंगी लेकिन औरतों को बाड़े खुद ही गिराने होंगे. आखिरी सच्चाई यही है. वरना तो ये समाज अपनी खूंखारी छोड़ने से रहा. 21वीं के वहशी की सौ आंखें और सौ हाथ हैं. इस दैत्य से लड़ने के लिए एक निर्भीक और सतत सामाजिक परियोजना की जरूरत है. और एक अदम्य उम्मीद की भी जरूरत है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादन: अनवर जे अशरफ