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'बलात्कार' शब्द का इस्तेमाल सस्ता ना बनाएं

४ नवम्बर २०१४

बलात्कार और हत्या के एक मामले में दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले पर चर्चाओं का बाजार गर्म है. बलात्कार जैसे घृणित अपराध की झूठी चीख पुकार मचा कर इसे पहले से ही असहिष्णु समाज में सुर्खियां बटोरने का फॉर्मूला नहीं बनाना चाहिए.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक वृद्ध महिला के साथ चार साल पहले हुए बलात्कार के आरोप को कानून के दायरे में देखते हुए, तमाम सबूतों के आधार पर गलत पाया. लेकिन जिस तरह इसे एक चटपटे और विवादास्पद फैसले का स्वरूप देने की कोशिश हुई उसपर भी एक बार ध्यान देने की जरूरत है. क्या लोगों को महिलाओं के लिए पहले से इतने असुरक्षित माने जाने वाले भारत में हर अपराध या घटना को बलात्कार का पुट देने की आदत पड़ गई है. या फिर बलात्कार शब्द अब आम शब्दावली का एक हिस्सा बन गया है जिसके बिना कोई बात ही पूरी नहीं होती. इस जघन्य अपराध की गंभीरता को समझने और इससे संवेदनशीलता के साथ निपटने की जरूरत है.

अदालत के फैसले के बाद से ही कई जगहों पर उसे ऐसे पेश किया गया जैसे कि कोर्ट ने बलात्कार होने की बात तो मानी हो लेकिन पीड़िता की बड़ी उम्र का हवाला देते हुए आरोपी को इसका गुनहगार नहीं ठहराया. फेसबुक और ट्विटर पर तो खास तौर से लोग इस फैसले को लेकर अदालत की जमकर आलोचना करते दिखे. मामला संगीन जरूर है क्योंकि ना सिर्फ इस घटना में जोर जबरदस्ती से महिला के साथ शारीरिक संबंध बनाए जाने की पुष्टि हुई बल्कि उसकी हत्या भी कर दी गई. लेकिन इस पर फैसला सुनाते हुए हाई कोर्ट जज ने पीड़िता की उम्र और उसकी तत्कालीन स्थिति का ब्यौरा देने के क्रम में बताया कि वह मेनोपॉज की उम्र पार कर चुकी थी. इसे विस्तार देते हुए ही उन साक्ष्यों के बारे में कहा गया कि पीड़िता और आरोपी दोनों ने शराब पी हुई थी और महिला के शरीर पर बलात्कार को साबित करने वाले पर्याप्त सबूत नहीं मिले.

देखा जाए तो कई बार बलात्कार को साबित करने के लिए कानून में जरूरी ठहराए गए इन्हीं सबूतों की कमी के कारण कुछ अपराधी बच भी निकलते हैं. यह कहा जाना कि "चूंकि पीड़िता के शरीर पर विरोध के सबूत के तौर पर कोई दिखाई देने वाला जख्म नहीं है तो इसका मतलब है कि उसका बलात्कार नहीं हुआ," भी अपने आप में सही नहीं है. मगर अदालतें पहले से स्थापित किए गए तथ्यों, शर्तों और सबूतों के दायरे में रहकर ही काम कर सकती हैं और इसलिए अपराधों को साबित करने वाली इन शर्तों पर फिर से विचार करने की जरूरत है.

समस्या सिर्फ इस एक मामले तक सीमित नहीं है बल्कि महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के कई ऐसे पहलुओं पर चर्चा किए जाने की जरूरत है. दो लोगों के बीच संभोग 'forceful' यानि जबरदस्ती बनाया हुआ था या 'forcible' यानि केवल बल के इस्तेमाल से बनाया गया, इसकी बारीकी समझना कितने लोगों के बस की बात है. शब्दों और परिभाषाओं के इस चक्कर में कोई दोषी बच निकले तो भी गंवारा है लेकिन कोई बेकसूर दोषी करार दे दिया जाए तो इंसाफ के मंदिर की बुनियाद पर बन आएगी.

ब्लॉग: ऋतिका राय

एडिटर, डीडब्ल्यू हिन्दी
ऋतिका पाण्डेय एडिटर, डॉयचे वेले हिन्दी. साप्ताहिक टीवी शो 'मंथन' की होस्ट.@RitikaPandey_